Stories आलेख देश

”इक्कीसवीं सदी का अस्मितामूलक विकलांग विमर्श”डॉ रामायण प्रसाद टण्डन वरिष्ठ साहित्यकार कांकेर छ.ग.

साहित्यकार परिचय-

डॉ. रामायण प्रसाद टण्डन

जन्म तिथि-09 दिसंबर 1965 नवापारा जिला-बिलासपुर (म0प्र0) वर्तमान जिला-कोरबा (छ.ग.)

शिक्षा-एम.ए.एम.फिल.पी-एच.डी.(हिन्दी)

माता/पिता स्व. श्री बाबूलाल टण्डन-श्रीमती सुहावन टण्डन

प्रकाशन –  हिन्दी साहित्य को समर्पित डॉ.रामायण प्रसाद टण्डन जी भारत के छत्तीसगढ़ राज्य में हिन्दी के स्तंभ कहे जाते हैं। हिन्दी की जितनी सेवा उन्होंने शिक्षक के रूप में की उतनी ही सेवा एक लेखक, कवि और एक शोधकर्ता के रूप में भी उनकी लिखी पुस्तकों में-1. संत गुरू घासीदास की सतवाणी 2. भारतीय समाज में अंधविश्वास और नारी उत्पीड़न 3. समकालीन उपन्यासों में व्यक्त नारी यातना 4. समता की चाह: नारी और दलित साहित्य 5. दलित साहित्य समकालीन विमर्श 6. कथा-रस 7. दलित साहित्य समकालीन विमर्श का समीक्षात्मक विवेचन 8. हिन्दी साहित्य के इतिहास का अनुसंधान परक अध्ययन 9. भारतभूमि में सतनाम आंदोलन की प्रासंगिकता: तब भी और अब भी (सतक्रांति के पुरोधा गुरू घासीदास जी एवं गुरू बालकदास जी) 10. भारतीय साहित्य: एक शोधात्मक अध्ययन 11. राजा गुरू बालकदास जी (खण्ड काव्य) प्रमुख हैं। 12. सहोद्रा माता (खण्ड काव्य) और 13. गुरू अमरदास (खण्ड काव्य) प्रकाशनाधीन हैं। इसके अलावा देश के उच्च स्तरीय प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में, राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय शोध संगोष्ठी सेमिनार में अब तक कुल 257 शोधात्मक लेख, आलेख, समीक्षा, चिंतन, विविधा तथा 60 से भी अधिक शोध पत्र प्रकाशित हैं। आप महाविद्यालय वार्षिक पत्रिका ‘‘उन्मेष’’ के संपादक एवं ‘‘सतनाम संदेश’’ मासिक पत्रिका के सह-संपादक भी हैं। मथुरा  उत्तर  प्रदेश से प्रकाशित मासिक पत्रिका ‘‘डिप्रेस्ड एक्सप्रेस’’ राष्ट्रीय स्तरीय पत्रिका हिन्दी मासिक के संरक्षक तथा ‘‘बहुजन संगठन बुलेटिन’’ हिन्दी मासिक पत्रिका के सह-संपादक तथा ‘‘सत्यदीप ‘आभा’ मासिक हिन्दी पत्रिका के सह-संपादक, साथ ही 10 दिसम्बर 2000 से निरंतर संगत साहित्य परिषद एवं पाठक मंच कांकेर छ.ग और अप्रैल 1996 से निरंतर जिला अध्यक्ष-पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी सृजनपीठ कांकेर छ.ग. और साथ ही 27 मार्च 2008 से भारतीय दलित साहित्य अकादमी कांकेर जिला-उत्तर बस्तर कांकेर छ.ग. और अभी वर्तमान में ‘‘इंडियन सतनामी समाज ऑर्गनाईजेशन’’ (अधिकारी/कर्मचारी प्रकोष्ठ) के प्रदेश उपाध्यक्ष.के रूप में निरंतर कार्यरत भी हैं।

पुरस्कार/सम्मान – 1-American biographical Institute for prestigious fite *Man of the year award 2004*research board of advisors (member since 2005 certificate received)

2. मानव कल्याण सेवा सम्मान 2005 भारतीय दलित साहित्य अकादमी छत्तीसगढ़ 3. बहुजन संगठक अवार्ड 2008 भारतीय दलित साहित्य अकादमी छत्तीसगढ़ 4. पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी  स्मृति प्रोत्साहन पुरस्कार 2007(बख्शी जयंती समारोह में महामहिम राज्यपाल श्री ई.एस.एल. नरसिंम्हन जी के कर कमलों से सम्मानित। इनके अलावा लगभग दो दर्जन से भी अधिक संस्थाओं द्वारा आप सम्मानित हो चुके हैं।) उल्लेखनीय बातें यह है कि आप विदेश यात्रा भी कर चुके हैं जिसमें 11वां विश्व हिन्दी सम्मेलन मॉरीसस 16 से 18 अगस्त 2018 को बस्तर संभाग के छत्तीसगढ़ भारत की ओर से प्रतिनिधित्व करते हुए तीन दिवसीय अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन में भाग लेकर प्रशस्ति-पत्र प्रतीक चिन्ह आदि से सम्मानित हुए हैं।

सम्प्रति – प्रोफेसर एवं विभागाध्यक्ष, शोध-निर्देशक (हिन्दी) शासकीय इन्दरू केंवट कन्या स्नातकोत्तर महाविद्यालय कांकेर, जिला-  कांकेर (छत्तीसगढ़) में अध्यापनरत हैं। तथा वर्तमान में शहीद महेन्द्र कर्मा विश्वविद्यालय बस्तर जगदलपुर छत्तीसगढ़ की ओर से हिन्दी अध्ययन मण्डल के ‘‘अध्यक्ष’’ के रूप में मनोनित होकर निरंतर कार्यरत भी हैं।

सम्पर्क  मकान नं.90, आदर्श नगर कांकेर, जिला-  कांकेर, छत्तीसगढ़ पिन-494-334 चलभाष-9424289312/8319332002

 

शोध पत्र का विषयः-‘‘हिन्दी कविता में दलित, आदिवासी, स्त्री, किन्नर, किसान एवं विकलांग विमर्श’’

”इक्कीसवीं सदी का अस्मितामूलक विकलांग विमर्श”

विमर्श अंग्रेजी के शब्द Discourse  का पर्याय है जिसका अर्थ विचारण, संवाद, वादविवाद या बातचीत से है तो अस्मिता विमर्श का अंग्रेजी में अर्थ Identity Discourse है। Identity Discourse  (आईडेंटिटी डिस्कोर्स) से अभिप्राय है पहचान के लिए किया गया विचारण या संवाद। वर्तमान समय में अस्मिता विमर्श की चर्चा बहुत अधिक है। परिवेश व परंपरा की निजता और विशिष्टता अस्मिता विमर्श में विशेष महत्व रखती है। वर्ण, धर्म, लिंग आदि के प्रश्नों को लेकर अनेक व्यक्ति और समूह अपनी अपनी अस्मिता के साथ खड़े हुए दिखाई देते हैं। व्यक्तिगत अस्मिता में स्त्री अस्मिता, पुरूष अस्मिता, किसान अस्मिता का सवाल उठता है तो सामूहिक अस्मिता में दलित अस्मिता, आदिवासी अस्मिता, किन्नर अस्मिता, क्षेत्रीय अस्मिता, भाषायी अस्मिता आदि की चर्चा की जाती है। इस प्रकार विमर्श सकारात्मक और नकारात्मक दोनों हो सकते हैं।

 

किंतु जो समाजहित में हो तो वह सकारात्मक अस्मिता है और जो व्यक्तिगत हो तो वह नकारात्मक अस्मिता है। इस संदर्भ में प्रो0 अभयकुमार दुबे का कथन है कि-‘‘यह अस्मिता एक ऐसा दायरा है जिसके तहत् व्यक्ति और समुदाय यह बताते है कि वे खुद को क्या समझते हैं। भारतीय साहित्य जगत में छायावादी कवयित्री महादेवी वर्मा ने वर्ष 1942 में नारी अस्मिता की लड़ाई लड़ी इस तरह वे नारियों के हित में उनकी पीड़ा और दर्द को अपनी कविताओं में अभिव्यक्त किया है। इसी प्रकार सावित्री बाई फूले ने भी अपने ढंग से स्त्रियों के उत्थान में योगदान दिया तथा उन्होंने स्त्रियों के लिए स्कूल खोलकर उन्हें शिक्षा देने का कार्य किया इसीलिए उन्हें भारत की पहली महिला शिक्षिका मानी गई हैं। ताराबाई शिंदे ने वर्ष 1882 में स्त्री पुरूष का तुलनात्मक रचना का लेखन किया।

 

सुप्रसिद्ध कवयित्री महादेवी वर्मा ने वर्ष 1942 में स्त्री समस्याओं पर केन्द्रित ‘श्रृंखला की कड़ियां’ पुस्तक की रचना की। महादेवी का चिंतन स्त्री के प्रति बहुत गहरा रहा है। स्त्री के संबंध में उनका यह कथन दृष्टव्य है-‘‘भारतीय नारी जिस दिन अपने संपूर्ण प्राण आयोग से जान सके, उस दिन उसकी गति रोकना किसी के लिए संभव नहीं। उसके अधिकारों के संबंध में यह सत्य है कि वे शिक्षावृत्ति से न मिले हैं न मिलेंगे। क्योंकि उनकी स्थिति आदान-प्रदान योग्य वस्तुओं से भिन्न है। समाज में व्यक्ति का सहयोग और विकास की दिशा में उसका उपयोग ही उसके अधिकार निश्चित करता रहता है। वर्तमान समय में स्त्री की स्थिति देखकर हम कह सकते हैं कि उसके जीवन में उत्तरोत्तर सुधार हो रहे हैं। लेकिन वे पर्याप्त नहीं हैं। लेखिकाओं ने इस दिशा में महत्वपूर्ण प्रयास किए हैं। स्त्री विमर्श से संबंधित अनेक पुस्तकें हमें देखने को मिलता है।

 

स्वातंत्रयोेत्तर हिन्दी साहित्य में अभिव्यक्त निःशक्त चेतना (विकलांग विमर्श) विकलांग चेतना का प्रमुख उद्देश है-विशुद्ध रूप से मानवता की स्थापना करना है। इस उद्देश्य की ओर बढ़ने का रास्ता काफी जटिल, संघर्षमय तथा आत्म परीक्षण से युक्त हैं। जाति, धर्म, लिंग, वंश भाषा प्रांत देश आदि से परे जाकर मनुष्य की पूर्ण प्रतिभा उसकी अस्मिता के प्रति उसके स्वाभिमान के प्रति आदर की सम्मान की भावना व्यक्त करना ही तो विकलांग विमर्श का मानवतावाद है। विकलांग चेतना को एक जाति अथवा वर्ग वर्ण के दायरे तक सीमित करना उस पर अन्याय करना है। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि जो किसी भी रूप में 40 प्रतिशत से ज्यादा विकलांग हैं, पीड़ित हैं, शोषित हैं और जो किसी न किसी कारण से स्थापितों द्वारा नकारे गए हैं, उनकी अवहेलना के शिकार हैं, उन सबकी चेतना विकलांग चेतना है। जो भी इस मानव विरोधी व्यवस्था के शिकार है और इस व्यवस्था में छटपटा रहे हैं, वे विकलांग चेतना के अन्तर्गत आते हैं तथा जो भी इस मानवता, विरोधी व्यवस्था के समर्थक हैं, वे विकलांग चेतना के विरोधी हैं। स्वतंत्रता, समानता, बन्धुत्व, न्याय और धर्म निरपेक्षता इसके पंचशील हैं।

 

हिन्दी साहित्य में विकलांग विमर्श की अवधारणा अभी नयी है। दलित-विमर्श स्त्री विमर्श से तो लोग परिचित हो गए हैं, मगर विकलांग विमर्श, से परिचित होना अभी बाकी है। इस विमर्श को प्रकाश में लाने का श्रेय डॉ. विनय कुमार पाठक एवं डॉ. द्वारिका प्रसाद अग्रवाल को जाता है। इन्ही विद्वान द्वय के अथक प्रयास से 6-7 सितम्बर 2008 के ‘विकलांग विमर्श’ विषय पर बिलासपुर में दो दिवसीय राष्ट्रीय शोध संगोष्ठी का आयोजन किया गया। आयोजन के उपरांत ‘अखिल भारतीय विकलांग चेतना परिषद’ द्वारा यह निर्णय लिया गया कि साहित्य की विभिन्न विधाओं के द्वारा विकलांग, विमर्श को हाशिए से केन्द्र में लाया जाए।

 

विकलांग चेतना हिन्दी साहित्य के लिए एक नया विचार है। इसलिए इस पर अभी लोगों ने बहुत कम लेखन, चिंतन, मनन किया है। लेकिन फिर भी कुछ कवियों ने इस विषय पर अपनी कविताएँ भी लिखें हैं। साथ ही लेख, आलेख भी लिखने का प्रयास किये है जो इस प्रकार से है-
1. प्रकृति की सुन्दरतम रचना मनुष्य हैं, जिसके ज्ञान और रचनात्मक शक्ति के आगे सारी शक्तियाँ व्यर्थ हो रही है। प्रकृति की इस लीला में हर कोई संपूर्ण नहीं है। कोई न कोई, किसी न किसी रूप में अधूरा रह जाता है। इस अधूरे पन को हम विकलांगता कहते है।
2. विकलांगता एक ऐसी स्थिति है जो किसी भी स्थिति को, किसी भी अवस्था में उसके सामान्य व्यवहार कार्य शक्ति, विचार एवं नियमित (दैनिक) कृत्य को न्यूनाधिक प्रभावित कर अंगिक, मानसिक, सामाजिक एवं भावात्मक असंतुलन उत्पन्न कर देती है।
3. स्थायी-शारीरिक कमी या विकलांगता जो पूर्ण रूप से सामान्य जीवन व्यतीत करने में रूकावट उत्पन करें।
4. विकलांग का अर्थ है – क्षमता,सामर्थ्य में कमी या शरीरिक,मानसिक,असमर्थता।
5. विकलांग व्यक्ति का तन विकलांग होता है, परन्तु मन नही। यदि एक अंग निःशक्त होता है तो दूसरा अंग ज्यादा सशक्त हो जाता है।

 

उक्त विचार विद्वानों के है जो मूलतः वास्तविक्ता पर ही आधारित है कि कोई व्यक्ति शरीरिक रूप से अपंग है- किंतु हम उसे मानसिक रूप से अपंग नही कह सकतें। बल्कि उन्हें सक्षम सुयोग्य सुदृढ़़ तथा सबल की संज्ञा हम दे सकते हैं। सब से बड़ी बात तो यह है कि यदि कोई व्यक्ति मानसिक रूप से अपंग है तो फिर वह समाज धर्म राजनीति, साहित्य, शिक्षा, वर्ग, जाति लिंग आदि को विकृत कर देता है। क्योंकि मानव में यदि मानसिक विकलांगता आ जाये तो वह पूरी व्यवस्था समाज, साहित्य धर्म आदि को कुरूप और विकृत कर देता है- जिससे समाज धर्म और राष्ट्र का विकास संभव नही हो सकता ।

 

हम पाते है कि समाज में शारीरिक रूप से अपंग व्यक्ति याने कि विकलांग व्यक्ति पूरी सक्षमता के साथ अपने कर्तव्यों का निर्वहन करते हुए समाज में अपनी भागीदारी निभाते हुए राष्ट्र उत्थान में अपना महत्वपूर्ण योगदान दे रहे है- अतः विकलांग व्यक्ति को असमर्थ, असक्षम और कमजोर समझना हमारे लिये बहुत बड़ी भूल होगी इसके बजाय जो सकलांग है – जिन्हे कुदरत ने सभी प्रकार से परिपूर्णता प्रदान करते हुए संसार में भेजा है- किंतु ऐसे सकलांग अर्थात सम्पूर्ण अंगो से परिपक्व व्यक्ति अपने को सक्षम और समर्थ तो कहता है लेकिन ऐसे सकलांग सक्षम व्यक्ति में यदि मानसिक विकलांगता है तो वह साहित्य समाज,धर्म, वर्ग लिंग राजनीति सबके लिये खरतनाक और अक्षम तथा निर्बल ही साबित कहा जायेगा।

 

क्योकि ऐसे व्यक्ति अपनी मानसिक विकलांगता से पूरे समाज को विनष्ट कर देगा क्योंकि ऐसे व्यक्ति में मानवता की भावना बिल्कुल ही नही रह जाती। मेरा कहने का आशय यह हैं कि शारीरिक विकलांगता किसी भी व्यक्ति के लिए कोई बाधा उत्पन्न नही करता वह अपनी इच्छाओं के अनुरूप अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है- किंतु मानसिक विकलांगता में व्यक्ति किसी का न तो भला कर सकता है और नही स्वयं उत्थान की ओर अ्रक्सर हो सकता है। अतः मानसिक विकलांगता सबसे बडी बाधक है, समाज धर्म और राष्ट्र के लिए अतः हमें इस बात पर ध्यान दने की है कि विकलांगता किसी को भी और कभी भी हो सकती है। यह बच्चे,बूढ़े गरीब,अमीर, स्त्री-पुरूष पढे़ लिखे अनपढ़ शहरी ग्रामीण किसी को भी- हो सकती है। विकलांग व्यक्ति समाज के लिए बोझ नही है। वे स्वालंबी होकर समाज के लिए विकास में योगदान दे सकते है। डॉ. शारदा प्रसाद ने विकलांगता को बरदान मान कर लिखा हैं-
’ विकलांगता अभिषाप नही, वरदान इसे कर जाना।
मुख्यधारा में शामिल होकर, इतिहास नया लिख जाना।।
काने कुबडे़ बौने समाज में, अमलतास सा खिलता है ।
जर्जर होते विकलांग समाज में, इन्द्रधनुषी रंग भरना है ।।

 

प्राचीन साहित्य में विकलांगो पर व्यंगय प्रहार देखने को मिलता है। यह उस समय की सोच है , जब मनुष्य में वैज्ञानिक दृष्टि का विकास नही हुआ था। अमीर, गरीब पर, सबल निर्बल पर, कुलीन सारस्वत, अकुलीन दीन-हीन दलितों पर और सकलांग विकलांग पर हंसता था। इस प्रकार की सामंती सोच आज संभव नही है। डॉ. विनय कुमार पाठक ने लिखा है7
’’ विकलांग और विकलांग कहकर, उन्हे चिढ़ाना पाप है।
सकलांग समझकर ठसक दिखाना, सचमुच अभिशाप हैं ।।
अंधे को सूरदास कहकर, सब संभ्रात कहलाते है।
काने को कौआ कहकर , मानवता को लजाते है।।
मानव मानव में समानता है, क्या गरीब-अमीर ।
विकलांग, सकलांग समान है, एक दूसरे के करीब।।
अपने भाई की निःशक्त चेतना को आकाश दो।
दीनबंधु कहलाकर प्रभु के धर्मो को विश्वास दो ।।

 

इस प्रकार कहा जा सकता है कि संामंती सोच के क्रमशः अवसान के बाद मानवीयता का प्रसार हुआ। तदनुरूप यह धारणा विकसित हुई कि सकलांगता सदृश्य विकलांगता भी प्रकृति या प्रभु की देन है। इसे अभिशाप समझना समाज के मानसिक दिवालियेपन की निशानी है और इस पर हंसना प्रकारांतर से मानव समुदाय पर प्रहार करना है। मनुष्य की माप उसकी प्रतिभा है, न कि शरीर सौष्ठव। यही भावना क्रमशः प्रसारित होकर निःशक्त चेतना या विकलांग चेतना की आधार शिला प्रमाणित हुई है। डॉ. पाठक ने ठीक ही इन पंक्तियो में उद्यृत किया है –
काने, खोरे,कूबरे, कुटिल, कुचाली जान।
यह पुरानी दृष्टि है, और प्राचीन प्रतिमान।।
विकलांगता की उपेक्षा है, अमान-वीर भाव ।
सकलांग-विकलांग दोनो भाईयों में समभाव।।
निःशक्त चेतना का प्रसार, मानवता की पूजा ।
जीवन सफल करने का, अवसर इससे, न-दूजा।।

 

अतः हम कह सकते है कि विकलांगता के हित कल्याण के विषय में सोचने वाली चेतना दृष्टि ही विकलांग चेतना दृष्टि है।
विकलांग होना कोई पाप नही है और न ही अक्षमता बल्कि ऐसे विकलांग साहित्यकारों की अद्भुत प्रतिभा हमें उनके द्वारा लिखे महाकाव्य हमारे सकलांग समाज के लिए एक मिसाल है कि इन प्रतिभा सम्पन्न साहित्यकारों की रचनाओं में उनकी अद्भुत प्रतिभा देखने को मिलती है। जिनमें सर्वप्रथम नाम मलिक मोहम्मद जायसी जी जो सूफी संत थे जिन्होने ‘पद्मावत’ महाकाव्य की रचना की मसनवी शैली में लिखा गया यह काव्य बहुत ही प्रसिद्ध और चर्चित काव्य है।

 

जायसी एक विकलांग कवि थे जायसी जी का एक आँख नही थी और वे एक बदसूरत और कुरूप व्यक्ति थे। लेकिन उनके काव्य की खुबसूरती और प्रतिभा अद्भुत थी जिसकी तारीफ स्वयं अकबर बादशाह ने भी की थी। जायसी जी प्रतिभाशाली और शालीन कवि थे। उन्होने अपनी विकलांगता का परिचय इस पंक्ति में व्यक्त किया है – ’एक नयन कवि मुहमद गुनी ’ इनकी बाई आँख फूटी थी। आप लिखते है – ’मुहमद बाई’ दिसि तजा एक सरवन, एक ऑख।’ इससे तो यह भी पता चलता है कि इनका एक कान भी बहरा हो गया था। कहते है कि एक बार किसी राजा ने इन्हें न पहचानकर इनकी कुरूपता की हंसी उड़ाई थी, तब इन्होने उŸार दिया था ’ मोहिं कह हँससि कि कोहर हि’’ अर्थात् मुझे हँसता है कि – उस कुम्हार या बनाने वाले ईश्वर को। इस पर वह बड़ा लज्जित हुआ और उसने इनसे क्षमा मंागी। इन्होंने एक से बढ़कर एक रचनाएँ दी हैं।

 

इसी तरह से हिन्दी साहित्य के जाने माने महाकवि सूरदास जी जो कि जन्मांध थे जिन्होंने अपनी अद्भुत साहित्यिक प्रतिभा से महान रचनाएँ दी है। नरसी, मीरा, विद्यापति,चंडीदास आदि  भारतीय  साहित्य के अनेक कवियों ने पढ़ रचना की परन्तु रीतिकाव्य में सूरदास जी का स्थान सर्वोपरि कहा जा सकता है। इनकी प्रसिद्व रचनाएँ है- सूरसागर,साहित्य लहरी, व सूर सारावली आदि। सूरदास की सर्वश्रेष्ठ रचना सूरसागर है- भागवत से सूरसागर की तुलना करने पर ज्ञात होता है- कि सूरदास ने भागवत का अनुवाद करके भौतिक रूप से कृष्ण लीलाओं का चित्रण किया है।

 

कृष्ण की बाल लीला तथा प्रणय लीला के गायन की उत्कृष्ठता के कारण सूरदास को महाकवि बनने का गौरव प्राप्त है।
इसी प्रकार फिल्म एवं संगीत जगत से जुड़े गीत-संगीतकार  रवीन्द्र जैन,ये भी जन्मांध है – किन्तु इनसे आप सभी परिचित भी है कि इन्होंने फिल्मीस्तान में फिल्मों एवं धारावाहिकों में अपने अद्भुत गीत एवं संगीत के माध्यम से मधुर संगीत देकर सबके दिलो में राज किया।अभी-अभी हाल ही में चर्चित दो महाकव्यों के सीरियलों में संगीत देकर रामांनद सागर के सीरियल ’रामायण’ एवं बी.आर. चोपड़ा जी के सीरियल ’महाभारत’ को जीवंत कर दिया।

घटना और पात्रों के अनुकूल गीत-संगीत के माध्यम से सीधे हमारे हदृय में स्थान बना लिये। तो हम कैसे कह सकते है – कि विकलांगता मानव के लिए अभिशाप है। ये तीनो विकलांग व्यक्ति है- किंतु इन्होंने अपनी नैसर्गिक और अद्भुत प्रतिभा से सबको सम्मोहित और आकर्षित किया है। और इनका जीवन सफल भी हो गया। कोई मानव अगर शरीरिक रूप से विकलांग है तो क्या हुआ ? वह अपने लक्ष्यों को पा सकता है। किंतु यदि मानव मानसिक रूप से विकलांग हो गया तो समझ लो ये दुनिया को तहस-नहस कर डालेगा। अतः हम शारीरिक रूप से विकलांग व्यक्ति का उपहास न उड़ाये बल्कि उन्हें हौसला प्रदान करे। ऐसे अनेक उदाहरण मिल जायेंगे कि जिसमें अनेक क्षेत्रों में शारीरिक रूप से विकलांग व्यक्तियों ने अपनी प्रतिभा एवं योग्यता का लोहा मनवाया है। विकलांग मनुष्य दया के पात्र नही बल्कि हमें इस समाज में बराबर का हक प्रदान करते हुए उसका सम्मान और हौसला बढ़ाने की जरूरत है। न कि उनका उपहास करने की। वे भीहमारी ही तरह के मनुष्य है – अतः उसके प्रति हमें मानवीयता का व्यवहार करना चाहिए।

 

मानव मानवता, मानव का संबंध मानव मूल्य/मानवीय मूल्य, मानवीय आदर्श,मानवीय वास्तविकता, मानव संस्कृति आदि शब्द और इन से संबंधित संकल्पनाओं से आदि ऐसे शब्द है- जो बाद में उदित संकल्पनाओं के लिए हमारी भाषाओं में निर्मित किए गए है।
मानवतावाद शुरू से ही मानवीय चिंतन का अंग रहा है -। हमारे दार्शनिकों की चिंतनपरक दृष्टि न केवल आदर्शवादी थी अपितु उनकी दृष्टि सीमा विशाल और सार्वभौमिक रही । विश्व मानवता भी हमारे दार्शनिक चिंतन का अभिन्न अंग रहा है। नही तो ’वसुधैव कुटुम्बकम और ’सर्वेजनो सुखिनो भवंतु’’ जैसी उक्तियाँ हमारे वाड.ग्मय में प्रकट नही हुई होती।

 

चंद्रकुमार अग्रवाल ’मानव की महŸाा की प्रशंसा में अपनी कविता ’’मानव बंधन में यों कहते है – ’ मनुष्य ही ईश्वर है, मनुष्य ही में देवत्व है/और किसी में देवत्व नही है/करो उसकी पूजा और चढ़ाओं भेंट/गाओ तो उसकी महानता को लिए/अंबिकाराय चौधरी ने अपनी बहुचर्चित कविता- ’मैं स्वतंत्रता का राजकुमार’ में यों उद्घोष करते है – ’मैं आजदी का राजकुमार/गुलामी की जंजीरों को तोड डालूंगा/हिमालय की अबोधता को दूर कर लाऊँगा प्रकाश/सारी अवांछित सांसारिक बाधाओ को भस्मीभूत कर दूंगा/अपने देश को शांति सोपानो पर रख दंूगा।
मनुष्य की अदम्य शक्ति का बखान करते हुए अमूल्य राय चौधरी ने अपनी कविता ’अंधकार का हाहाकार’ में इस तरह व्यक्त करते हैं- मैं पृथ्वी पुत्र माटी का पुतला/धरती पर डग बढ़़ाता हुआ/वास्तविकता की विकृति विपत्ति से ढँका/मेरी प्रतिकृति है। उस अंधेरें पथ पर बढ़ते ही जाना/अकेले-अकेले/’प्रार्थना’ कविता में ’नवकांतबरूबा ईश्वर के अस्तित्व पर प्रश्न चिन्ह लगाते और मनुष्य के भोलेपन पर तरस खाते हुए व्यंग्य बाण संधान करते हुए ईश्वर को आखिर ’’ग’’ करार कर देते है।

 

जैसे कुछ पंक्तियाँ देखिए – ईश्वर ईश्वर/ ईश्वर की तरह शून्य ईश्वर/मंदिर के अगरू-धूप की/आड़ में तुम्हारा वास/….विविधालंकृत कर तुम्हारे गात्र/मानव ने ही तुम्हे किया है महान/तुम्हे बड़ा बनाते-बनाते मानव/स्वयं बन गया है बौना/… हाय रे भोला मानव/और मानव के अबोध ईश्वर/तुम हो/ मात्र ’प्रिमिटिव’ मानव की अनुर्वर कल्पना/ एक जीवित कुसंस्कार/मानव के बर्बर दिनों की दुःखद स्मृति/….. फिर भी/तुम नही हो, कहने को साहस नही हमारा/……… ईश्वर/आखिर क्या हो तुम/ बीज गणित के मात्र ‘’ग’’ /

 

तीर्थ स्थानों पर पानी के कुंडो में नहाते श्रद्धालु भक्तों को केन्द्र मे रखकर उदय कुमार शर्मा अपनी कविता ’उत्तर में व्यंग्य करते हैं कि ‘‘कितने पानी में नहाने से मनुष्य बन सकता है देवता/ क्या तुम उसका माप जानते हो/पुरोहित के पास आकर पूछा था कुछ तितलियों ने।
हिन्दुओं के पुर्नजन्म विचार पर चोट करते हुए अपनी दीर्घ कविता ’ इंफर्नो’ में दो वर्ष में कवि नवकांत बरूआ यो कहते है- ’’मै’’ तो पड़ा हूँ परेशानी में इस हिन्दू को लेकर/मैं तो चाहता था इसे पहले ही वलय में छोड जाना/क्योंकि मैंने सुना है इसके देश के लोगों का विचार है/आत्मा दुनिया में बार-बार आती है, और चली जाती बार-बार/कभी केंचुआ बनकर, कभी बनकर जानवर/
इस प्रकार उपर्युक्त वर्णित आज के सजग साहित्यकारों ने अपने साहित्य में विकलांग मानसिकता का परित्याग करते हुए मानवीयता पूर्ण रचना करने लगे हैं जो सर्व मानवता के हित में है। किंतु प्राचीन साहित्यकारों के साहित्य में गैर शालीन और असंगत बाते लिखी गई हैं। यह पंक्ति उद्यृत हैं-
1. ‘पुजिअ विप्र सील गुन हीना, सुद्र न गुन गन ग्यान प्रबीना।
सापत, ताड़त परूष कहन्ता, विप्र पूज्य अस गावहि संता।
2. जे वर्णाधम तेली कुम्हारा, स्वपच किरात कोल कलवारा।
ते विप्र सन पांव पुजावहि, उभय लोक निज हाथ नसावहिं।
3. ढोल गंवार सूद्र पशु नारी, सकल ताड़ना के अधिकारी।

व्यास स्मृति के लेखक की भी इस पंक्ति में मानसिक विकलांगता देखने को मिलता है-‘माता पित्रों परम् तीर्थ गंगा गावो विशेषतः।
ब्राम्हणात् परम् तीर्थ न भूत न भविष्यति।। (अध्याय-चतुर्थ श्लोक) अर्थात् ‘माता पिता से गंगा और विशेष रूप से गऊए बड़ा तीर्थं है, परन्तु ब्राम्हण से बढ़कर बड़ा तीर्थ न हुआ है और न होगा।’
दलित विमर्ष तो दलित साहित्यकारों के इन सवर्ण मानसिकता अर्थात् विकलांग मानसिकता को धारण करने वालों पर करारा तमाचा है क्योंकि दलित साहित्य मूलतः विकलांग मानसिकता अर्थात् क्षुद्र मानसिकता वाले लोगों को पूरी तरह से खारिज करता हैं, दरकिनार करता है और उनके क्षुद्र विचारों को कभी स्वीकार्य नहीं करता। राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर ने अपने ‘रश्मिरथी’ काव्य में सुत पुत्र कर्ण के प्रति अतिसंवेदनशीलता का परिचय देते हुए जाति-पांति, ऊंच नीच की भावना को सुन्दर ढंग से व्यक्त करते हुए महारथि कर्ण के द्वारा सवर्ण मानसिकता वाले विकलांग मानसिकता वाले क्षुद्र लोगों को करारा जवाब दिलाते हैं- पंक्ति दृष्टब्य हैंः-
‘जाति-जाति कहते जिनकी पूंजी केवल पाखंड
मैं क्या जानू जाति ? जाति है ये मेरे भुजदंड।’’

 

ऊंची जाति के लोग छल, कपट, पाप, शोषण जातिभेद के सहारे समाज में अपनी वरिष्ठता स्थापित करके गरीबों, दलितों और शोषितों पर धाक जमाते हैं। दृष्टव्य हैं-
‘‘ जाति पाँति का शोर मचाते केवल कायर क्रूर।’’
कर्ण से जाति पूछने पर वह बोल उठता है-‘‘सूत पूत्र मैं शुद्र कर्ण हॅंू,, करूणा का अभिलाषी हूँ।’’ जाति भेद की धारणा विषयक कर्ण का चिंतन निम्न पंक्तियों में व्यक्त हुआ हैं-
‘‘धंस जाए वह देश अतल में, गुण की जहाँ नहीं पहचान
जाति गोत्र-के बल से ही, आदर पाते हैं जहाँ सुजान।
हाय! जाति छोटी हैं, तो फिर सभी हमारे गुण छोटे,
जाति बड़ी तो बड़े बने वे, रहे लाख चाहे खोटे।’’

 

भले ही कर्ण सुत पुत्र क्यों न हो परन्तु उसकी श्रेष्ठता महानता नहीं छिपाई जा सकती हैं, अन्ततः उसके गुण किसी से नहीं छिपे हैं। दिनकर जी की ‘रश्मिरथी’ में कर्ण की वाणी के रूप में नये युग की विद्रोही आवाज गूंजती हैं। ‘रश्मिरथी’ की रचना दलितों और वंचितों तथा उपेक्षितों के उद्धार के रूप में हुई है। कुल और जाति के अहंकार को मिटाकर मानवीय मूल्यों और गुणों की स्थापना दिनकर का ध्येय है। कुल मिलाकर विकलांग विमर्ष के तहत् रामधारी सिंह दिनकर जी ने विकलांग मानसिकता वाले मानव पर कटाक्ष करते है, कर्ण के माध्यम से कहने का मूल आशय यह है कि कोई व्यक्ति यदि शारीरिक रूप से विकलांग है तो वह उपेक्षा का पात्र है वैसे ही यदि कोई व्यक्ति किसी निम्न वर्ग जाति के अन्तर्गत आता है तो वह भी उपेक्षित नही हो सकता। यदि इन दोनो वर्गो के व्यक्ति में साहस,शौर्य,प्रतिभा और योग्यता है तो वह किसी भी तरह से तिरस्कार के योग्य नही हो सकता ।

 

अगर हम विकलांग व्यक्ति और निम्न वर्ग के किसी व्यक्ति की उपेक्षा करते है तो हम मानसिक विकलांग की श्रेणी में आते है। और मानसिक विकलांगता सामज के लिए सबसे बड़ी बाधा पैदा करती है।
ऐसे ही भारत भूमि में रहने वाले मानसिक विकलांग लोगों पर तरस खाते हुए भूण हत्या पर डॉ. दिलीप उमाकांत पाठक ने ‘‘यह कैसी विदाई पापा’’ नामक किताब का प्रकाशन किया है जिसमें उन्होंने हमारे देश में आज बहुतायत रूप में चल रहे भू्रण हत्या पर आधारित बातें इस किताब में उल्लेखित है। जिसके तहत् लिंग परीक्षण करवाते हुए यदि भू्रण में लड़की पाई जाती है, तो उसकी हत्या करवा दी जाती है यह सिलसिला अब निरंतर जारी भी है हॉलाकि भू्रण हत्या कानूनन अपराध है लेकिन इसमें बड़े-बडे़ सर्जन इस कार्य में गोपनीय तरीके से संलग्न है। इसी के अन्तर्गत ‘‘कोख मिली पर गोद न मिली’’ शीर्षक से डॉ.पाठक ने कारूणिक चित्रण किया है। वे लिखते है- ’एक पेड़ पर कौंच पक्षियो का जोड़ा बैठा था। एक शिकारी ने उसे देखा। उसने तीर चला दिया तो क्रौंच मरकर गिर पड़ा। महर्षि वाल्मीकी ने इसे देखा। देखते ही उनके हृदय की अतल गहराई से अनायास एक श्लोक फूट पड़ा वेदना की इसी वाणी से ‘‘रामायण’’ महाकाव्य की रचना हुई। आज वाल्मीकि होते तो भू्रण हत्या को देखकर पता नही किस महाकाव्य की रचना करते। वाल्मीकि तो है नहीं उनका काम कौन करेगा। गुरूदेव रवीन्द्र नाथ की एक कविता है- अस्ता चलगामी सूर्य ने पूछा कि मैं अब तो जा रहा हूं, मेरा काम कौन करेगा ? चारो ओर मौन छा गया। जब कोई कुछ नही बोला तो मिट्टी का छोटा सा दीया बोला प्रभु यथाशक्ति आपका काम मैं करूगा।’
वाल्मीकि जी का काम आज डॉ. पाठक कर रहे है। अजन्मी कन्याओं की हत्या देखकर वे इतने द्रवित हुए कि उनसे रहा न गया है और उनकी कलम से यह खण्ड काव्य अनायास फूट पड़ा।

 

सहारा का मरूस्थल इतना गर्म है कि वहाँ वर्षा नहीं होती। बादल से अगर वर्षा होती भी है- तो वह जमीन तक पहुँच नही पाती बीच रास्ते में ही भाप बन कर उड़ जाती है। इन दिनों लडकियाँ अवतरित होने के पहले ही भाप बनकर उड़ जाती है। अगर वे बेटी न होकर बेटा होती तो क्या उनका वध किया जाता है ये ही वे प्रश्न है जिन्होनें डॉ. पाठक को आलोड़ित किया है और उनकी लेखनी से यह काव्य प्रवाहित हो चला।
भारत में पहली बार 2001 में विकलांगों की जनगणना आरंभ हुई। समूचे विश्व में लगभग तीन प्रतिशत लोग विकलांग है। यू .एन.ओ. का सर्वेक्षण दस प्रतिशत विकलांग आबादी की पुष्टि करता है। इनकी समस्याओं को समझना संघर्ष महसूस करना और समरस होना मानवता का आग्रह है। ये लोग दया के पात्र नही करूणा, और संबल के अधिकारी है। लिंग,जाति, स्थान रहित विकलांग विशुद्ध मानवतावादी दृष्टि पर केन्द्रित है यही निःशक्त चेतना है।

 

प्रकृति समाज एवं व्यक्ति विकलांगता की जननी है। बिडम्बना यह है कि समाज में प्रायः विकलांग उपेक्षित, तिरस्कृत, कौतूहल, हास्य और दया के पात्र हैं। समाज की मानसिकता में विकलांगता का कारण पाप का फल है। इसीलिए प्रायः इन्हें लोग छिपाकर रखते है- घर के कोने मे टूटे-फूटे समान की तरह कबाड़ समझते है।

अतः अब इस विकलांग विमर्श के अन्तंर्गत हमें इन विकलांग निःशक्त जनों को सकलांग और सशक्त बनाना उनमें आत्म विश्वास और आत्मबल का वातावरण निर्माण कर समाज में सम्मिलित करना हमारा एवं समाज परिवार और सरकार का दायित्व एवं परम कर्तव्य है। तथा विकलांगों की अस्मिता और स्वाभिमान को अक्षुण्ण बनाए रखने से उन्हें सम्मानपूर्ण जीवन यापन का अवसर मिले। तथा विकलंागों की प्रतिभा से अवगत करना इस विमर्श का प्रमुख प्रयोजन है।

इन पुस्तकों में स्त्रियों के जीवन, संघर्ष और सपनों के बारे में गहरे से चिंतन किया गया है। ‘द सेकेण्ड सेक्स’ का प्रभा खेतान द्वारा किया गया अनुवाद ‘स्त्री उपेक्षिता’ बहुचर्चित रहा है। हिन्दी लेखिकाओं ने स्त्री को अपनी रचनाओं में भी अपने तरीके से अभिव्यक्त किया है। स्त्री आत्म कथाओं के माध्यम से स्त्री स्वरों को एक सार्थक जगह मिलती हुई दिखाई देती है। गल्प साहित्य के अतिरिक्त किया गया स्त्री केन्द्रित लेखन इस दिशा में बहुत मायने रखता है। सुमन राजे की ‘हिंदी साहित्य का आधा इतिहास’ राधाकुमार की ‘स्त्री संघर्ष का इतिहास’ प्रभा खेतान की ‘उपनिवेश में स्त्री’ मैत्रेयी पुष्पा की ‘खुली खिड़कियां’ सुनों मालिक सुनों’ नासिरा शर्मा की ‘औरत के लिए औरत’ अनामिका की ‘स्त्री का मानचित्र’, स्त्री मिर्श का लोकपक्ष रोहिणी अग्रवाल की ‘स्त्री लेखन:स्वरूप और संकल्प’ ममता कालिया की ‘भविष्य का स्त्री विमर्श’ मृणाल पाण्डेय की ‘देह की राजनीति से देश की राजनीति तक’, परिधि पर स्त्री, क्षमा शर्मा की ‘ स्त्री का समय’ मनीषा की ‘हम सभ्य औरतें’ नमिता सिंह की ‘स्त्री-प्रश्न, कात्यायनी की ‘दुर्गद्वार पर दस्तक’ गीता श्री की ‘सपनों की मंडी’ आदि स्त्री लेखकों द्वारा रचित स्त्री विमर्श से जुड़ी महत्वपूर्ण व चर्चित कृत्तियां हैं।

इसी तरह पुरूष लेखकों के द्वारा लिखी किताब ‘आदमी की निगाह में औंरत’ स्त्री के संबंध में एक चर्चित कृति है। अर्चना वर्मा के साथ संपादन में भी उनकी कृति ‘औरत: उत्तर कथा का उल्लेख किया जा सकता है। राजकिशोर की ‘स्त्री-पुरूष: एक पुनर्विचार, स्त्रीत्व का उत्सव अरविंद जैन की ‘औरत होने की सजा, उत्तराधिकार बनाम पुत्राधिकार, औरत अस्तित्व और अस्मिता, यौन हिंसा और न्याय की भाषा, देवेन्द्र इस्सर की ‘स्त्री मुक्ति के प्रश्न, सुधीस पचौरी की ‘नारी देह के विमर्श’ आदि पुरूष लेखकों की उल्लेखनीय कृत्तियां हैं।
इसी प्रकार दलित विमर्श में मनुष्य को मनुष्य होने के बावजूद उन्हें मनुष्यों की श्रेणी में नहीं समझा गया है। शूद्रों को अस्पृश्य माना गया और उनके लिए बहुत ही कठोर नियम लागू किए गये।

 

मनुस्मृति के अनुसार शूद्रों को वेद आदि ग्रंथों को पढ़ने का अधिकार नहीं था। वे किसी भी धार्मिक ग्रंथ और धार्मिक कार्य में सछूतों की तरह भाग नहीं ले सकते थे। महात्मा बुद्ध, ज्योतिबा फूले और आंबेडकर ने शूद्रों के उद्धार के लिए उल्लेखनीय योगदान दिया। दलित साहित्य का वैचारिक आधार भी आंबेडकर का जीवन संघर्ष और महात्मा बुद्ध और महात्मा ज्योतिबा फूले का जीवन दर्शन है। जोतिबा फूले ने 1873 र्इ्र0 में सत्य शोधक समाज की स्थापना से सामंती मूल्यों और सामाजिक भेदभाव को चुनौती देने का काम किया। उनके द्वारा लिखित पुस्तक-‘गुलाम गिरी’ एक महत्वपूर्ण पुस्तक है। अनेक महापुरूषों से भी दलित आंदोलन प्रेरणा ग्रहण करता रहा है। इस संदर्भ में केरल के नारायणा गुरू, तमिलनाडु के पेरियार रामास्वामी नायकर, उत्तर भारत के स्वामीं अछूतानंद, बंगाल के चांद गुरू, छत्तीसगढ़ के संत गुरू घासीदास जी का नाम बड़े ही आदर के साथ लिया जाता सकता है। 1972 ई0 में नामदेव ढसाल और जे0बी0 पवार द्वारा स्ािापित ‘दलित पैंथर’ का मुख्य उद्देश्य दलितों को उनके हकों के लिए जागरूक करना था। जाति आधारित असमानता और भौतिक संसाधनों के मामले में होने वाले अन्याय के खिलाफ ‘दलित पैंथर’ का संघर्ष देखा जा सकता है। 1914 ई0 में प्रकाशित हीरा डोम की कविता ‘अछूतों की शिकायत’ दलित साहित्य में महत्वपूर्ण स्थान रखती है।

 

इस तरह से हमें यह भी देखने को मिलता है कि प्रेमचंद और निराला की अनेक रचनाएं दलित केन्द्रित हैं, जो उनके जीवन को गहरी संवेदना के साथ बयां करती हैं। दलित विचारकों ने लेकिन गैर-दलितों द्वारा लिखी गयी रचनाओं को दलित साहित्य की प्रतिनिधि रचनाओं के रूप में स्वीकार नहीं किया। सहानुभूति और स्चानुभूति की बहस इस संदर्भ में देखी जा सकती है। ओमप्रकाश बाल्मीकि, कंवल भारती के साथ मैनेजर पाण्डेय, शिवकुमार मिर ओर राजेनद्र यादव और गैर दलित लेखक स्वानुीाूति के प्रश्न के साथ खड़े हैं। हॉलाकि राजेन्द्र यादव सहानुभूति के साहित्य को पूरी तरह से नहीं नकारतें इस दृष्टि से उनका यह कथन समीचीन मालूम होता है-‘दलित चेतना को जगाने में सहानुभूति पहला कदम है।

 

जब हम कहते हैं (या गांधी जी कहते थे) ये भी मनुष्य हैं। इनको दरिद्रता अवस्था में क्यों रखा जाए, तो यह सहानुभूति है। इससे यह जरूर हुआ कि दलितों के भीतर भी यह भावना जागी कि हम भी मनुष्य हैं और हमें भी षान से जीने का पूरा हक और अधिकार है और सुविधाएं भी पूरी मिलनी चाहिए। यह चेतना पैदा हुई। लेकिन कभी भी सहानुभूति का साहित्य स्वानुभूति के साहित्य का स्ािान नहीं ले सकता’’। दलित साहित्य कविता कहानी के साथ आत्मकथा के रूप में अधिक देखने को मिलता है। आत्मकथाएं दलितों के किसी जीवन संघर्ष को प्रामाणिकता के साथ भिव्यक्त करती हैं। मराठी के साथ हिंदी में अनेक महत्वपूर्ण आत्मकथाएं प्रकाशित हुईं हैं। अन्य महत्वपूर्ण दलित लेखकों में मोहनदास नैमिशराय, डॉ तुलसीराम, श्योराजसिंह बेचैन, मलखानसिंह, असंगधोष, सुशीला, सुशीला टाकभौरे, डॉ. धर्मवीर, जयप्रकाश कर्दम, रत्नकुमार संभारिया, तेजसिंह, सूरजपाल चौहान, अजय नवारिया, अनिता भारती मुख्य हैं।

 

हिन्दी साहित्य में स्त्री औेर दलित विमर्श के पश्चात् आदिवासी विमर्श भी चलता है। आदिवासी से अभिप्राय इस देश के आदिनिवासी से है जिसकी सदियों से उपेक्षा की गई्र है। आदिवासी समाज का जीवन दर्शन-प्रकृति के बहुत ही निकट स्ािान पाता है। सदियों से जल, जंगल और जमीन बचाने के लिए उसने बहुत ही संघर्ष किया है। इतिहास में उनके अनेक आंदोलन प्रसिद्ध है। कोल विद्रोह, संथाल विद्रोह, भील विद्रोह, मुडा विद्रोह, अहोम विद्रोह, खासी विद्रोह, रम्पा विद्रोह आदि ऐतिहासिक महत्व के बड़े व महत्पूर्ण विद्रोह है। भारत में इस समय भील, गोड़, संथाल, उरांव, मुडा, अहो, खासी, नागा, आदि प्रमुख आदिवासी समुदाय निवास करते हैं। आदिवासी समुदाय हमेशा से ही हासिए पर रहा है। आदिवासियों की ओर न सत्ता ने कभी ध्यान दिया, न किसी और ने उनके प्रति चिंता करनी आवश्यक समझी। वैश्वीकरण के दौर में देश के प्राकृतिक संसाधनों का दोहन और अधिक तेजी से देखने को मिला है।

 

इसका सबसे अधिक प्रभाव आदिवास समाज पर ही पड़ा है। आदिवासियों की मूल पहचान उनकी संस्कृति से जुई है। आदिवासियों के साहित्य ने आदिवासी अस्मिता को पहचानने की कोशिश की है। उनके जीवन और संस्कृति के बारे में न केवल आदिवासियों ने बल्कि गैर आदिवासियों ने भी लिखा है। प्रेमचंद, रांगेय राघव, देवेन्द्र सत्यार्थी, नागार्जुन, फणीश्वरनाथ रेणु, संजीव, राकेश कुमार सिंह, रमणिका गुप्ता आदि गैर आदिवासी लेखक हैं, जिनकी रचनाओं में हमें आदिवासी समाज की सार्थक उपस्थिति मिलती है। वीरेन्द्र जैन का ‘पार’ मधु कोकरिया का ‘खुले गगन के लाल सितारे, महुआ माजी का, मरंग गौड़ा नीलकंठ हुआ, हरिराम मीणा का ‘धूणीतपेतीर, रणेन्द्र का ‘ग्लोबल गांव के देवता, संजीव का ‘जंगल जहां से शुरू होता है, मनमोहन पाठक का ‘गगन घटा घहरानी, राकेश कुमार सिंह के ‘पठार पर कोहरा’ जो इतिहास में नहीं है, विनोद कुमार का ‘रेडजान’ आदि ऐसे उपन्यास हैं जो आदिवासियों के जीवन के बारे में हमें विविध ओैर तथ्यपरक जानकारी प्रदान करते हैं।

 

शिक्षा के माध्यम से चेतना जागृत होने पर इसी से आदिवासी साहित्य का महत्व तब और बढ़ा जब आदिवासियों ने स्वयं अपनी बात कहनी प्रारंभ की। नब्बे के दशक के बाद हिंदी और अन्य आदिवासी भाषाओं यथा मुंडरी, संथाली, खड़िया, कुडुख, आदि में अनेक आदिवासी लेखक सामने आए। साहित्य के साथ-साथ सिनेमा में भी आदिवासियों के मुद्दों को जगह दी जाने लगी है। पिछले दशकों में जिन आदिवासी रचनाकारों ने साहित्य जगत का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया है, उनमें एलिस एक्का, बंदनाटेटे, निर्मल मुतुल, रोज केरकेट्टा, पीटर पॉल एक्का, महादेव टोप्पो, अनुज लुगुन, जंसिता केरकेट्टा आदि प्रमुख हैं।

 

किन्नर विमर्श और किसान विमर्श किन्नरों अर्थात् थर्ड जेंडर केन्द्रित साहित्य से जुड़ी कुछ कृतियां किन्नरों के स्वरों को उभारने का कार्य कर रही है। अभी तक उपन्यास विधा के रूप में किन्नरों के जीवन को अधिक अभिव्यक्त किया गया है। नीरज माधव का ‘यमदीप’ महेन्द्र भीष्म का ‘किन्नर कथा’ प्रदीप सौरभ का ‘तीसरी ताली’ निर्मला भुराड़िया का ‘गुलाम मंडी’ चित्रा मुदृगल का ‘पोस्ट बॉक्स नं. 203’ नाला सोपारा, आदि प्रमुख उपन्यास इस दृष्टि से उल्लेखनीय है। इन उपन्यासें में किन्नरों की सामाजिक, पारिवारिक, यौन, शिक्षा, उपेक्षा आदि से जुड़ी समस्याओं का अंकन किया गया है। किन्नरों ने शिखा समाज और राजनीति के क्षेत्र में अपनी पहचान बनानी शुरू की है। प्रसिद्धि के शिखर पर पहुंचे कुछ किन्नरों ने स्वयं अपने शब्दों में जीवन की कथा कही है।

 

ये आत्मकथाएं अपनी बेबाकी के लिए चर्चित रही हैं। लक्ष्मी नारायण त्रिपाठी की ‘मैं हिजड़ा’ ‘मैं लक्ष्मी’ तथा मानोबी बांधपाध्याय की ‘‘पुरूष तन में फंसा मेरा नारी मन’ आदि उदाहरण के रूप में देखी जा सकती हैं। अनेक संपादित पुस्तकें और पत्रिकाएं भी अपने विशेषांकों के माध्यम से किन्नरों के मुद्दों पर प्रमुखता से बात कर रही हैं। किसानों पर हमेशा से ही साहित्य लिखा गया है। लेकिन विमर्श के रूप में अभी भी किसानों पर उसकी बात नहीं कही जा रही, जितनी आवश्यक है। ऐसी कोई भी विधा नहीं हैं जिसमें किसानों पर न लिखा गया हो। बालकृष्ण भट्ट से लेकर नए लेखक तक ने किसान जीवन की अभिव्यक्ति अपनी रचनाओं में अभिव्यक्त किया है। किसान केन्द्रित उपन्यासों में जगदीश झा विमल का ‘खरा सोना’ प्रेमचंद के ‘गोदान’ प्रेमाश्रम, नागार्जुन के रतीनाथ की चाची, बलचनामा, फणीश्वरनाथ रेणु ‘परती परिकथा’ विवेकीराय का ‘सोनामाटी’ जगदीशचंद्र का ‘घास गोदाम’ वीरेन्द्र जैन का ‘डूब’ भीमसेन त्यागी का ‘जमीन’ राजूशर्मा का ‘हलफनामें’ शिवमूर्ति का ‘आखिरी छलांग’ सुनील चतुर्वेदी का ‘काली चाट’ संजीव का ‘फांस’ अनंतकुमार सिंह का ‘ताकि बची रहे हरियाली, पंकज सुबीर का ‘अकाल में उत्सव’ एम.एम चंद्रा का ‘यह गांव बिकाउ है आदि मुख्य चर्चित व हैं।’ कवियों और कहानीकारों ने भी अपनी रचनाओं में किसान और उनके जीवन पर कलम चलायी है।

 

दलित विमर्श, स्त्री विमर्श, आदिवासी विमर्श, थर्ड जेंडर या किन्नर विमर्श जैसे अस्मितावादी विमर्शो ने साहित्य जगत में ऐसा परिदृश्य उपस्थित कर दिया है, जिसके पीछे स्वानुभूति या भोगे हुए यथार्थ जीवनानुभवों का प्रबल तर्क है। इस तर्क के अनुसार साहित्य सामान्य मनुष्य का न होकर दलित द्वारा दलित के लिए, स्त्री द्वारा स्त्री के लिए, आदिवासी द्वारा आदिवासियों के लिए होगा।
समकालीन हिंदी कथा साहित्य प्रवृत्तियों की दृष्टि से नारीवाद, आदिवासी और दलित विमर्श, अल्पसंख्यक विमर्श के श्रेणीगत सैद्धांतिक ढांचे में बंध कर रह गया है। उक्त वर्गीकरण विभिन्न विधाओं में रचित साहित्य के शोधपरक अध्ययन के लिए सुविधाजनक है। दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक समुदाय तथा नारीवादी दृष्टि से साहितियक विधाओं का समाजशास्त्रीय अध्ययन के लिए उपयुक्त सैद्धांतिक ढांचे को गढ़ लिया गया है।

 

समकालीन कहानियों और उपन्यासों का वर्गीकरण इसी आधार पर कर लिया गया। इसी क्रम में भारतीय समाज में मौजूद एक विशेष वर्ग, किन्नर समुदाय का जीवन भी वर्तमान परिदृश्य में हिंदी कथा साहित्य का प्रमुख अंग हो गया है। भारत में किन्नर समुदाय प्राचीन काल से ही अपना जीवन, समाज के अन्य वर्गो के साथ येन-केन प्रकारेण बिता रहा है। इस समुदाय के जीवन की विषमताओं और विसंगतियों की ओर सुसंस्कृत समाज का ध्यान साहित्यिक सांस्कृतिक दृष्अि से बहुत समय तक नहीं गया। यह समुदाय साहित्य की मुख्यधारा में अपनी पहचान दर्ज कराने में असमर्थ रहा। किन्नरों का उल्लेख विविध संदर्भो में भारतीय पौराणिक साहित्य में प्राचीन काल से होता रहा है। रामायण में राम-रावण युद्ध में राम की सैन्य वाहिनी में वानर सेना के साथ कोल, किरात, किन्नर और भील आदि जनजातियों की सेना भी सम्मिलित थी। ‘किन्नर’ एक वन्य जनजाति के रूप में रामायण महाकाव्य में उल्लिखित है किंतु यह नपुंसक (हिजड़ा) समुदाय नहीं था। यह बलशाली और पीरता से युक्त जनजाति थी।

 

महाभारत कथा में अर्जुन देवलोक में उर्वशी के श्राप से नपुंसक रूप धारण करने को अभिशप्त हो जाता है। अर्जुन की इस स्थिति का सदुपयोग पांडव अपने अज्ञातवास काल में करते हैं। पांडव अज्ञातवास काल में विराट महाराज के आश्रय में रहते हैं जहां अर्जुन नृत्यकला के आचार्य वृहन्नला (किन्नर) का रूप धारण कर विराट राजा की सुपुत्री ‘उत्तरा’ को नृत्यकला में पारंगत कराता है। महाभारत कथा में एक अन्य प्रसंग में महारथी भीष्म द्वारा तिरस्कृत राजकृमारी ‘अंबा’ अपने अपमान का प्रतिकार लेने के लिए कुरूक्षेत्र के महासंग्राम में नपुंसक शिखंडी के रूप में भीष्म के सम्मुख प्रकट होकर उनके मृत्यु का कारण बनती है। शिखंडी और वृहन्नला दोनों ही किन्नर के रूप में पुराणों में वर्णित हैं। स्त्री और पुरूष के अतिरिक्त मानव समाज मे एक और लिंग व्यवस्था सदियों से चली आ रही है। जिसे अनय लिंगी मनुष्य कहा जाता है अर्थात् जो न स्त्री है और न पुरूष।

 

जननांगों के अभाव, अविकसित या निष्क्र्रियता से उत्पन्न नपुंसकता से ग्रस्त मनुष्यों को हिजड़ा कहा जाता है। प्रकारांतर से इनके लिए एक सम्मानजनक शब्द ‘किन्नर’ गढ़ लिया गया। ‘किन्नर’ शब्द का संबंध हिमाचल प्रदेश के किन्नौर जिले से कदापि नहीं है। हिजड़ोण के लिए इस शब्द के प्रयोग पर ‘किन्नौर’ प्रदेश के लोगों ने आपत्ति की थी। किन्नरों के लिए अंग्रेेजी ‘थर्ड जंेडर’ शब्द बहुप्रचलित है अर्थात् तृतीय लिंगी मनुष्य। अपवाद स्वरूप यत्र-तत्र भारत में शिक्षित व्यक्ति (अन्य लिंगी) दिखाई दे जाते हैं जिनकी संख्या नगण्य है। लक्ष्मीनारयण त्रिपाठी नामक किन्नर (महिला का वेष धारण करती/करता है) जो शिक्षित विदुषी व्यक्ति के रूप में जानी जाति हैं इन्होंने आध्यत्मिक ज्ञान के साथ संगीत और नृत्य शास्त्र का भी अध्ययन किया है। किन्नर समुदाय के अधिकारों के लिए इन्होंने एक सशक्त आंदोलनकारी के रूप में ख्याति अर्जित की है।

 

उज्जैन महाकुंभ सिंहस्थ 2016 में उन्हें महामंडलेश्वर की पदवी प्रदान की गई थी। इनके ,ारा रचित आत्मकथा ‘मैं हिजड़ा मैं लक्ष्मी’ हिंदी किन्नर साहित्य में बहुचर्चित कृति है। नई सदी में कुछ किन्नरों ने अपने कठिन संधर्ष से राजनीति में प्रवेश कर विधायक और महापौर तक के पद संभाले जिनमें प्रमुख हैं-शबनम मौसी, कमला जान, कमला किन्नर और मधु किन्नर आदि। देश की पहली किन्नर शिक्षाविद् प्राचार्य मानोबी बंधोपाध्याय (पश्चिम बंगाल) और पहली किन्नर वकील तमिलनाडु की सत्या श्रीशर्मिला ने सिद्ध कर दिया कि किन्नर अथवा ‘थर्ड जेंडर’ किसी भी विद्वत स्त्री-पुरूष की भांति बुद्धिजीवी वर्ग के समकक्ष अपनी प्रतिभा प्रदर्शित कर सकते हैं। अस्मिता की यह लड़ाई जो किन्नरों‚ द्धारा लड़ी जा रही है, उन्हें 15 अपै्रल 2014 को विजय हासिल हुई जब सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति के एस राधाकृष्णन और न्यायमूर्ति ए के सीकरी ने ‘थर्ड जेंडर’ को मान्यता देते हुए किन्नरों के हक में ऐतिहासिक फैसला दिया।

संदर्भ ग्रंथों की सूचीः-
1. पदमावत – मलिक मोहम्मद जायसी
2. यह कैसी विदाई पापा – डॉ. दिलीप उमाकंात पाठक
3. दिनकर के काव्य में राष्ट्रीयता – डॉ रामधरी सिंह दिनकर
4. समकालीन भारतीय साहित – सं. अरूण प्रकाश
5. प्रेमचंद साहित्य में दलित चेतना – डॉ जाधव
6. सूरदास जी का साहित्य – सूरदास
7 हिंदी साहित्य में किन्नर स्वर: डॉ एम. वेंकटेश्वर (1अप्रैल 2020 अंक 153 प्रथम 2020 में प्रकाशित)
8. .शिकंजे का दर्द:सुशीला टाकभौरे की आत्मकथा।
9. . दोहरा अभिषाप: कौशल्या बैसंत्री
. 10. जूठन: ओमप्रकाश वाल्मीकि

 

 

 

error: Content is protected !!