कहानी

”आगी”डॉ. किशन टण्डन ‘क्रान्ति’ वरिष्ठ साहित्यकार रायपुर छ.ग.

साहित्यकार परिचय : डॉ. किशन टण्डन ‘क्रान्ति’

माता : श्रीमती मोगरा देवी  पिता : स्व. श्री रामखिलावन टण्डन
जीवनसंगिनी : श्रीमती गायत्री देवी

जन्म : 01 जुलाई 1964, मस्तूरी, जिला-बिलासपुर, छ.ग. (भारत)
शिक्षा : एम. ए. (समाजशास्त्र, इतिहास, राजनीति विज्ञान) पी-एच.डी.
उपलब्धियाँ : मध्य प्रदेश लोक सेवा आयोग से “जिला महिला एवं बाल विकास अधिकारी” पद पर चयनित (1996)
प्रकाशित कृतियाँ : काव्य संग्रह-14, हास्य व्यंग्य संग्रह-2, बाल कविता संग्रह-2, गजल संग्रह-1, कहानी संग्रह-7, लघुकथा संग्रह-4, उपन्यास-2, कुल-32 पुस्तकें, साझा काव्य संग्रह-4

समीक्षक के रूप में : 1. श्रीमती शिरोमणि माथुर की कृति-‘अर्पण’ (समीक्षा प्रकाशित) 2. श्री गणेश्वर आजाद ‘गँवईहा’ की कृति- ‘नवा बिहान’ (समीक्षा प्रकाशित), 3. श्री चेतन भारती की कृति- ‘सुनता के राग’, 4. डॉ. गोवर्धन की कृति- ‘दर्द’ की समीक्षा लिखी गई।
सम्पादन कार्य : 1. सतनाम हमर पहिचान (साझा काव्य-संग्रह) 2. माटी मोर मितान ( साझा काव्य-संग्रह)

 

प्राप्त सम्मान/अलंकरण : डॉ.अम्बेडकर राष्ट्रीय फैलोशिप साहित्य सम्मान, उत्तरप्रदेश साहित्यपीठ से साहित्य वाचस्पति सम्मान, राष्ट्रभाषा अलंकरण एवं अन्तर्राष्ट्रीय हिन्दी साहित्य ‘गौरव सम्मान’ सहित कुल 18 प्रतिष्ठित राष्ट्रीय, राज्यीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय सम्मान एवं अलंकरण।

 

विशेष : वेश्यावृत्ति के सन्दर्भ में सेक्स वर्करों की दर्द में डूबी जिन्दगी के बारे में रचित “अदा” नामक उपन्यास विश्व में सर्वाधिक पढ़े जाने वाले उपन्यासों में से एक है।

 

सम्प्रति : उपसंचालक, छत्तीसगढ़ शासन, महिला एवं बाल विकास विभाग। संस्थापक एवं अध्यक्ष– छत्तीसगढ़ कलमकार मंच।

 

 

”आगी”

परसु अपन समे के मेटरिक पास रहिच। सरकारी मुलाजिम बने खातिर कई ठी कागद आइच, लकिन संसार के निरमान ले लेके आज तक पइसा के पूजा होथे। जइसे-जइसे रुपिया के भाव गिरत हावय, ओतके जादा रुपिया घूस दय बर परत हे। एक पइत तो परसु ह कलर्क बाबू ए कारन नइ बन पाइच के ओकर सो साहेब मन ल दय बर दस कोरी रुपिया नइ जुरिच। परसु के ददा घला ह तो बनिहार-भूतिहार मनखे रहिच। अइसन म का मारफत म कोन देतिच ओला दस कोरी रुपिया?

 

 

गोठ अतके म खतम नइ होय। एक दफे तो इस्कुल म मास्टर बने बर पाँच कोरी अउ दरोगा बने बर पचीस कोरी माने पाँच सौ रुपिया के मांग करे गइच। लकिन परसु के बनिहार बाप परजा ह अतेक रुपिया कहाँ ले पातिच। परजा घला ह अपन समे के चौथी बोर्ड परिच्छा पास रहिच, तेकरे कारन तो शिक्छा के महत्तम ल जानत-समझत रहिच। तभे तो ओहा परसु ल बनी-भूति अउ कइसनो करके मेटरिक तक पढ़ो-लिखो दिच। शाइत तक कॉलेज तको पढ़ाय रइतिच, लकिन ओकर खरचा जब्बड़ भारी होगे, अउ आगू नइ पढ़ा सकिच।

 

 

सबले बड़े बेमारी तो गरीबी ह आय। ए जतेक नाच नचा लय, लकिन जम्मो कम हे। एहा ओ छितिज जइसे आय, जिहाँ धरती-अगाश जुरगे हे लगथे, लकिन कतको दूरिहा रेंग ले जुरे कभू नइ पाच। अही परकार ले अइसे लगथे के काल-परो दिन ले चार पइसा जुरही, लकिन पइसा आय के पहली खरचा ह धमक जथे। अइसन ह गरीब मनखे के करलई नहीं तव अउ काए?

 

 

जब परसु सरकारी मुलाजिम नइ बन पाइच तव अपन ददा के काम-बुता म हाथ बंटाय लगिच। बर-बिहाव होय ले परवार बाढ़िच। पत्नी, दू बेटी अउ एक बेटा घला परवार म शामिल होगे। बड़की पारबती ह सज्ञान होगे। परसु शिच्छित नइ रइतिच तव दू बछर पहली के बिहाव होगे रइतिच। अइसे नहीं के गाँव म अठारा के पहली नोनी पिला के बिहाव नइ होत रहिच, लेकिन परसु के समझ आय के ओहा पारबती के बिहाव नइ करिच।

 

 

परसु ल अपन मालिक के चहरा फूटे आँखी नइ सुहात रहिच। आँखफुट्टा अउ घमण्डी सुकनी ठाकुर ह पता नइ कतेक बहू-बेटी के इज्जत लुटिच होही, कतेक मरद के सम्मान ल कुचलिस होही अउ कतेक किसान के भुईयाँ ल हड़पिच होही, एकर हिसाब-किताब सिरिफ प्रकृति मईया के पास रहिच। भगवान तो डराय के नांव आय, जेला अब तक कोनो मनखे देखे नइये। लकिन प्रकृति ह खचिद नियाव करथे अउ सजा घलो देथे।
शक्तिन जइसे मरदानी तो सौ बछर म एको झन जनमथे, जेन ह रहिच तो जात के देवारिन। लकिन सुकनी ठाकुर के बबा ह ओकर सो जोर जबरजस्ती करिच तव हँसिया म मारके ओकर परान ले लिच। तभो ले ओकर लोग लइका मन कोनो सबक नइ लइन अउ ओकरेच रद्दा म चलत हें। सियान मन सच ल कहे हें के कुकुर के पूछी कभू नइ सिधियाय।

 

 

कोनो कुछु कहँय लकिन ए हमर बदकिस्मती आय के ठाकुर जइसे लुटेरा मन के चाकरी करे बर परत हावय। पता नहीं ए हमर कमजोरी आय के बुझदिली आय? आत्म सम्मान बेचके जियाई ह कोनो जियाई थोरे होथे। बाह रे जीवन। का मेहा ए बात ल सोचईया अकेल्ला मनखे आंव? नइ-नइ मोर जइसे अउ मनखे सोचत होही। अब तो जम्मो झन ल मिलके इंकर कसके बिरोध करना चाही। जब मनखे उमड़थे त बड़का-बड़का पहाड़ ल खोद के फटिक देथें, तव ए ठाकुर ह कोन खेत के ढेला आय?
मनखे मन कथें के दुनिया मालिक के आय। ओ मालिक जेन ह छल-परपंच म अउव्वल होथे, बेशरम अउ शातिर होथे। जेकर मन म कोनो शोग-पीरा नइ रहय, जेकर दिल ‘प्लास्टर ऑफ पेरिस’ के बने होथे। जेकर सो छाँदे-फांदे बर पोठ जाल होथे। लकिन कुछु कहले, सच्चाई तो अही हर आय के ‘पुरुष बली न होत हे, समे होत बलवान।’

× × × × ×

सज्ञान बेटी बर दाई-ददा के कोरा छोटे पर जाथे। बेटी ल बिदा तो करेच ल परथे। संझा के टेम रहय। परसु ओतके समे बुता ले लहुटे रहय। दुखी कका के अवाज आइच- “परसु हावच का जी?”
“आव कका बइठ, कति ले आवत हच?” परसु पूछिच।
“मेहा घर ले आथौं। बइठे के समे नइये। सुभागी के बिहाव करबे का?”
“बने कस सगा आही तव करबे करहूँ कका।”
“देवरी ले सगा आय हें, कहिबे तव लानहूँ?”
“तैं तो सियान अस कका। जम्मो के कारज ल सिधोथच। कइसो करके नोनी के थिरबाँह लगा देते तव हमरो एक ठी संशो ह दूर हो जातिच।”
“ठीक हे बेटा। तव तैं चाहा-पानी के तियारी करबे। सुभागी घला ल साव-चेती कर देबे। मेहा सगा ल लानत हँव।”
“सिरिफ आधा घंटा बिल्माए रखबे कका। ओतका म जम्मो तियारी हो जाही।”

 

 

“ले ठीक हे।”
जब सगा मन पहुँचिस तव हाथ-गोड़ धोय बर फूलकांस के लोटा म पानी दय गइच। फेर चाहा-पानी सौंफ-सुपारी दय गइच। सुवागत-सइतकार के बाद परसु पूछिच- “कोन गाँव रइथव सगा मन?”
हमन देवरी रइथन सगा। मोर नांव फिरतू हे, अउ ए बाबू ह मोर बेटा आय। एकर नांव रामन हवे। एकरे बर बेटी ल मांगे आय हन। जांवर-जोड़ी बन जहै, तव दुनिया म जीही खाहीं।
सगा के गोठ ल सुनके परसु समझ गईच के भाव-भजन अउ सुभाव अच्छा हे। तभे तो “बेटी मांगे आय हन” कहत हे। परसु सोचे लगिच के बर घला सुघ्घर हे। फेर परसु पूछिच- “थोरथार पढ़े हच बेटा?”
“मेहा परथम श्रेनी म मेटरिक पास हँव।”
“कोन बिषय मा?”
“बयलोजी म।”

 

 

फेर सुभागी ल बुलाइन। ददा परसु भले करिया रहिच, लकिन बेटी ह अपन महतारी म गय रहिच। सुघ्घर नाक-नक्शा अउ दसमी किलास पास रहिच। फिरतू कहिच- सुघ्घर लइका हे सगा। मोला सुविकार हे। बर-कईना ल एक भाखा पूछ लई। फेर दूनो ल पूछिन तव ‘हव’ होगिच।
परसु सफ्फा-सफ्फा कहिच- सुभागी ल हार तो जहौं सगा। लकिन चार बीजा चाउर टीके के सिवा अउ कुछु देहे नइ सकँव। गलत झन समझिहा।
हमू ल सोला आना कईना के सिवा कुछु नइ चाही सगा। धन-समपत्ति ह कोकरो नइ पूरय, बेवहार ह पुरथे। जब कभू हमर छितका कुरिया ल झाँके बर आहूँ, तव हमन ला दू दिन पहली शोरिया देहव। फिरतू कहिच।
ए तरा ले रिसता पक्का होगे। फेर एक-दूसर घर आना-जाना अउ नेवता बड़ाई होके बिहाव के खंझा घला माढ़गे।

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अब परसु ल फिकिर होइच के बिहाव बर रुपिया कहाँ ले आही? दूनो दीदी-भाटो मन मदद करे बर तो कहे हें। एकर बाद घला अउ तो कुछु बेवस्था बनाय बर परही। परसु घात सोचिस। जब कुछु रसता नजर नइ आइच तव थक हार के सोचे लगिच के कालीच मालिक के पास जाके रुपिया उधार देहे बर कइहूँ। फेर सोचे लगिच अइसन दानो (दानव) के आगू बेकार हे हाथ फईलाना। लकिन जब जम्मो कोति अंधियार हो जथे तव मनखे ह जेती थोरकन उज्जर दिखथे ओति भागे लगथे, भले ओति मउत काबर न खड़े होय। फेर सोचे लगिच बिकार हे अइसन मालिक सो जुबान खराब करना। लकिन लचारी ह मनखे ल मार डारथे।

 

 

बिहनिया होइच तव परसु ह मालिक के आगू म मुड़ी झुकाय गोहार लगाइच- “बेटी के बिहाव माड़ गय हे। मोला हजार अकन रुपिया चाही मालिक। मोर ऊपर बिश्वास करव मेहा तोर पाई-पाई छूट देहँव।”
ए सुनके सुकनी ठाकुर कहिच- “अरे परसु तोर भरोसा अउ ईमान ल मेहा घोर के पिहँव कारे। जेकर बर रुपिया चाही तेने ला भेज। जम्मो इन्तिजाम हो जाही।”

 

 

ठाकुर के गोठ सुनके परसु के दिल-देमाग म आगी लगगे। जीव भुरांग बरगे। शरीर के रोंवा-रोंवा ठढ़ियागे। मन म आइच के तुरते ठाकुर के खून कर दँव, लकिन पता नहीं कोन शक्ति ह गुस्सा पीये बर ओला ताकत दिच। परसु कट खाय ओई पाँव लहुट आइच।
दू दिन बाद म अपन दीदी-भाटो सो गोहराइच- “तुमन बेटी के छीन चढ़ा के हमन ल तार देवव। हमन ल अब सिरिफ तुँहरे सहारा हे। मोला अउ कोनो रद्दा नइ दिखत हे।”
दीदी-भाटो मन मीठ जुबान दइन। कहिन- तैंहा जादा संशो झन कर। समे म सब निपटही। जतका हो सकही मंदद करबो। कुछु भुल-चुक हो जाही त सगा महराज सो हाथ जोरके माफी मांग लेबो। परसु तको ल सगा ऊपर बिश्वास रहय के कोनो कमी होही तव सँवास लेही। काबर के सगा ह बड़ समझ बाला मनखे हे।
जब मनखे कोकरो नइ बिगाड़े रहय तव कोनो न कोनो शक्ति ह मंदद करथे। आखर म जम्मो नता-रिसता, सगा-समाज, परवार-परोस के सहयोग ले सुघ्घर मजा ले बिहाव के कारज ह समपन्न होगिच। बेटी सुभागी ल बिदा कर दइन।

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सुकनी ठाकुर के कहे अपमान के बात ह परसु ल बेचइन कर देवय। सोंचय तव ओकर दिल-देमाग म आगी लग जय। बदला लेहे के भावना ह उछाल मारे लगय। जब चित्त शान्त नइ होइच तव सगा समाज ल जोर के ए बात ल बताइच, फेर पूछिच- “जम्मो झन बतावा का करे जाय? देश ह सुतंत्र हो गय हे, लकिन हमर मान-सनमान नइये। अभी ले सजोर मन हमर जइसे कमजोर मनखे ल सतावत हें। हमन ल इंसान नहीं, भेड़-बकरी तको ले गय गुजरे समझत हें। जो मन म आइच बोल दइन। बाप के मुँह उप्पर बेटी ल भेजे बर कहत हे। एहा कम अपमान के बात आय का? सच बात तो ये के ए मोर अकेल्ला नही, बल्कि जम्मो बिरादरी के अपमान आय।”

 

 

आज पहली दफे एक्के संग अवाज आइच- “अब अइसन अपमान नइ सहन। जम्मो के इज्जत-मरजाद एक बरोबर होथे। राधे कका गरज के कहिच- सुनव, जब जंगल म जम्मो भेड़िया एक हो जथें तव शेर घलो ल मार डारथें। चार घर के ठाकुर चौरासी घर के ऊपर जुलुम ढावत हें। अब अइसन नइ चल सकय। सुकनी के घर म पहली आगी लगाय बर परही। बाद म अंजाम जेन भी होही, तेला निपट बो। लकिन अब अपमान हरगिच नइ सहन करी।”

 

 

जम्मो के मुँह ले निकलिच- “ठीक कहत हे… ठीक कहत हे।”
दुखी राम ह राधे के गोठ ल समरथन करत कहिच- “भईया ह ठीक कहत हे। तभे तो गरीब ल सताय बर अउ ओकर अपमान करे बर चेतहीं। सउ-सउ पइत सोचहीं।”

 

 

जम्मो झन बिचार करके मन म ठान के अपन-अपन घर कोति चल दइन।
सुरुज ह छुपे बर जावत रहय। पंछी ह दल के दल अपन खोंधरा कोति लहुटत रहय। ओई घानी गाँव के जम्मो मनखे पीपर चौरा जघा जुरियाइन। फेर सुकनी ठाकुर के घर कोति बढ़ीन। पहली ओकर कोठार के पैरावट म माचिस मार दिन। अब पैरावट जले लगिच। ओतके समे सुकनी ठाकुर ह निकलिच। तहाँ ले ओ आतंक के पुतला सुकनी ठाकुर ल जम्मो झन पकड़ के धधाक बरत पैरावट के आगी म फेंक दइन। सुकनी ठाकुर जल-बर के खाँख होगे।
परसु के दिल-देमाग म अपमान के दहकत आगी ह थोर-थोर शान्त होय लगिच।
 

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