(मनोज जायसवाल)
आपने अपने सामाजिक जीवन या फिर लोक प्रतिनिधित्व करते हुए कितनों पर सकारात्मक क्षेत्र में कार्य किया है। आपकी मंसुबा यदि इतना ही सही है तो कैसे अपनों पर कभी किसी की आजीविका के स्त्रोत पर तो कभी उनके किन्हीं खामियों पर किसी दूसरे व्यक्ति या फिर दृवेश की बेशर्मी इतना कि खुद सामने आकर विद्वेश भुनाने तो नहीं आए हैं?लोक सेवक,समाजसेवक की भावना हो तो सबसे पहले पहल अपने अंदर अपने अंतस से सोचकर देख लीजिएगा कि मैंने अपने ही भाई बहनों के लिए अच्छा नहीं कर पाया तो कहीं बुरा भी तो नहीं किया है?
ऐसे रूतबा भी किस काम का
घर से बाहर सामाजिक दूनियां में तुम्हारा रूतबा कोई मतलब का नहीं है,जब तुम्हारे दुर्व्यवहार के सताये तुम्हारे ही परिवार में उनकी आह निकलती रहे कि इनका हश्र इनके कर्म अनुसार जरूर एक ना एक दिन होगा। समाज की प्राथमिक सीढी खुद के परिवार से निहीत है। किसी दूसरे परिवार की लडाई पर दंड प्रावधान के नाम इस प्रकार निवारण करना कि इसमें भी खर्च हुई राशि उस परिवार के लिए आगामी पांच साल बीत जाने के बाद भी गृहस्थी पटरी पर नहीं आ पाएगी‚ऐसे निर्णय का क्याॽ कभी अपने शिक्षा पर नजर डाली है? उच्च शिक्षित बड़े सम्माननीय होने की ही मिथ्या बातों से इतना गदगद होने की जरूरत नहीं है। तुम्हें खुशी तब होती जब दिल से कोई अपना मानता। दिखावे के नाम अपना मानने वाले तुम्हारे दमनात्मक व्यवहार और कृत्य के चलते तुम्हारे दुःखों पर दुःखी नहीं होते! बात अलग है कि इसे कोई व्यक्त नहीं करता।
अंधत्वकाल तो नहीं
दूसरों का निर्णय,दूसरों की कलम भी इस अंधत्व काल में तुम्हें एकपक्षीय लगता है,क्योंकि इस प्रकार की मानसिकता वालों की बुद्वि संकीर्णता के साये में होता है। भौतिक रूप से बात-जुबां बंद करना,फिर आज के सोशल पटल में किसी को ग्रुप से बाहर करना या स्वयं विदा ले लेना या फिर केवल एडमिन ही कोई पोस्ट कर सकने की सेटिंग के नाम ओनली एडमिन कर लेना। ताकि तुम्हारी बात तो कोई सुने लेकिन समाज में स्वतंत्र अभिव्यक्ति लिखने वाले तुम्हारे या तुम्हारी मानसिकता के विरोधी संदर्भ में कोई कुछ न कह बोल सकें।
और भी हैं‚समाज में प्रभावशाली
ऐसे कुछ को लगता है कि दिमाग तो इन्हीं के पास है। समाज के अन्य व्यक्ति तो निरीह मात्र है,जिन्हें सोशल मीडिया की भी कोई जानकारी नहीं। अब इन्हें कौन समझाए कि तुम्हारा जितना रूतबा है, ना उससे दुगूना उनका है। तुम्हारी जितनी सामाजिकता की बातें हैं,उससे दुगूनी लोगों की अपनी भावनाएं हैं।
तुम्हारी चर्चा अर्थ पर निहीत है,लेकिन हमारी भावनाएं ना अर्थ पर बल्कि समाज के अंतिम व्यक्ति तक पहूंच की है। जागरूक समाज का जागरूक जन अब ऐसे नहीं बैठेगा! वो तो समाज की विसंगतियों,असमानताओं पर जरूर सवाल करेगा।सवाल भी संवैधानिक होगा और जवाब भी तुम्हें संवैधानिक तरीके से देना होगा।
समाज के नाम घमंड में चूर
समाज की रट लगाकर अपने ओहदे की अहं पाले आपकी एक दिन अवश्य छुट्टी मिलेगी। तब जरूर याद आएगी कि हम तो अपने को ही प्रभावशाली मानते थे, हमसे तो कई गुने प्रभावशाली समाज में है। किसी भी संगठन के घमंड में चूर अपनों को नहीं पहचानने वालों को नहीं पता पर जीवन के अंतिम यात्रा में वही भाई कांधा देते देखा जाता है,जिसे इन्होंने अपने सामाजिक जीवन में कमतर समझा।