(मनोज जायसवाल)
सामाजिक सत्ता की चाहत किसी व्यक्ति विशेष के अपने निजी रूप से किसी सियासी दंगल में वर्चस्व के लिए भी रहे। सामाजिक सत्ता में प्रमुख की भुमिका निर्वहन किये जाने के चलते सियासी पार्टियां भी सामाजिक सत्ताधीश की पूछ परख करते देखे जाते रहे हैं। समाज में किसी व्यक्ति विशेष का प्रभाव यदि सियासी सत्ता रहे तो लाभदायी भी है, जिससे लोकतंत्र में समाज विशेष को फायदा मिले। लेकिन कभी-कभी तो कई बड़े मामलों पर भी दमदार राजनीतिक नेतृत्व के होते हुए भी उसी समाज के नेता भी कुछ नहीं कर पाते। ऐसा भी यहां भी देखने मिला। जो आज उस समाज में सब कुछ होते न्याय नहीं मिला।
आज उसके जिक्र करने का समय शायद नहीं है,क्योंकि प्रमुख सियासी पार्टियों की राजनीतिक महात्वाकांक्षा लोग देख चुके हैं। समाज को सौगात के नाम सिर्फ भवन ही नहीं अपितु बहुत कुछ है, जो दिया जा सकता है। तारतम्य जहां कुछ विषयों पर न्याय के लिए सहयोग करने भी एक अहम विषय है। सीधे तौर पर कहें तो उस विषय को सामाजिक बातों के तारतम्य खोलना गड़े मुर्दे उखाड़ने जैसा ही होगा क्योंकि अब तो आम लोग भी जान चुके हैं कि संदर्भित उस परिवार को न्याय नहीं मिल सकता। ठीक है,न्याय नहीं मिल सकता लेकिन यह बात का आश्वासन भी नहीं कि नहीं हम असमर्थ हैं। यह जवाब भी हो तो परिवार को शांति मिले। लेकिन शायद यह जवाब भी नसीब में शायद नहीं है। अब उस परिवार का भी सोच लीजिए कि सिस्टम के प्रति वो क्या सोचेगाॽ
झंझावातों में समाज के कई अंतिम व्यक्ति भी पिस रहे हैं,जिन्हें कई साल गुजरने के बाद भी समाज का निर्णय या न्याय नहीं मिला। दुःखी ये परिवार जिन्हें साथ देने वाला शायद वक्त के इस थपेड़े में मिल जाय जिसकी आस वो हर वक्त कर रहे होते हैं।इंतजार की इन घड़ियों में उनकी हालत आर्थिक रूप से इतना खराब होता है कि अपनी जीगिषा चलाये या उन नन्हों की शिक्षा पर ध्यान दे। बड़ी होती पुत्री का शादी करे या अपने उलझनों को सुलझाने में किसी ओहदेदार व्यक्ति की खोज करे।
कुछ सामाजिक टटुओं को तो उन विकट समस्या पर शायद कोई लेना देना नहीं है। सामाजिक मंचों पर आर्थिक विषयों पर या उन पर सवाल किए जाने पर जरूर आवाजें बुलंद करते देखा जा सकता है। सामाजिक होने का भ्रम पाले ऐसे लोगों की बेहूदी आवाज स्वयं की कमजोर बौद्धिकता बयां करता है। अपनी उच्च आवाज से दूसरों की आवाजें शांत करने का भ्रम पाले ऐसे लोग सत्ता के वो लालची हैं, जिन्हें सामाजिक उत्थान की नहीं कूटनीतिक बातों की पड़ी है। जिसका प्रतिफल एक दिन जरूर मिलता है।
सब तरफ से व्यथित किंतु जागरूक जन की शिकायत पर जब कानून की धाराओं से सामना होता है,तब इनकी उच्च सामाजिकता,प्रसिद्वि धरी की धरी रह जाती है। इनका दिमाग काम नहीं करता। जेल की चौखट से वापस आकर भी यह सोचते हैं कि लोग नहीं जानते। दूसरी ओर जेल से आने वाले वाले अंतिम व्यक्तियों के लिए सामाजिक नियमों का हवाला दिया जाता है,सिर मुंडन का या खानपान कराये जाने का। विषमताएं काफी है,यदि ये इतने ही सामाजिक नियमों का हवाला देते हैं तो उसका पालन खुद के परिवार से होना चाहिए।
समाज के प्रति प्रेम रखने वाले समाज की एकता पर चिंता किया करते हैं। किसी सभा में किसी को नीचा दिखाने ऐनकेन रूप से समाज से बहिष्कृत किये जाने की भावनाएं नहीं धरी होती। महज कुछ लोगों की टीम को अपने विचारों के साथ किए जाने और मिल कर किसी को भरी सभा में उनके आत्मसम्मान को ठेस लगने वाले शब्दों के साथ अपने से नीचा दिखाने की भावना यदि घर कर गयी हो तो अपने अहं की तुष्टि के लिए इससे दूर रहना ज्यादा ठीक रहेगा। समाज के मंच पर कोई अंतिम व्यक्ति भी गया है तो उसका अपना स्वाभिमान है। भरे मंच पर उनके स्वाभिमान को ठेस पहूंचाने का अधिकार तुम्हें नही है। उन्हें शौक भी नहीं है किसी मंच पर चढने काǃ वो अपनी समस्या को लेकर रहता है कि उसका निदान हो‚लेकिन वह ऐसा बडा अपराध नहीं किया है‚जिसके चलते उन्हें जलील किया जाये। व्यावहारिक सरोकार में अंतर तो तब समझ में आता है जब कुछ केस को बडे प्यार से निपटाया जाता है‚कुछ को जलील कर। लेकिन इस प्रकार यह रिश्ता आखिर क्या कहलाता हैॽ