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”कल और आज” अनिल कुमार मौर्य ‘अनल’ शिक्षक साहित्यकार कांकेर छ.ग.

साहित्यकार परिचय-अनिल कुमार मौर्य ‘अनल’

जन्म- 22  मई 1980 जन्म स्थान,संजय नगर,कांकेर छत्तीसगढ

माता/पिता – फूलचंद माैर्य श्रीमती राेवती मौर्यपत्नी-श्रीमती दीप्ति मौर्य, पुत्र-संस्कार,पुत्री-जिज्ञासा मौर्य ।

शिक्षा- एमए(हिंदी) इतिहास एवं सन! 2019 में विश्व विद्यालय जगदलपुर द्वारा मास्टर आफ आर्ट की संस्कृत विषय में उपाधि, डी.एड. ।

सम्मान- साहित्य रत्न समता अवार्ड 2017, साहित्य श्री समता अवार्ड 2018 मौलाना आजाद शिक्षा रत्न अवार्ड 2018, प्राइड आफ छत्तीसगढ अवार्ड 2018, प्राइड आफ छत्तीसगढ अवार्ड, सहभागिता सम्मान।

प्रकाशन-कोलाहल काव्य संग्रह।

सम्प्रति- कांकेर जिले में शिक्षक के रूप में कार्यरत

सम्पर्क  – कांकेर माे. 8349439969

 

”कल और आज”

यदि हम फिल्मी दुनिया की बात करें तो कल यहां पर मेरा आशय बीता हुआ कल से है । तब से फिल्मों में हमे अपने-बान-बान और शान की बातों को समायोजित किया जाता था।दो बीघा जमीन, मदर-इंडिया, कर्मा, आंखे, देश-प्रेमी, गंगा-तेरे देश में , दीवार, मां मजदूर, मजदूर, शोले, नसीब, मेरा गांव-मेरा देश ,रोटी की कीमत, रोटी परिवार ,घर संसार नसीब अपना-अपना, हिना, कुली, कैदी, हाथी मेरा साथी तेरी-मेहरबानियां, एक से बढ़कर-एक फिल्में आयी।

जिनमें वर्ग संघर्ष देश-प्रेम, आदि की कहानियां हमें देखने और सुनने को मिला। कई अभिनेता एवं अभिनेत्री आज वर्तमान नही लेकिन उनका किरदार हमें किसी न किसी रूप में प्रभावित करते है और करते रहेंगें। समय बदला-युग भी बदले और बदली गयी मानव की वो सोच जो आज की फिल्मे कहना चाहती है।

 

ये गीतों में क्या कहा जा रहा है मेरी समझ से परे है। अभी कुछ ही दशक हुए है जब छत्तीसगढ़ी बोली में फिल्में बनना शुरू हुआ और आज बहुत अधिक लोकप्रिय फिल्में बन चुकी है। यदि हम कल और आज की तुलना करें तो मुझे ऐसा लगता है कि बिता हुआ कल ही अच्छा था।

जब भारत को सोने की चिड़िया कहा जाता था। लेकिन अब ऐसा क्यों नही कहते वर्तमान युवा-पीढ़ी जिसे कुछ भी परोसा जा रहा है जिसका गलत अनुकरण करके , जिसमें अश्लील दृश्य बेतरतीब संवाद या बातचीत इत्यादि हम अपने प्राचीन समय-की बात करे तो मित्र को, मित्र सखा , दोस्त, आदि पुकारते थे वर्तमान में गाई डफर और न जाने अंग्रेजी में क्या-क्या बाते करते व सुनते है।

 

अपने में बदलाव लाओं अच्छी बात है, पर भौतिकतावादी संस्कृति में पड़कर अपने संस्कार मत भूलों उसका सम्मान करो मैने अपने आलेख में पहले ही इस बात का जिक्र कर दिया है की हमें, हमें, से मेरा यहां आशय मानव समाज या समुदाय से है। दक्षिण भारत के फिल्में देखता हूं तो मुझे उसमें मार-काट चाकू-छुरी आदि को अधिक दर्शाया जाता है गलत बातो का अनुकरण करके ही हमारा-मानव-समाज-गहरे खाई में जाता हुआ सा दिख-पड़ता है।

मेरा यहॉ अपनी आप – बीती घटना का उल्लेख अवश्य ही करना चाहूंगा कि जब मै 2005 में कालेज की पढ़ाई करने के बाद आम-आदमी बना इसी साल कांकेर जिला के सामान्य-वन-मण्डल अधिकारी द्वारा एक निबंध प्रतियोगिता अपनी संस्कृति को जानिए पुरखौती को पहचानिए आय्ाोजित किया गया जिसमें 34 या 35 विषय देये गये थे।

 

मैने भी आम नागरिक के तौर पर और जल-संचयन या जल-संवर्धन विषय पर अपनी लेखनी चलायी लगभग पांच सौ पेज लिखकर उसे जमा -किया जो कि संस्कृति-विभाग रायपुर में जंाच गया जिसमें मैने 10 सवा स्थान लाया तब तपेश झा जी के द्वारा पुराने कमेटी हॉल कांकेर एक-सम्मान समारोह आयोजित कर मुझे प्रमाण पत्र एवं संत्वना के रूप में 100 रूपये का चेक प्रदान किया गया जिसे मैने ग्रामीण बैंक में भुनाया।

यहां इसका उल्लेख करने का आशय यह रहा है कि आज हम-पश्चिमी-सभ्यता में लिप्त होकर अपने गांव की संस्कृति व संस्कारों को भूलते ही चले जा रहे है। साराशतः हम कह सकते है कि आज हमें अपने-संतो की वाणी एवं अमृत-वचनों को पढ़कर समझकर एवं उस पर अमल-करने की जरूरत है किसी ने कहा है-
जब-जागों तभी सवेरा
जो सोबत हे वो सो खोवत हे, जो जागत हे सो पावत हे।

आज के युवा-पीढ़ी आप ही कल – के भविष्य हो इसलिए गलत -संगति व विचार धारा से दूर रहो तभी व्यक्ति, समाज राज्य व देश का भला हो सकेगा अन्यथा नही।

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