‘जिंदगी में कुछ नहीं कर पाने का दुःख’ मनोज जायसवाल संपादक सशक्त हस्ताक्षर कांकेर(छ.ग.)
(मनोज जायसवाल)
एक मध्यम शासकीय सेवक तो कुछ बडे ईमानदार अधिकारी भी जब सेवानिवृत्ति उपरांत अपने उसी जमीं पर आता है, तो कुछ का यही होता है कि अपनी जिंदगी तो हाय-हाय में गुजर गयी। आजीविका के दौर में जितनी राशि जमा की वह इस पक्के मकान के नाम भेंट चढ गई। उपार्जित राशि तो चली ही गई पर सम्मान के नाम उम्र के इस पायदान में वो स्नेह नहीं मिल रहा। मुख्य विचार कि जिंदगी में हम कुछ नहीं कर पाये। जीवनचर्या में ऐसे कई लोग मिलते हैं‚जिसको सक्षम संपन्न माना जा रहा है‚वो और जो बेरोजगार है‚वह भी जिंदगी में ज्यादा कुछ नहीं कर पाने का दुःख सुना रहा होता है।’जिंदगी में कुछ नहीं कर पाने का दुःख’ के चलते कई बार हतोत्साहित होकर गलत कदम उठा कर कईयों लोग ईहलीला तक समाप्त कर लेते हैं‚दैनिक आंचलिक अखबार में रंगी खबरें इसका प्रमाण है।
पैसा तो अपने संतुष्टि लायक कमाया। कभी-कभी हद से ज्यादा गर्व भी इस बात का किया कि शासकीय सेवा है, कभी ड्युटी ना भी जायें तो वेतन मिलना ही है। आय के अनुरूप खर्चे भी बढे जो आज अंतिम पायदान में कम नहीं हो रहे।
लेकिन मलाल इस बात का कि दुनियां में जन्म लेकर जिंदगी बंधी सी रही,जहां अपना वो नाम नहीं कर सका, जिसकी तमन्ना हर किसी को होती है। पैसे चाहे खूब हों पर नाम नहीं किये जाने का मलाल दिल के किसी कोने पर टीस मारता है। एक आम व्यापारी का सोच भी ऐसा कुछ ही है।
किसी कलमकार का दर्द उसके अपने बिरादरी के रचनाकार ही जान सकते हैं। पूरी जिंदगी समाज की पीडा सीने में लिये व्यथित होकर लिखता रहा,जहां खुद से अर्थ लोभ से दूर होते गए।
कला जगत के कई कलाकार जिन्होंने अपने ऊर्जा काल में लोगों का मनोरंजन किया। लेकिन जब बिस्तर पर पडे तो वो वाहवाही लेने वाले जो इनके गीतों पर, अभिनय पर अपनी जान हाजिर के नाम तत्पर होते थे,लापता दिखे। इन कला संगीत जगत के चितेरों को भी इस पडाव में भी ऐसा लगा कि जिंदगी के मेले में अपने कला की छटा बिखेरी पर पैसे की कमी से उन्हें लगता है कि ना स्वयं के लिए भी और ना अपने परिवार के लिए कुछ नहीं कर पाया।
हर हाल में खुश रहने के साथ दूसरों को कुछ देना अपने अंतिम पायदान में भी सीख लें। निश्चित रूप से जो आर्थिक रूप से कमजोर हैं‚कोई परेशानी में है‚उन्हें देने की भाव रखें।।