”रग रग में साहित्य कला संगीत” श्री मनोज जायसवाल संपादक सशक्त हस्ताक्षर(छ.ग.)
(मनोज जायसवाल)
-अहम भाव आ जाने के चलते शायद वो भी उसी श्रेणी में आ जाते हैं,जो खुद बोला करते थे कि राजनीति काफी गंदी है, नेता बनने के बाद खुद के लोग नहीं पहचानते।
दुनिया का ऐसा कोई आदमी नहीं बोल सकता कि वह साहित्य एवं कला संगीत जगत से जुड़ा नहीं है। कला-संगीत जो हर आदमी को जीने की लालसा जगाती है।
संगीत की धुनों को बनाने वाले उन गीतों के रचयिता साहित्यकार जिनकी परिकल्पनाएं उन कर्णप्रिय आवाजों के माध्यम साकार रूप लेती है। अंतहीन ठहराव में ले जाती है,जहां वो इसमें खो जाता है। असीम स्नेह प्रेम का दर्शन होने लगता है।
भले ही लोग संगीत की दुनियां में खो जाते हैं,लेकिन इसमें प्रमुख हिस्सा साहित्यकार का होता है। किसी गीत को कोई न कोई लेखक ही लिखता है। चाहे फिल्म की पटकथा हो या अंतिम सिरे पर जाकर हम देखें तो आज के विज्ञापन भी किसी लेखक की परिकल्पना और उनकी कलम होती है। यही कलम संगीतबद्व होकर उन्हें महान बनाती है।
कला संगीत का उद्भव हम मानव सभ्यता के विकास के साथ ही मान सकते हैं। क्योंकि मानव सभ्यता के साथ-साथ ही चलता रहा है,साहित्य कला संगीत। अर्थ के अहम में भले ही आज चकाचौंध भरी दुनिया में भौतिक विलासिता के अतिरिक्त कोई सोच ना हो पर तमाम भौतिक विलासिता के सामानों के बीच उनका मन विचलित होता है।
एक ओर जहां साहित्य कला संगीत के कईयों चितेरे कलाकार लेखक अपनी आर्थिक विषम हालातों से जुझते अपना नाम स्थापित कर दुनियां तक सिधार जाते हैं। वहीं अथाह संपदाओं के कई मालिकों की आत्म संतुष्टि साहित्य कला संगीत से दूरी के चलते नसीब नहीं हो पाती। पाने के नाम विलासिता और धन अपितु मलाल इस बात का होता है कि दुनियां में वे नाम नहीं कमा पाए।
सरस्वती के आशीर्वाद से मिली शोहरत से जन्मे हस्तियों की दुनिया भी फर्श पर गिरती देखी जा सकती है,जिन्होंने शोहरत की बुलंदिया तो पार की पर अपने संघर्षमय जिंदगी की समझदारी के बावजूद आने वाले प्रतिभाओं को नहीं समझा। ना कला संगीत अपितु साहित्य के नये तथाकथित लेखकों ने खुद के पैरों पर खडे होने के बावजदू पैसे बचाने की इतनी फिक्र रही कि किसी पुस्तक का प्रकाशन के लिए तो खर्च किया लेकिन विमोचन के लिए दूसरे के मंच पर मुंह ताकते रहे। उन्हें शायद सनद नहीं रहा कि यह पुस्तक तो खुद के जीवन का अभिन्न अंग है,जिसे उपेक्षा करना दूसरे के पैसों का लालच कर विमोचन की सोच का आशय खुद के परिवार से उपेक्षा करना है। भौतिकता की चकाचौंध में सरस्वती के आशीर्वाद का कद्र नहीं कर सके और फिर से उसी पायदान पर आ गए जहां उन्होंने कभी बुलंदियां पर चढाई की थी।
संघर्ष करते कुछ मुकान पा लेने की हसरत पाले साहित्य कला संगीत जगत के कई प्रतिभा उम्मीद करते हैं कि उनके उनसे बडों का कुछ आशीर्वाद मिले। सकारात्मक सहयोग मिले तो वह भी कुछ पायदान चढे लेकिन अहम भाव आ जाने के चलते शायद वो भी उसी श्रेणी में आ जाते हैं,जो खुद बोला करते थे कि राजनीति काफी गंदी है, नेता बनने के बाद खुद के लोग नहीं पहचानते।