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“अबला नहीं सबला है ये” श्री मनोज जायसवाल संपादक सशक्त हस्ताक्षर कांकेर(छ.ग.)

साहित्यकार परिचय
 श्री मनोज जायसवाल
पिता-श्री अभय राम जायसवाल
माता-स्व.श्रीमती वीणा जायसवाल
जीवन संगिनी– श्रीमती धनेश्वरी जायसवाल
सन्तति-पुत्र 1. डीकेश जायसवाल 2. फलक जायसवाल
जन्म-01 मई 1973 अरौद(कांकेर)
शिक्षा-बीएससी(बायो)एम.ए.(हिन्दी साहित्य)
कार्य- पत्रकारिता, संपादक सशक्त हस्ताक्षर। व्यवसाय एवं कृषि कार्य।
प्रकाशन-राष्ट्रीय साझा काव्य संकलन पंखुड़ियां, यादों की शमां दैनिक समाचार पत्र अग्रदुत,नवभारत,छालीवुड की पत्रिका ग्लैमर में कला प्रतिनिधि के रूप में आलेखों का प्रकाशन, साहित्य कला संगीत जगत को समर्पित पोर्टल सशक्त हस्ताक्षर में नियमित आलेख का प्रकाशन।
पुरस्कार-सम्मान – छत्तीसगढ़ शासन के मंत्रीगणों द्वारा सम्मान, महात्मा ज्योतिबा फुले सम्मान, अखिल भारतीय पत्रकार सुरक्षा समिति छत्तीसगढ़ द्वारा सम्मान। कलमकार साहित्य साधना सम्मान 2022 छत्तीसगढ़ कलमकार मंच, मस्तुरी बिलासपुर द्वारा प्रदत्त। छ.ग. डंडसेना कलार समाज द्वारा सम्मान।
संप्रति-वरिष्ठ पत्रकार,जिलाध्यक्ष-अखिल भारतीय पत्रकार सुरक्षा समिति,इकाइ कांकेर्र (छ.ग.)
सम्पर्क-राष्ट्रीय राजमार्ग 30 मेन रोड लखनपुरी(छ.ग.)
प्रधान  संपादक– ”सशक्त हस्ताक्षर”‚छत्तीसगढ। (साहित्य कला संगीत जगत को समर्पित) मो. 9425593857/7693093857

ई मेल- jaiswal073@gmail.com

 

“अबला नहीं सबला है ये”

वैसे तो परिवार समाज में तमाम उलझनों के बीच भी कोई स्त्री कभी बड़े फैसले नहीं लेती है। बच्चों को जनम देने के बाद उसकी शिक्षा दीक्षा, उचित परवरिश कई दफा विषम स्थिति परिस्थितियों के बावजूद पति की निशानियों अपनी संतान के साथ अपना संपूर्ण जीवन अमिट फैसलों के साथ गुजारती है।

हालांकि आज आधुनिक जीवनचर्या में ऐसी स्त्रियां भी,जो पति के तल्ख कारणों के चलते संबंध विच्छेद कर अन्यत्र संबंध जोडने में देर नहीं करती। जिन अबोध बच्चों का कोई कसुरवार नहीं होता वे अपने मॉं-पिता के क्लेश का दंश जिंदगी भर भोगने विवश होते हैं। खुद ममतामयी देवी स्वरूप स्त्री होकर अपना स्त्रीत्व भूल जाती है।

‘नतीजों की परवाह नहीं’
लंबे समय तक पति की हिंसा से त्रस्त आ चुकी कोई स्त्री के साथ जब हैवानियत भरा सलूक किया जाने लगता है। उत्पीडन सहते-सहते इंतहा पार होने लगती है,तभी अंतिम अवस्था में ही कोई स्त्री उक्त पुरूष के साथ जीवन निर्वाह नहीं करने का फैसला लेती है। लेकिन फैसला लेने के बाद वह नतीजों की परवाह नहीं करती। द्रौपदी की उन पुरूषों को ललकार के किस्से बताने की जरूरत नहीं है।

‘सकारात्मक सोच हुई जिंदा’
जिस नकारात्मक विचारों को लेकर घर में क्लेश मन में अवसाद के प्रस्फुरण के बाद संक्रमण परिवार को घेर लेता है। इसी समाज में ऐसे विलक्षण के साथ सुखद स्थिति का उदाहरण भी देखने मिलता है। छत्तीसगढ़ में कुरूद विकासखंड में एक बडे समाज के युगल के बीच जब घरेलू क्लेश के चलते सामाजिक पटल पर मामला आया तो दोनों के अहम के चलते  युगल के निर्णय पर  संबंध विच्छेद किया गया। अपनी पुत्री के साथ जब माता रहने लगी तो बच्ची के भविष्य की चिंता भी पति को सताने लगी। माध्यम जो भी रहे, पर विच्छेदित संबंध के बावजूद संतान की खातिर पुनः एक साथ मिल कर जीवन जीने का फैसला सामाजिक स्वीकारोक्ति के बीच लिया गया,जिसे पुनः सामाजिक जनों ने युगलों के इस समझदारी भरे कदम का स्वागत कर दोनों को मिला दिया।

‘स्त्री का निर्णय’
गंभीर स्वाभिमान और अहम के चलते जो स्त्री इस प्रकार से यदि गलत निर्णय ली तो उन्हें देर सही यह ज्ञात हुआ कि उन्होंने भी गलत निर्णय लिया है। जिस पुरूष पति के महज उन कारणों के चलते परिवार से विमुख होने का निर्णय लिया उससे उनके बाकी जीवन में उंगली ही उठेगी। फिर संतान के साथ भी न्याय नहीं कर पाएंगे। देर सही उस पुरूष में भी समझदारी पनपी कि उन्होंने भी कुछ अति और गलत सलूक किया जिससे पत्नी ने यह कठोर निर्णय लिया। स्त्री के मन में सकारात्मक निर्णय का अंकुरण नहीं होता तो यह संभव ही नही था,कि वो फिर मिलें ! लेकिन स्नेह की वो धारा थी,जिसे आगे बहना ही था।

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