”आज यदि जलयान कोई”
(स्व.श्री नारायण लाल परमार, अखिल भारतीय साहित्यकार,धमतरी छ.ग.)
आज यदि जलयान कोई, रूक रहा तट पर नदी के,
कल वही कोई अजानी सी लहर के संग होगा।
यह समय शिल्पी सहज मन नित्य नूतन गढ़ रहा है।
हर विवशता की शिला का मन, मुखर हो पढ़ रहा है।
बॉंधकर अपनी भुजाओं में सघन, निर्जन,गहन को,
अनदिखी पगडंडियों पर सर्वदा जो बढ़ रहा है।
आज यदि दिनमान कोई, कैद अंधी घाटियों में,
कल वही रस-रूप-वैभव में सुघर सतरंग होगा।
आदि से इस समय ने ही, जगत का ऑंगन बुुहारा।
चेतना जिस क्षण जहॉं टूटी, दिया इसने सहारा।
चॉंद की हर बार इसने की सगाइ्र चॉंदनी से,
जिन्दगी की बॉंसूरी का स्वर इसे लगता दुलारा।
आज यदि मेहमान कोई, रह गया, संगीत प्यासा,
कल वही नूपुर सभा में पा स्वयं को दंग होगा।
पग ध्वनियॉं
(स्व. श्रीमती इन्दिरा परमार, वरिष्ठ साहित्यकार, धमतरी
धर्मपत्नी-स्व. श्री नारायण लाल परमार)
कब से कान कुरेद रही है
पतिव्रता लगती प्रति ध्वनियॉं।
झॉंक रहा है, सुबह-सुबह लो
क्षीण दरारों से यह मौसम।
रंगों का सारा ही मौसम।
मन में करता रहता झम झम।
ठंडी ठंडी हवा देह को
बजा रही मानों हरमुनिया।
जी भर देखो एक नजर से
हिल जाती अपनी परछाई।
बसंती सुगंध की बॉंहें
बार बार लगती इतराइ्र।
आस पास है मंत्र पढ़ रहा
चक्रवात-सा चौकस गुनिया।
रंग हीनचाहे अंकुराई
मीठा गीत सुना रति पति का।
अंग-अंग श्रृंगार हॅंस पडा
मेला-सा लग गया सुमति का।
कल थी सॅंकरी, खूब खिल उठी
छानी छज्जों वाली दुनिया।
”सूरज का पता”
स्व.श्री त्रिभुवन पांडेय
(अखिल भारतीय साहित्यकार, धमतरी छत्तीसगढ़)
हम सूरज की खोज में
जिन पगडंडियों से गये
आकाश में
उन पगडंडियों पर चमकती हुई
किरणों की लालिमा
मौजूद थी
हम काफी देर तक चलते रहे
लेकिन हमें नहीं मिला
अस्त हुआ सूरज
हमने आसमान से पूछा
वह चुप रहा
हमने क्षितिज से पूछा
वह चुप रहा
अंत में पूछा जब पगडंडियों से
पगडंडियों ने कहा
सूरज का रंग
और रक्त का रंग
एक दूसरे का पता जानते हैं
कभी पूछना अपने ही रक्त से
अस्त हुए सूरज का पता
दहेज के अभाव में
श्री सुरजीत नवदीप
(अखिल भारतीय साहित्यकार,कवि धमतरी छत्तीसगढ़)
चुनाव हारने के बाद
जैसे
नशा उतरता है
प्रत्याशी का,
वैसे ही
ठंड उतरती है
ज्यों मन उखड़ता है
किसी प्रवासी का।
घोंसलों से
उड़े हुये पंछी
घर वापस आयेंगे,
बस एक ही तो ठौर है
जहां विश्राम पायेंगे।
ये जाड़ा
कभी-कभी
खूब डराता है,
फुटपाथों पर आकर
पसर जाता है
बिना-रजाई-कंबल के
कहां सो पायेंगे,
वृध्द
यूं ही भगवान को
प्यारे हो जायेंगे।
जोड़ों का दर्द
बेरोजगार बेटों की तरह
रह-रहकर उठता है,
जवान बेटी का
दहेज के अभाव में
विवाह न होने का गम
जैसे बाप की छाती में
सुई की तरह चुभता है।
सच्चा इम्तहान
डॉ. किशन टण्डन ”क्रांति”
(वरिष्ठ साहित्यकार‚रायपुर छत्तीसगढ)
कभी हार के मत बैठना
ना-उम्मीदी एक बड़ा धोखा है,
सच कहूँ तो बुरे वक्त में ही
इंसान का सच्चा इम्तहान होता है।
समय अच्छा हो तो
ज्यादा ध्यान कहाँ होता है,
तब जागता नहीं वह
बस ज्यादातर ही सोता है।
महलों में रोटी से
कभी भूलकर बात मत करना
उसमें गुमान होता है,
अगर वह मिल जाए
जिन्दगी की तंग गलियों में
या फिर किसी फुटपाथ पर
तब उसमें गजब का स्वाद होता है।
कमबख्त पानी का भी तो
कुछ ऐसा ही हाल है
वो समन्दर में पड़ा रह जाता है,
जब आग या प्यास हो तो
उसके बून्द-बून्द का मोल
संसार को समझ में आता है।
नेताजी का आगमन
(श्रीमती पुष्पलता इंगोले,से.नि.प्राचार्य,वरिष्ठ साहित्यकार धमतरी छ.ग.)
आजकल के वयोवृद्व नेता
अली कली में बीधें
अपनी प्रौढ़ता का सम्मान भूल
युवा उमंगों की बारहखडी
पढने में लगे।
एक बार हमारे सम्मानित
श्रद्वेय वयोवृद्व नेता
हमारे नगर में
उद्घाटन में
पधारे।
महाउत्साही हमने
अपनी कुशल, पट सुदर्शन
छात्राओं को ले
किया अति उत्साह से वंदन उनका।
उनकी अधिकांश बातें
हुई आलाप खींचकर
हाव-भाव, मुद्राओं से
रिझा रहे थे, वे छात्रावृन्द को
समझकर भी नासमझ बने
किया हमने अनदेखा
श्रद्वेय, सम्मानित जो थे, वे हमारे।
अपनी वयोवृद्वता को
रख ताक में
वे दुर्शन छात्रा से बोले
आज क्या कर रही हो,
आओ रेस्त हाउस में
हमने बुजुर्ग सम्माननीय
नेताजी को, तररेर कर देखा
उनकी भग्न दंत पंक्ति
मोटे लैनस का चश्मा देखा
झुकी कमर, लटके होंठों को देखा।
हमें उना यह प्रश्न
हास्यप्रद,बेतुका लगा।
हमने बड़ी विनम्रता से
छात्रा को, उत्तर न दे सकने
की लाचारी की घूंटी पिलाई
बड़ी विनयशीलता से
पापाजी सदृश्य नेताजी से
न आ सकने की क्षमा मंगवाई।
खिसियानी हंसी हंसते
लार टपकाते थे
स्टेज की ओर
भाषण देने, अग्रसर हुए
हम सोच रहे थे
अगर नेताजी ऐसे
तो अनुसरणकर्ता कैसे?
मेरा छत्तीसगढ़
(डॉ. मीरा आर्ची चौहान,व्याख्याता वरिष्ठ साहित्यकार कांकेर छ.ग.)
मेरा छत्तीसगढ़
कितना सुन्दर,
नई सुबह ले आई है
धान का कटोरा
जिसमें हजारों धान
की प्रजाति है।
गुरमटिया,जवां
फूल और
दुबराज की
अगुवाई है,
सोने जैसी
जिनकी बाली,
खुश्बू चहुं ओर
बगराई है।
यहां के पर्वन झरने
देखो, कल-कल
ध्वनि मन
को भायी है।
गेंदा,चिरैया और
मोंगरा
करते रोज
पहुनाई है।
पहाड़ी मैना,
और बनभैंसे ने
इसकी शान
बढ़ाई है।
सुआ, ददरिया
और कर्मा ने
नई पहचान
बनाई है।
नरवा,गरवा
घुरवा,बाड़ी
छत्तीसगढ़ की
चिन्हारी है।
छत्तीसगढ़िया
सबसे बढ़िया
यही हमारा
नारा है,
छत्तीसगढ़ हमें
जान से प्यारा
यह संकल्न
हमारा है।।
”बस्तर लिखॅू या बारूद”
(श्रीमती रश्मि विपिन अग्निहोत्री,केशकाल(कोण्डागांव)बस्तर छत्तीसगढ़)
बस्तर सुनते ही बारूद नक्सली,
आदिवासी पिछडापन ऑखों के।
सामने आता है और मस्तिष्क को,
झकझोर कर रख देता है रूदन।
जाने कितने भेद और रहस्य,
दबा रखा है अपने अन्तस में।
इस बस्तर ने चुपचाप सुनो!
कुछ रहस्य तुम भी सुन गुनो।
बस्तर की सुन्दर पहाडियों पर,
बारूद बिछा है लोग बेघर है।
लोग डरे हैं सहमे है आतंक से,
हवा जैसे जहरीली हो गयी है।
अब हरियाली यहॉं है फीकी,
धमाकों से घाटियॉ हिलती है।
प्रथा संस्कृति लुप्त हो रही,
रौनक उदासी में तब्दील हो रही।
चौपालों में आहट नहीं मिलती,
बॉसुरी और गोपालों की आहट नहीं मिलती।
बस्तर के भोले-भाले जनजीवन में,
राजनीति का गहरा रंग चढा है।
नक्सलियों का खौफ बढा है,
समझ नहीं आता मुझको
बस्तर लिखूॅ या बारूद।।
”पर्यावरण”
श्रीमती कामिनी कौशिक
(वरिष्ठ साहित्यकार‚धमतरी छत्तीसगढ)
नन्हें-नन्हें हाथों से पौधे रोपें वृक्ष बचायें।
चंदन महके वायु सुरभित, जन जीवन के मन हर्षायें।
आज यही संकल्प हमारा, पर्यावरण सुधारें हम।
मानव का कल्याण इसी में, जमी गगन को सवारे हम।
सुख-शान्ति लाकर दुनियां में स्वर्ग इसे बनायें।
गीत खुशी के गायें हम,
झूमें-नाचें खुशी मनायें।
पर्यावरण मशाल क्रांति की,
घर-घर अलख जगायें।
पर्यावरण सुधारकर अपने वन संपदा बचायेंगे।
नन्हें-नन्हें हाथों से पौधे रोपें-वृक्ष बचायें।।
”जय छत्तीसगढ़ मईया”
(डॉ. गीता शर्मा,ज्योतिष मनीषी साहित्यकार,कांकेर छ.ग.)
धन्य-धन्य छत्तीसगढ़ मईया,
कौशल्याजी ने जन्म लिया।
गोद जिनके रामजी खेले,
छत्तीसगढ़ को अमर किया।।
हरित-हरितिमा अच्छादित-वन,
जहाँ इन्दिरा जल-पावन-धारा।
श्रीराजीव-लोचन-मंदिर है,
राजिम-मेला लगता न्यारा।।
सप्त-ऋषि-सिहावा-नगरी,
आश्रम-परम-पुनीत रहा।
ऋंगी-ऋषि अयोध्या पहुँचे,
तब पुत्रेष्टि-यज्ञ किया।।
छत्तीसगढ पावन-भूमि है,
कौशल्या माता जन्मी हैं।
आदिवासी के राम भांजे
कौशल्याजी का मंदिर है।
कंक-ऋषि-आश्रम जहाँ पर,
दूधनदी- पहाड़ गढ़िया।
सोनई-रूपई तालाब जहाँ पर,
सोने-चाँदी सा रूप सजा।।
डोंगरगढ़-बम्लेश्वरी-मईया,
महामाया-रतनपुर हैं।
कंकालिन,बिलाई माता।
भक्तों के कष्ट हरती हैं।।
दन्तेश्वरी-दन्तेवाड़ा विराजी,
राज-वंश-कुलदेवी हैं।
कांकेश्वरी माँ जा गढ़िया बैठीं,
लिंगेश्वरी माँ-आलोर की हैं।।
तपस्वी राजा भंजदेवजी,
आदिवासी-हित-चिन्ता करते थे।
धान-कटोरा,लिये हाथ माँ,
माँ की भक्ति सदा करते थे।।
”कलम में धार इतनी”
श्रीमती कामिनी पुरेना
(साहित्यकार‚भिलाई छत्तीसगढ)
मेरी कलम लिख जाए कुछ ऐसा कि,
ना होने पाएं गरीबों पर अत्याचार।
हो शब्दों में ताकत इतनी कि,
दिला जाए सभी को अधिकार।।
मेरी कलम में हो धार इतनी कि,
बन जाए जनता की आवाज़।
कर जाए कुछ ऐसा काम कि,
करें सभी स्वयं पर नाज़ ।।
मेरी कलम कर जाए जादू ऐसा कि,
मिट जाए मन का सभी विकार।
बना दे सभी को सामर्थ्य इतना कि,
ना रहे कोई बेघर और बेकार।।
मेरी कलम कर जाए इंसाफ ऐसा कि,
मिले सभी को मान और सम्मान ।
दे जाए कुछ उपहार ऐसा कि,
पूरे हो सभी के अधूरे अरमान।।
मेरी कलम लिख जाए कुछ ऐसा कि,
नारियों पर कोई ना कर पाए अत्याचार।
नारियों की सोई हुई शक्ति को जगा कर,
कर जाए जीवन का उद्धार।।
ना कोई बेटी, बहू की आबरू लूटे सके ,
ऐसा करें स्वयं को तैयार ।
ना कोई दरिंदा अंजाम दे सके,
घटना कोई अनाचार।।