
किसी भी महिला पर चारित्रिक दोषारोपण कर देना जितना सरल है,प्रामाणिकता की कसौटी पर सरल नहीं। न जाने समाज में किन किन गालियों से निम्न तबके तब महिलाओं को ठेस पहूंचायी जाती है। कई मामले घर परिवार तक होती है, तो कई मामले समाज के बीच जाती है तो समाज के लोग उन्हें चारित्रिक दोषारोपण से नहीं चुकते। विवाहित महिला के जीवन में कई बार ऐसी बैठकों में उन्हें दोयम नजरिये से तो देखा ही जाता है, घरेलू हिंसा,तलाक जैसे कई मामलों में उन्हें चारित्रिक दोषारोपण भी किया जाता है,जो किसी भी महिला के आत्म सम्मान को ठेस तो पहूंचाती ही है,वरन उन्हें हर पल अपने आप में ऐसी उपेक्षित जिंदगी जीने पर मजबूर करती है,जहां विद्रोह एकमात्र सहारा होता है।
बावजूद वह एकाएक विद्रोह भी नहीं कर पाती। विद्रोह नहीं करने का कारण उनकी वह सहनशीलता और धैर्य जिसमें वह हमेशा चाहती है कि उनका घर संसार आज नहीं तो फिर से गुलजार हो। लेकिन पुरूष इस बात को नहीं समझता। कभी कभी पुरूष का गर्व अपने ही जीवन में कड़ुवाहट लाता है तो किसी किसी केस में प्रकृति मुताबिक स्वयं स्त्री को भी भोगना पड़ता है। मामला जो भी हो पर सार्वजनिक रूप से समाज की बैठकों में चारित्रिक दोषारोपण उचित नहीं है।
देखा यह गया है कि आम सुदूर गावों में कैसे अन्य विषयों पर बैठकें होती है तो गिने चुने गांव प्रमुख और कुछ लोग मौजूद होते हैं। वहीं कभी किसी लड़का और लड़की संबंधी बैठकें हो तो कैसे लोगों की उपस्थिति बढ़ जाती है। बेशर्मीयत की हद तो तब पार होती है जब खुद तमाम चीजों में संलिप्त रहने वाला ऐसे ऐसे सवाल उस महिला से किया जाता है जैसे ये दूध के ऐसे धुले हों जिनके जीवन में कभी क्लेश नहीं आया हो। अपने गिरेबां को झांकता कौन है भला! चारित्रिक दोषारोपण हालांकि समाज में पुरूषों पर भी लगते हैं,लेकिन बैठकों से ज्यादा तो बाहरी जीवन में उनकी चर्चाएं होती है। पान ठेलों पर तो पुरूषों के वो स्थलों पर जहां बैठकर एक दूसरे की खाका पेश करते बातें की जाती है। दरअसल इन पुरूषों के पास शायद वक्त ज्यादा ही होता है इन बातों के लिए।