‘कांकेर का यह सेंटर अब यादें शेष’ श्री मनोज जायसवाल संपादक सशक्त हस्ताक्षर छत्तीसगढ

– न थका न हारा चलता रहा बदलाव का दौर देख रहा संतोष
कांकेर जिला मुख्यालय का यह केंद्र मुख्य रूप से पत्रकारों के साथ आम बुद्विजीवियों के उठने बैठने का मुख्य केंद्र रहा है। अखबार की प्रतियां यहीं से वितरित होती रही है। आज भी कुछ, लेकिन यहां मुख्य अंतर आपको देखने मिलेगा वह पत्र पत्रिकाओं का है। नगर के इस केंद्र में लोगों की पत्र पत्रिकाओं के चलते भी भींड लगी होती थी। सरिता,मनोरमा, मेरी सहेली,इंडिया टुडे,रोजगार समाचार पत्र, कार्टुन नेटवर्क, चाचा चौधरी,सरस सलिल जैसी पत्रिकाएं मुख्य रूप से यहां की शोभा हीं नहीं बढाती अपितु कई परिवारों में अखबारों के माध्यम भी ये पत्रिकाएं बंधी होती थी।
डिजीटलाईलेशन और निरंतर पत्रिकाओं की दर में इजाफा होने के चलते ग्राहक कम होते गए और अंततः नगण्य हो गए। पत्रिकाओं में मार्जिन बहुत कम होता है,जिसके चलते पत्रिकाएं बच जाए तो फायदा बहुत दूर की बात हर महीने घाटा का ही सौदा होता था। यही कारण है कि संभवतया बंद ही करना पडा। इस केंद्र में बैठे संतोष चौहान है, जो अखबार एवं पत्रिकाओं के इस लाईन में तकरीबन 1995 से अखबार वितरण एवं वसुली के बाद बैठ भी रहे थें। इनके ही एक साथी और हैं जो देर शाम साईड बिजनेस के तौर पर गर्मागर्म खाद्य चीजें बनाते हैं। कांकेर नगर के राजापारा में रहने वाले संतोष भाई मुलतः पेट्रोली के रहने वाले हैं।
वैसे आप भी देख रहे होंगे कि ट्रेन या बस में यात्रा करते समय सर्वाधिक रूप से समय पास एवं ज्ञान का जरिया बनी कई पारिवारिक पत्रिकाएं पढते लोग दिखायी नहीं देते। डिजीटलाईजेशन के इस दौर में एंड्राएड मोबाईल पर उंगली सरकाते सोशल मीडिया से जुडे अवश्य दिखायी देते हैं। और जो रियल में पुस्तकें पढ रहे हैं उसे तो जज्बा ही कहना ज्यादा उचित होगा। ऐसा बात नहीं है कि समाप्त हो गया अपितु आज भी पत्रिकाएं पढने वाले लोग कम ही सही दिखायी देते हैं। अखबार लाईन में काम कर रहे संतोष चौहान जी वे शख्स हैं जो पत्रिकाओं का दौर भी देखे और आज डिजीटलाईजेशन का दौर भी।
पहले कितनी पत्रिकाएं बेचते थे और फायदा भी होता था और आज का यह दौर भी देख रहे हैं। संतोष चौहान यहां नवभारत के वरिष्ट पत्रकार रहे गोपाल शर्मा की एजेंसी के अखबार नवभारत के लिए ही कार्य करते रहे। गोपाल शर्मा के नहीं रहने पर आज आफिस के पास का माहौल वीरान नजर आता है, वो रौनकता जो कभी थी वह बस याद करने की चीज रह गई। संतोष भी अब नजर नहीं आता किधर अखबार बांटता है या आजीविका का कुछ और रास्ता तो नहीं चुन लिया।