साहित्यकार परिचय- श्री राजेश शुक्ला ”कांकेरी”
जन्म- 10 दिसंबर 1964
माता-पिता- स्व.कान्ति देवी शुक्ला/स्व.हरप्रसाद शुक्ला
शिक्षा- एम.कॉम, बी.एड.
प्रकाशन- कहानी (किरन),साझा संग्रह (काव्य धरोहर)
सम्मान-
सम्प्रति- व्याख्याता-शास.उच्च.माध्य.विद्या.कोरर, (काँकेर) छ.ग.।
संपर्क- 9826406234
”गीत वासंती”
आया वसंत खिलकर,
सुरभित बहने लगी बयार।
लगता है जैसे निःसर्ग ने,
रचा कोई त्यौहार।
बौराये हैं आम,
महक है फूलों में सृष्टि की।
या शायद सुंदर शिशु जन्मा,
गोद भरी मिट्टी की।
चिड़ियों के कलरव से लगता,
शिशु भरे किलकारी।
मंद हवा में,मदमाती सी,
झूमे धरती सारी।
आज खुशी में सृष्टि बाँटे,
खुशियों के उपहार।
लगता है जैसे निःसर्ग ने
रचा कोई त्यौहार।
भोर भए जब सूरज अपनी,
किरणें है बिखराए।
होता है आभास,माँग वह,
धरती की भर जाए।
झूमें तरु शाखाएँ,
जैसे धरती ले अँगड़ाई।
धूप सुनहरी गंगाजल सी,
जिसमें धरा नहाई।
बिखरी-बिखरी सुंदरता से
सँवर गया संसार।
लगता है जैसे निःसर्ग ने,
रचा कोई त्यौहार।
रंग-बिरंगे फूलों से,
सज गई है सारी धरती।
सुंदर कोमल पंखुरियों से,
धरती आज सँवरती।
ओस से भीगे कोमल पत्ते,
खुश होकर लहराते।
बजे हवा की बंसी सन-सन,
कल-कल झरने गाते।
जैसे कोई गायक खुश हो,
छेड़े राग मल्हार।
लगता है जैसे निःसर्ग ने,
रचा कोई त्यौहार।
नई-नई सी लगती सुबहें,
नये-नये से दिन हैं।
नई-नई सी शाम सुहानी,
नये-नये पल-छिन हैं।
नई सी रातें,नया उजाला,
लगता नया जमाना।
नये रसों में डूब जाने को,
आज प्रकृति ने ठाना।
धरती,बादल,नभ और सागर
लेते नव आकार।
लगता है जैसे निःसर्ग ने,
रचा कोई त्यौहार।
खिले फूल पलाश के,
लाली धरती पर है छाई।
दूर कहीं कोयल है गाती,
बजती ज्यों शहनाई।
हरे-हरे कोमल पत्तों की,
धरती ओढ़े चूनर।
नरम ओस की बूँदें जैसे,
हो बिंदिया माथे पर।
साजन से मिलने को जैसे,
दुल्हन करे सिंगार।
लगता है जैसे निःसर्ग ने,
रचा कोई त्यौहार।
आया वसंत खिलकर,
सुरभित बहने लगी बयार।
लगता है जैसे निःसर्ग ने,
रचा कोई त्यौहार।