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अधिकार नहीं तो हम क्यों हो नाराज? श्री मनाेज जायसवाल संपादक सशक्त हस्ताक्षर छ.ग.

नहीं! नाराजगी की क्या बात! और फिर नाराजगी के लिए भी तो अधिकार होना चाहिए। जो तुमने किसी को दिया कहां है। आत्मीय बनना और बनाना दोनों अहम है। जिस कदर भौतिक सरोकार कम हुआ है,सोशल पर उंगली फिराये जा रहे हैं। ये नाराजगी का दस्तुर भी चल पड़ा है। सोशल प्लेटफार्म का अर्थ ही हिंदी में सामाजिक मंच होता है।
लेकिन यह सामाजिक मंच या पटल कम और जानकर अनजान बनते हालचाल जानते रहने का पटल बनते जा रहा है। कई की भौतिक रूप से बातचीत नहीं है,ना करना चाहते वह उनके जन्म दिवस के मैसेज में इम्युनी चेंप रहा है। इतना ही भौतिक सरोकार चाहते तो किसी को सोशल पटल में बधाई रूपी स्टीकर चेंप कर नहीं अपितु भौतिक रूप से बातें करते हालचाल जानते हुए बधाई शुभकामनाएं देते। थोथे रूप से दिखावेे के नाम आभासी दुनियां के पटल पर दिखावा नहीं करते।
ऐसा तो वे करते हैं,लेकिन आप खुद साहित्य कला के साधक होकर इस प्रकार दिखावे रूपी रिश्ता निभाने लगे तो आपके खुद के विचारों की तो तिलांजलि होगी। और फिर आपके किसी दिखावे में तो जाना नहीं है। आपका तो नाम ही काफी है। न जाने लेखन में कौन सा शब्द किसी को टीस लगे। आपके द्वारा अनावश्यक रूप से किसी के आईडी में डाली जाने वाली वाल भी अच्छा न लगे। किसी चीज की अति अच्छा तो नहीं है न ही अच्छा होता है। भौतिक सरोकार,अल्प समय की बातचीत में जितनी प्रगाढ़ता देखी जाती है,न भूलायी जाने वाली अंतहीन स्नेहिल संबंध वे इस अल्प समय में बने संबंधों में देखने नहीं मिलती।
ये संबंध अल्प समय में टूटते हुए भी देखा जा सकता है। अंग्रेजीयत की इगो भावनाएं जो भरी पड़ी है। जिसे दूर करने की बात कलमकार तो करते हैं,लेकिन खुद कुछ कलमकार अपने मस्तिष्क पटल से दूर नहीं कर पाते। लिहाज से सिर्फ लिखने से ही क्या होगा जब तक कि वह सब बात का खुद आत्मसात न करे।

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