साहित्यकार परिचय- श्री राजेश शुक्ला ”कांकेरी”
जन्म- 10 दिसंबर 1964
माता-पिता- स्व.कान्ति देवी शुक्ला/स्व.हरप्रसाद शुक्ला
शिक्षा- एम.कॉम, बी.एड.
प्रकाशन- कहानी (किरन),साझा संग्रह (काव्य धरोहर)
सम्मान-
सम्प्रति- व्याख्याता-शास.उच्च.माध्य.विद्या.कोरर, (काँकेर) छ.ग.।
संपर्क- 9826406234
‘कुंडलियाँ रंगोत्सव की’
कोई रंगे है लाल रंग में,कोई नीला-पीला।
कहीं रंग है सूखा-सूखा,कहीं है रंग पनीला।
कहीं है रंग पनीला,तो कहीं गुलाली बादल।
गंध मादक भाँग की,करती मन को पागल।
कहें कवि काँकेरी,धरती रंगोन्माद में खोई।
सब रंग हैं बौराए,अब क्या होली खेले कोई।
सतरंगी अबीर के रंग में,भीगी दुनिया सारी।
क्या बूढ़े क्या बच्चे,सारे मार रहे पिचकारी।
मार रहे पिचकारी,सब जन घूमें द्वारे-द्वारे।
फाग की मस्ती बिखर रही,बाज रहे नगारे।
कहें कवि काँकेरी,रंग गये सारे साथी-संगी।
जब होली की मस्ती में,हैं उड़े रंग सतरंगी।
होली आई,होली आई,बच्चे गाते घूम रहे।
रंगों का खुमार देखो,मस्ती में सब झूम रहे।
मस्ती में सब झूम रहे,हुई फिज़ा मतवाली।
भाभी खेले देवर संग,जीजा के संग साली।
कहें कवि काँकेरी,सब खाएँ भाँग की गोली।
कितने मादक रंग लिए,देखो आई है होली।
रंगों से भर गुब्बारे,फेंकें हैं इक दूजे पर।
सा रा रा रा की गूँज से,गूँजते धरती अंबर।
गूँजते धरती अंबर,हो गई हैं रंगीन हवायें।
बचा न कोई कोना,होली खेलें दसों दिशाएँ।
कहें कवि काँकेरी,रंग फूट रहे हैं अंगों से।
गगन भी रंग गया है आज,होली के रंगों से।
बधाई होली की,चहुँ ओर से देखो आती है।
होली का रंग है ऐसा,मस्ती बिखरी जाती है।
मस्ती बिखरी जाती है,मन है लगे थिरकने।
सृष्टि के सुंदर रंगों से,मौसम लगे है सजने।
कहें कवि काँकेरी,सुंदर होली की रुत आई।
काँकेरी की ओर से सबको,होली की बधाई।