‘संत गुरू घासीदास’ डॉ. रामायण प्रसाद टण्डन विभागाध्यक्ष हिन्दी, वरिष्ठ साहित्यकार कांकेर छ.ग.
साहित्यकार परिचय- डॉ. रामायण प्रसाद टण्डन
जन्म तिथि-09 दिसंबर 1965 जन्म स्थान-नावापारा जिला-बिलासपुर (म0प्र0) वर्तमान जिला-कोरबा (छत्तीसगढ़)
शिक्षा-एम.ए.एम.फिल.पी-एच.डी.(हिन्दी)
माता/पिता –स्व. श्री बाबूलाल टण्डन-श्रीमती सुहावन टण्डन
प्रकाशन – हिन्दी साहित्य को समर्पित डॉ.रामायण प्रसाद टण्डन जी भारत के छत्तीसगढ़ राज्य में हिन्दी के स्तंभ कहे जाते हैं। हिन्दी की जितनी सेवा उन्होंने शिक्षक के रूप में की उतनी ही सेवा एक लेखक, कवि और एक शोधकर्ता के रूप में भी उनकी लिखी पुस्तकों में-1. संत गुरू घासीदास की सतवाणी 2. भारतीय समाज में अंधविश्वास और नारी उत्पीड़न 3. समकालीन उपन्यासों में व्यक्त नारी यातना 4. समता की चाह: नारी और दलित साहित्य 5. दलित साहित्य समकालीन विमर्श 6. कथा-रस 7. दलित साहित्य समकालीन विमर्श का समीक्षात्मक विवेचन 8. हिन्दी साहित्य के इतिहास का अनुसंधान परक अध्ययन 9. भारतभूमि में सतनाम आंदोलन की प्रासंगिकता: तब भी और अब भी (सतक्रांति के पुरोधा गुरू घासीदास जी एवं गुरू बालकदास जी) 10. भारतीय साहित्य: एक शोधात्मक अध्ययन 11. राजा गुरू बालकदास जी (खण्ड काव्य) प्रमुख हैं। 12. सहोद्रा माता (खण्ड काव्य) और 13. गुरू अमरदास (खण्ड काव्य) प्रकाशनाधीन हैं। इसके अलावा देश के उच्च स्तरीय प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में, राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय शोध संगोष्ठी सेमिनार में अब तक कुल 257 शोधात्मक लेख, आलेख, समीक्षा, चिंतन, विविधा तथा 60 से भी अधिक शोध पत्र प्रकाशित हैं। आप महाविद्यालय वार्षिक पत्रिका ‘‘उन्मेष’’ के संपादक एवं ‘‘सतनाम संदेश’’ मासिक पत्रिका के सह-संपादक भी हैं। मथुरा उत्त्र प्रदेश से प्रकाशित मासिक पत्रिका ‘‘डिप्रेस्ड एक्सप्रेस’’ राष्ट्रीय स्तरीय पत्रिका हिन्दी मासिक के संरक्षक तथा ‘‘बहुजन संगठन बुलेटिन’’ हिन्दी मासिक पत्रिका के सह-संपादक तथा ‘‘सत्यदीप ‘आभा’ मासिक हिन्दी पत्रिका के सह-संपादक, साथ ही 10 दिसम्बर 2000 से निरंतर संगत साहित्य परिषद एवं पाठक मंच कांकेर छ.ग और अप्रैल 1996 से निरंतर जिला अध्यक्ष-पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी सृजनपीठ कांकेर छ.ग. और साथ ही 27 मार्च 2008 से भारतीय दलित साहित्य अकादमी कांकेर जिला-उत्तर बस्तर कांकेर छ.ग. और अभी वर्तमान में ‘‘इंडियन सतनामी समाज ऑर्गनाईजेशन’’ (अधिकारी/कर्मचारी प्रकोष्ठ) के प्रदेश उपाध्यक्ष.के रूप में निरंतर कार्यरत भी हैं।
पुरस्कार/सम्मान – 1-American biographical Institute for prestigious fite *Man of the year award 2004*research board of advisors (member since 2005 certificate received)
2. मानव कल्याण सेवा सम्मान 2005 भारतीय दलित साहित्य अकादमी छत्तीसगढ़ 3. बहुजन संगठक अवार्ड 2008 भारतीय दलित साहित्य अकादमी छत्तीसगढ़ 4. पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी स्मृति प्रोत्साहन पुरस्कार 2007(बख्शी जयंती समारोह में महामहिम राज्यपाल श्री ई.एस.एल. नरसिंम्हन जी के कर कमलों से सम्मानित। इनके अलावा लगभग दो दर्जन से भी अधिक संस्थाओं द्वारा आप सम्मानित हो चुके हैं।) उल्लेखनी बातें यह है कि आप विदेश यात्रा भी कर चुके हैं जिसमें 11वां विश्व हिन्दी सम्मेलन मॉरीसस 16 से 18 अगस्त 2018 को बस्तर संभाग के छत्तीसगढ़ भारत की ओर से प्रतिनिधित्व करते हुए तीन दिवसीय अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन में भाग लेकर प्रशस्ति-पत्र प्रतीक चिन्ह आदि से सम्मानित हुए हैं।
सम्प्रति – प्रोफेसर एवं विभागाध्यक्ष, शोध-निर्देशक (हिन्दी) शासकीय इन्दरू केंवट कन्या स्नातकोत्तर महाविद्यालय कांकेर, जिला- कांकेर (छत्तीसगढ़) में अध्यापनरत हैं। तथा वर्तमान में शहीद महेन्द्र कर्मा विश्वविद्यालय बस्तर जगदलपुर छत्तीसगढ़ की ओर से हिन्दी अध्ययन मण्डल के ‘‘अध्यक्ष’’ के रूप में मनोनित होकर निरंतर कार्यरत भी हैं।
सम्पर्क –मकान नं.90, आदर्श नगर कांकेर, जिला-उत्त्र बस्तर कांकेर, छत्तीसगढ़ पिन-494-334 चलभाष-9424289312/8319332002
‘संत गुरू घासीदास’
मानवता के महानायक दलितों, शोषितों और पीड़ितों के मसीहा संत गुरू घासीदास भारत के छत्तीसगढ़ राज्य की संत परंपरा में सर्वोपरि स्थान रखते हैं। बाल्यावस्था से ही संत गुरू घासीदास के हृद्य में वैराग्य का भाव प्रस्फुटित हो चुका था। भारतीय समाज में व्याप्त पशुबलि तथा अन्य कुप्रथाओं का ये बचपन से ही विरोध करते रहे। समाज को नई दिशा प्रदान करने में इन्होंने अतुलनीय योगदान दिया था। सत्य से साक्षात्कार करना ही संत गुरू घासीदास के जीवन का परम लक्ष्य था। ‘‘सतनाम धर्म’’ का संस्थापक भी गुरू घासीदास को ही माना जाता है।
संवत गुरू घासीदास का जन्म 18 दिसम्बर 1756 को छत्तीसगढ़ के रायपुर वर्तमान बलौदाबाजार-भाटापारा जिला केे गिरौद नामक ग्राम में हुआ था। इनके माता-पिता का नाम महंगूदास और माता अमरौतीन था। संत गुरू घासीदास जी का विवाह सिरपुर ग्राम के अंजोरीदास की पुत्री सफुरा से हुआ था। इनकी संताने सहोद्रा माता, गुरू अमरदास, और गुरू बालकदास, आगरदास, अड़गड़िहादास थे। संत गुरू घासीदास का कार्यकाल 1756-1850 तक माना गया है। इनकी मृत्यु को अज्ञात माना गया है।
,गुरू घासीदास की सत्य के प्रति अटूट आस्था की वजह से ही इन्होंने बचपन में कई चमत्कार दिखाए, जिसका लोगों में काफी प्रभाव पड़ा। गुरू घासीदास ने समाज के लोगों को सात्विक जीवन जीने की प्रेरणा दी। उन्होंने न सिर्फ सत्य की आराधना की, बल्कि समाज में नई जागृति पैदा की और अपनी तपस्या से प्राप्त ज्ञान और शक्ति का उपयोग मानवता की सेवा के कार्य में किया। इसी प्रभाव के चलते लाखों लोग संत गुरू घासीदास बाबा के अनुयायी हो गए। फिर इसी तरह छत्तीसगढ़ में सतनाम धर्म की स्थापना हुई। इस संप्रदाय के लोग उन्हें अवतारी पुरूष के रूप में मानते हैं। संत गुरू घासीदास के मुख्य रचनाओं में उनके सात वचन सतनाम धर्म के ‘‘सप्त सिद्धांत’’ के रूप में प्रतिष्ठित हैं। इसलिए सतनाम धर्म का संस्थापक भी संत गुरू घासीदास को ही माना जाता है।
इनके सात वचन सतनाम धर्म के सप्त सिद्धांत के रूप में प्रतिष्ठित हैं, जिसमें सतनाम पर विश्वास करना, मूर्ति पूजा का निषेध, वर्ण भेद से परे, हिंसा का विरोध, व्यसन से मुक्ति, पर स्त्रीगमन की वर्जना और दोपहर में खेत न जोतना हैं। संत गुरू घासीदास के द्वारा दिये गये उपदेशों में समाज के असहाय लोगों में आत्मविश्वास, व्यक्तित्व की पहचान और अन्याय से जूझने की शक्ति का संचार हुआ। सामाजिक तथा आध्यात्मिक जागरण की आधारशिला स्थापित करने में सफल हुए और छत्तीसगढ़ में इनके द्वारा प्रवर्तित सतनाम धर्म के लाखों अनुयायी हैं।
संत गुरू घासीदास को सतज्ञान की प्राप्ति छत्तीसगढ़ के रायगढ़ जिला के सारंगढ़ तहसील में बिलासपुर रोड (वर्तमानं) में स्थित एक पेड़ के नीचे तपस्या करते वक्त प्राप्त हुआ माना जाता है, जहां आज गुरू घासीदास पुष्प वाटिका की स्थापना की गयी है। संत गुरू घासीदास जी की बयालिस अमृतवाणियां हैं-जिसमें प्रमुख हैं-1.‘‘सत ह मनखे के गहना आय, 2.सतनाम घट घट म समाय हे, 3.दाई ददा अउ गुरू के सम्मान करिहव, 4.गियान के पंथ किरपान के धार आय, 5.बैरी संग घलो पिरीत रखहु, 6.सतनाम ल अपन आचरण म उतारव, 7.मेहनत के रोटी ह सुख के अधार आय’’ इस तरह से गुरू घासीदास जी की चुनिंदा कुछ अमृतवाणियों को यहां उद्यृत किया गया है।
संत गुरू घासीदास ने छाता पाहाड़ में ध्यान किए, गुरू अमरदास ने अमरगुफा में, छोटे छाता पाहाड़ में ध्यान किए, गुरू बालकदास ने भी ध्यान करके ही सतनाम ज्ञान प्राप्त किए थे, इसीलिए आप सभी संत समाज विद्याार्थी गण चिंतन ,मनन, ध्यान के माध्यम से सत ज्ञान को प्राप्त कर सकते हैं। इन संतों ने सतनाम का ध्यान करके ही सतनाम को जाना है।
इसीलिए संत गुरू घासीदास ने कहा है कि-
1. ‘‘मंदिरवा म का करे ल जईबो, अपन घट ही के देवा ल मनईबों।’’
2. ‘‘सतनाम घट घट म समाय हे।’’
3. ‘‘एकरे सेती सतनाम ल अपन अंदर म ढूंॅढ़व।’’
4. ‘‘मन मंदिर काया बसे, स्वांस मंदिर के द्वार,
ज्ञान बंद किवड़िया खोले, सतनाम उतारे पार।।’’
5. सतनाम सतनाम सार गुरू महिमा अपार,
अमृत धार बोहाई दे, हो जाही बेड़ा पार,
सतगुरू नाम ल लखाई दे।’’ सन न नन्ना ….
सत्य लोक ले सतगुरू आयो हो,
अमृत धारा ल गुरू बाबा लायो हो, घासी बाबा लायो हो
सत्य के तराजू म दुनिया ल तोैलो हो,
गुरू जी बताईन सत्य सत्य बोलो हो,
सत्य सत्य बोलो साहेब सत्य सत्य बोलो संतो, सत्य सत्य बोलो हो।
सन न नन्ना…
6. हंसा बनके दूध ल पी जा, अलग कर दे पानी ल।
कहें सतगुरू घासीदास, संतों मन ल बानी।’’
( पानी अर्थात् मन का गुण जैसे-क्रोध, लोभ, मोह, ईर्ष्या, द्वेष अहंकार आदि। दूध अर्थात् आत्मा का गुण जैसे-प्रेम, समभाव, समान दृष्टि, क्षमा आदि। हंस अर्थत् परख शक्ति जिस प्रकार हंस दूध और पानी में से केवल दूध को पी लेता है और पानी पानी को छोड़ देता है उसी प्रकार हमारे शरीर के अंदर मन और आत्मा का गुण मिला हुआ है हमें हंस की तरह अपनी परख शक्ति के द्वारा सभी आत्मा के गुणों को धारण कर लेना चाहिए और मन के गुणों को छोड़ देना चाहिए।)
गुरू घासीदास बाबा ने समाज में व्याप्त जातिगत विषमताओं को नकारा। उन्होंने ब्राम्हणों के प्रभुत्व को नकारा और कई वर्णो में बांटने वाली जाति व्यवस्था का विरोध किया। उनका मानना था कि समाज में प्रत्येक व्यक्ति सामाजिक रूप से समान हैसियत रखता है। इसीलिए गुरू घासीदास का मानना और कहना था कि -‘‘मनखे मनखे एक बरोबर’’ (अर्थात् मानव मानव एक समान) गुरू घासीदास ने मूर्तियों की पूजा को वर्जित किया। वे मानते थे कि उच्च वर्ण के लोगों और मूर्ति पूजा में गहरा संबंध है।
संत गुरू घासीदास पशु-पक्षियों से भी प्रेम करने की सीख देते थे। वे उन पर कू्ररता पूर्वक व्यवहार करने के खिलाफ थे। सतनाम धर्म के अनुसार खेती के लिए गायों का इस्तेमाल नहीं किया जाना चाहिए। गुरू घासीदास के संदेशों का समाज के पिछड़े समुदाय में गहरा असर पड़ा। सन् 1901 की जनगणना के अनुसार उस वक्त लगभग चार लाख लोग सतनाम धर्म से जुड़ चुके थे और गुरू घासीदास के अनुयायी बन चुके थे। छत्तीसगढ़ के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम सेनानी वीर नारायण सिंह पर भी संत गुरू घासीदास के सिद्धांतों का गहरा प्रभाव था। गुरू घासीदास के संदेशों और उनकी जीवनी का प्रसार पंथी गीतों व लोक नृत्यों के जरिए भी व्यापक रूप से हुआ। सतनाम धर्मानुयायी लोक कलाकार स्व.देवदास बंजारे ने इस प्रख्यात विघा को पंथी नृत्य और गायन के माध्यम से लगभग चौसठ देशों में अपनी प्रस्तुति देकर सतनाम धर्म का प्रचार-प्रचार किया। इसी लोक विघा के क्षेत्र में छत्तीसगढ़ सरकार ने उन्हें ‘‘गुरू घासीदास सम्मान’’ से सम्मानित भी किया है। इस पंथी नृत्य और पंथी गायन को छत्तीसगढ़ की प्रख्यात लोक विघा भी मानी जाती है।
संत गुरू घासीदास ने समाज में व्याप्त कुप्रथाओं का बचपन से ही विरोध किया। उन्होंने समाज में व्याप्त छुआछूत की भावना के विरूद्ध-‘‘मनखे-मनखे एक बरोबर’’ का संदेश दिया। छततीसगढ़ राज्य में गुरू घासीदास की जयंती 18 दिसम्बर से माह भर व्यापक उत्सव के रूप में समूचे राज्य में पूरी श्रद्धा और उत्साह के साथ मनाई जाती है। इस उपलक्ष्य
में गांव-गांव में मड़ई-मेले का आयोजन होता है। गुरू घासीदास का जीवन-दर्शन युगों तक मानवता का संदेश देता रहेगा। संत गुरू घासीदास आधुनिक युग के सशक्त क्रांतिदर्शी गुरू थे। इनका व्यक्तित्व ऐसा प्रकाश स्तंभ है, जिसमें सत्य, अहिंसा, करूणा तथा जीवन का ध्येय उदात्त रूप से प्रकट है। छत्तीसगढ़ शासन ने उनकी स्मृति में सामाजिक चेतना एवं सामाजिक न्याय के क्षेत्र में ‘‘गुरू घासीदास सम्मान’’ स्थापित किया है।
संत गुरू घासीदास ने प्रमुख कार्य विशेष रूप से छत्तीसगढ़ राज्य के लोगों के लिए सतनाम का प्रचार-प्रसार किया। इतना ही नहीं बल्कि उनका यह सतनाम का संदेश सम्पूर्ण विश्व मानव समुदाय के लिए भी तथा कल, आज और कल के लिए भी प्रासंगिक और अति महत्वपूर्ण है। गुरू घासीदास के बाद, उनकी शिक्षाओं को उनके पुत्र गुरू अमरदास और गुरू बालकदास ने लोगों तक पहुंचाया। गुरू घासीदास ने छत्तीसगढ़ में सतनामी संप्रदाय की स्थापना की थी इसीलिए उन्हें ‘‘सतनाम धर्म’’ का संस्थापक माना जाता है।
संत गुरू घासीदास का समाज में एक नई सोच और नये विचार उत्पन्न करने में बहुत बड़ा हाथ है। गुरू घासीदास बहुत कम उम्र में पशुओं की बलि, नरबलि, सतीप्रथा, इसी तरह अन्य कुप्रथाओं जैसे जाति भेद-भाव, छुआछूत के पूर्ण रूप से खिलाफ थे। उन्होंने पूरे छत्तीसगढ़ के हर जगह की यात्रा की और इसका हल निकालने का पूरा प्रयास किया। इस यात्रा को रावटी या रामत प्रथा के रूप में भी जाना जाता है। इसका मूल उद्देश्य था अज्ञानता से घिरे मानव के हृद्य में सतज्ञान का संचार करना था। गुरू घासीदास ने सतनाम अर्थात् सत्य से लोगों को साक्षात्कार कराया और सतनाम का प्रचार किया। उनके अनमोल विचार और सकारात्मक सोच, बौद्ध विचार धाराओं से मिलते जूलते हैं। गुरू घासीदास ने सत्य के प्रतीक के रूप में ‘‘जैतखाम’’ को दर्शाया-यह एक सफेद रंग किया हुआ लकड़ी का खंभा होता है जिसके उपर सफेद झण्डा फहराता है।
इसके सफेद रंग को सत्य का प्रतीक माना जाता है।संत गुरू घासीदास और उनका सतनाम धर्म को अमिट और अक्षुण्ण रखने के लिए रायपुर, छत्तीसगढ़ से करीब 145 किलोमीटर की दूरी पर स्थित गिरौदपुरी में बाबा जी की जन्म स्थली, तपोस्थली एवं कर्मभूमि गिरौदपुरी , जहां विशाल स्तंभ ‘‘जैतखाम’’ का निर्माण किया गया है। यह स्तंभ दिल्ली के कुतुब मीनार से भी ऊंचा है। यह स्तंभ कई किलोमीटर दूर से ही दिखने लगता है। सफकद रंग के इस स्तंभ का वास्तुशिल्प इतना शानदार है कि दर्शकों की आंखे ठिठक जाती हैं, दिन ढलते ही दूधिया रोशनी में जैतखाम की भव्यता देखते ही बनती है।
जैतखाम की ऊंचाई 77 मीटर (243 फीट) है, जबकि कुतुब मीनार 72.5 मीटर (237 फीट) ऊंची है। जैतखाम को बनाने में सात खंभों का उपयोग किया गया है, जैतखाम के अंदर एक विशाल हॉल है, इसके अलावा ऊपर चढ़ते हुए जैतखाम की से गिरौदपुरी का नजारा भव्य नजर आता है। पहाड़ी भी ऐसे लगती है मानो उन्हें हाथों से छुआ जा सकता है। यहां पर गुरू घासीदास ने गिरौदपुरी के छाता पाहाड़ में तपस्या की थी, यही से उन्हें सत्य ज्ञान की प्राप्ति हुई, आज इस स्थान पर अर्थात् गिरौदपुरी में कुतुबमीनार से भी ऊंचा जैतखाम का निर्माण किया गया है जो सतनाम धर्म के लिए एक तीर्थ स्थल से कम नहीं है। यहां पर अमृत कुण्ड और चरण कुण्ड भी मौजूद है।
छत्तीसगढ़ की धरती में संत गुरू घासीदास, गुरू अमरदास, गुरू बालकदास के एक वृहत् सतनाम आंदोलन चला था। जिसके प्रभाव से छत्तीसगढ़ की अनेक जातियां जिसमें तेली, कुर्मी, गोड़, कंवर, बिंझवार, लोहार, चन्द्रनाहू, पनिका, ढीमर, राउत, कलार,, नाई, धोबी, कुम्हार सहित सवर्ण समाज के लोग अर्थात् ब्राम्हण, क्षत्रीय वर्ग के लोग भी सतनाम धर्म में शामिल हुए थे और जात-पात के बंधन को तोड़ दिए थे। और सतनाम धर्म रूपी वृहद् और अथाह सतनाम रूपी सागर में समाहित हो गए थे। यही कारण है कि आज भी छत्तीसगढ़ के लोगों में स्वतंत्रता, समानता, समरसता, भाईचारा एवं सहिष्णुता की भावना से ओत-प्रोत आनंदित खुशहाल एवं सतनाममय छत्तीसगढ़ की झलक दिखाई देता है। सतनाम का सिद्धांत किसी जाति या समुदाय विशेष के लिए नहीं है वह तो मानव मात्र के कल्याण के लिए निमित्त और सार्वभौमिक सिद्धांत है। जिसे अपनाकर कोई भी मनुष्य अपने जीवन को अर्थ पूर्ण, आदर्श एवं सफल बना सकता है। पंथी गीतों में उल्लेखित है जो इस तरह से है-
‘‘तोर हंसा फंसे मया जाल, साहेब सतनाम ले ल हो।
जीना मरना नईये कछु हाथ, साहेब सतनाम ले ल हो।
दुनिया मा आ के नर तन पाके, करले कछु काम,
माटी के तन हावै, पाछु नई आही कछु काम,
दुख के घनेरा हे, सुख बहुत थोड़ा हे,
ढल जाही बेरा ये सुबह शाम, अब भी सुमर ले सतनाम
तोर हंसा फंसे हे मया जाल, साहेब सतनाम ले ल हो।
जीना मरना नईये कछु हाथ, साहेब सतनाम ले ल हो।
संत गुरू घासीदास एक युगांतकारी महान संत और गुरू थे, जिन्होने अपने समय की सामाजिक, आर्थिक विषमता शोषण तथा जातिभेद के खिलाफ लड़ाई लड़ी, जिसके लिए संघर्ष आज भी जारी है। संत गुरू घासीदास ने सतनाम धर्म का प्रवर्तन किया, जिसके मानने वाले अनुयायियों की संख्या छत्तीसगढ़ और भारत भूमि के विभिन्न हिस्सों में लाखों लोग निवास करते हैं। इसी तरह आज संत गुरू घासीदास के सतनाम की परंपरा को आगे बढ़ाने में उनके अनुयायीगण आधुनिक नवजागरण के अग्रदूत मानव मसीहा छत्तीसगढ़ की धरा में जन्में महा मानव संत गुरू घासीदास ने अपनी सत अमृतवाणी में सतनाम का गुणगान किया तथा साथ ही लोगों में सतनाम चेतना का संचार एवं प्रचार-प्रसार भी किया जो हमें सतनाम साहित्य, जन श्रुतियों, पंथी गीतों आदि के माध्यम से छत्तीगढ़ी लोक भाषा में देखने एवं सुनने को सहज रूप से मिलता है।
संत गुरू घासीदास कठिन तपस्या से होकर गुजरे थे और परमात्मा की अनुभूति से वे ‘‘अवतार’’ की श्रेणी में आ गए। निरक्षर गुरू के अनुभव में वेदान्त का निचोड़ है, जिसे ‘पंथी’ गीतों के माध्यम से समझा जा सकता है। गुरू घासीदास ने 1820 में छत्तीसगढ़ी में दैवी संदेश को प्रस्तुत कर छत्तीसगढ़ी को ‘‘देवभाषा’’ का दर्जा प्रदान कर दिया। जिस प्रकार मूसा ने ‘‘ओल्ड टेस्टामेण्ट’’ में दस सूत्र दिए थे, उसी प्रकार गुरू घासीदास ने छत्तीसगढ़ी जनता को ‘‘सात सूत्र’’ दिए थे। सात सिद्धांत –1. सतनाम सत्पुरूष म अडिग विश्वास रखव। 2. मूर्ति पूजा झन करव। 3. जाति-पाति के चक्कर म झन पड़व। 4. जीव हत्या झन करव। 5. नशा सेवन झन करव। (काबर के नशा ह हमर शरीर के नाश के कारन बनथे।) 6. पर स्त्री ल अपन माता जईसे समझव। 7. गाय-भईस ल नांगर म झन जोतहवं (सबो जीव बर दया करिहव) उनके इन सूत्रों के ही कारण छत्तीसगढ़ी जनता ने सामन्तवाद तथा उपनिवेषवाद का डटकर मुकाबला किया था। छत्तीसगढ़ की अस्मिता के लिए गुरू घासीदास जीवन भर संघर्ष करते रहे।
संवत गुरू घासीदास उच्चकोटि के व्यवहारवादी तथा तथ्यान्वेषी ही न थे, अपितु महान दार्शनिक भी थे, जिन्होंने विश्व के लिए एक नया ‘‘मॉडेल’’ दिया, जिन्होंने नैतिकता के तेज बहाव से जनता की रक्षा की, जिन्होंने भारत में नवजागरण की प्रथम रश्मि फैलायी। उनका नवजागरण निरक्षर भारतीय किसानों और मजदूरों के परिश्रम से सींचा गया था। दुर्भाग्य का विषय है कि भारतीय नवजागरण के चर्चा प्रसंग में पश्चिम के प्रभाव को स्वीकार करते हुए गुरू घासीदास की उपेक्षा कर दी जाती है।
सत्य को परखने का गुरू घासीदास का तरीका मताग्रही नहीं था। उन्होंने किसी खास धार्मिक और दार्शनिक विचारधारा को स्वीकार नहीं किया। उन्होंने अपने दर्शन में लोक की विविध प्रचलित धाराओं का समन्वय किया। सच तो यह है कि उन्होंने एक ‘‘लोकदर्शन’’ का अविष्कार किया था। उन्होंने अपने अनुभव में जो देखा, उसी की शिक्षा दी।
आधुनिक युग में संत गुरू घासीदास एक सशक्त क्रांतिदर्शी तथा आध्यात्मिक गुरू थे। वे राजाराम मोहनराय से बहुत पहले नवजागरण का संदेश लेकर अवतरित हुए थे। राजा राम मोहनराय पश्चिमी विचारधारा और जीवनपद्धति से अनुप्राणित होकर ही नव जागरण के संदेशवाहक बने थे, जब कि गुरू घासीदास ने निरक्षरता तथा हलवाहे की स्थिति में ग्रामीण परिवेश से जुड़कर ‘विशुद्ध’ भारतीय चिंतन ही प्रस्तुत किया था। यही कारण है कि चार्ल्स ग्राण्ट (870!!!) ने गुरू घासीदास को तत्कालीन मध्यप्रदेश का ‘‘आश्चर्य’’ माना था।-‘‘इस अंचल के असल आश्चर्य अभी तक धरती के नीचे दबे हुए हैं। गुरू घासीदास उनमें से एक हैं, जिन्होंने छत्तीसगढ़ के भूमिदासों को जगाया और जातिप्रथा को समाप्त कर समतावादी समाज की रचना की।
छत्तीसगढ़ के इतिहास में घटित और उल्लेखित यह एक महत्वपूर्ण बात है कि गांधी जी के इस मानवता के सिद्धांतों से स्पष्ट होता है कि-‘ गांधी‘ का छत्तीसगढ़ आगमन के दौरान पं. सुन्दरलाल शर्मा से मुलाकात होने पर उनके सत की राह पर चलने से प्रभावित हुए थे। क्योंकि सुन्दरलाल शर्मा ने छत्तीसगढ़ के महान मानवता वादी संत एवं मानवता के महानायक सतनाम धर्म के संस्थापक संत गुरू घासीदास के ‘‘सतनाम’’ के सिद्धांतों से अत्यधिक प्रभावित होकर संत गुरू घासीदास को अपना प्रथम गुरू मानते हुए देश की आजादी की लड़ाई लड़ रहे थे। गांधी जी पं. सुन्दरलाल शर्मा को प्रेरणा स्त्रोत और गुरू माना और इसी दौरान पं. सुन्दरलाल शर्मा के साथ भण्डारपुरी भी गए थे जहां गुरू घासीदास के द्वितीय पुत्र गुरू बालकदास जी के द्वारा निर्मित भव्य गुरूद्वारा का भी दर्शन गांधी जी ने किया था जिसमें गुरू घासीदास जी के तीन बंदर अंकित हैं, जिसमें एक बंदर आंख बंद किया हुआ है, दूसरा बंदर कान बंद किया हुआ है और तीसरा बंदर अपना मुंह बंद किया हुआ है। जिसका मतलब यह है कि-‘‘बुरा मत देखों, बुरा मत सुनों और बुरा मत कहो।’’ इस सिद्धांत को भी महात्मा गांधी ने अपने जीवन में पूर्णतः अंगीकार किया है। 1920-30 के दौरान गांधी जी छत्तीसगढ़ आये थे तब उन्होंने संत गुरू घासीदास जी के सत्य और अहिंसा के सिद्धांत को अपने जीवन में अमल करते हुए स्वतंत्रता आंदोलन की लड़ाई पूर्णतः अहिंसात्मक ढंग से लड़ी और उसमें उनकों सफलता भी मिली। संत गुरू घासीदास जी के सतनाम के सिद्धांत को गांधी जी ने जीवन में अपनाकर गुरू घासीदास जी को अपना प्रेरणास्त्रोत और अपना गुरू भी माना है। हम कह सकते हैं कि आज भी अहिंसा और सत्य का मार्ग सम्पूर्ण मानवता के लिए अनुकूल प्रतीत होता है। और सत्य, अहिंसा का मार्ग आज भी हम सब के लिए अर्थात् सम्पूर्ण मानवता के लिए बहुत ही प्रासंगिक भी है।
संत गुरू घासीदास आमजनों की ग्रामीण परंपरा के विकसित हुए थे। इसलिए उनमें कृत्रिमता और सांस्कारिक विद्वता के कोई लक्षण नहीं थे। उन्होंने ग्रामीण वाचिक परंपरा को पूरी तरह आत्मसात् किया।
गुरू घासीदास आधुनिक भारत के नैतिक, सामाजिक, धार्मिक तथा आध्यात्मिक जागरण के एक महान शिल्पी थे। आज भी उनके द्वारा प्रवर्तित सतनाम के सिद्धांत छत्तीसगढ़ के लाखों सतनाम धर्म के अनुयायियों के लिए मार्गदर्शक हैं।