साहित्यकार-परिचय – श्री किशन टण्डन ‘क्रान्ति’
माता-पिता – श्री रामखिलावन टण्डन, श्रीमती मोंगरा देवी जीवन संगिनी-श्रीमती गायत्री देवी
जन्म – 01 जुलाई 1964 मस्तूरी, जिला- बिलासपुर (छ.ग.)
शिक्षा – एम. ए. ( समाजशास्त्र, इतिहास, राजनीति विज्ञान ) उपलब्धियाँ मध्य प्रदेश लोक सेवा आयोग से जिला महिला एवं बाल विकास अधिकारी पद पर चयनित ( 1996 )
प्रकाशन – काव्य-संग्रह-11, कहानी-संग्रह- 5, लघुकथा-संग्रह-5, उपन्यास-2, हास्य व्यंग्य
– संग्रह-2, ग़ज़ल-संग्रह-1, बाल कविता-संग्रह-1, प्रकाशनाधीन कृति- 25
पुरस्कार / सम्मान – डॉ. अम्बेडकर राष्ट्रीय फैलोशिप साहित्य सम्मान, साहित्य वाचस्पति सम्मान (उत्तरप्रदेश साहित्यपीठ) सहित कुल 14 राष्ट्रीय,राज्यीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय सम्मान एवं अलंकरण।
विशेष – वेश्यावृत्ति के सन्दर्भ में सेक्स वर्करों की दर्द में डूबी जिन्दगी के बारे में आपके द्वारा रचित ‘अदा’ उपन्यास विश्व में सर्वाधिक पढ़े जाने वाले उपन्यासों में से एक है।
सम्प्रति – उपसंचालक, छत्तीसगढ़ शासन, महिला एवं बाल विकास विभाग
सम्पर्क – ‘मातृछाया’ दयापुरम् मस्तूरी- 495551, जिला- बिलासपुर ( छ.ग. )
मो. 98937 28332/ 87706 75527
‘वो घड़ीसाज’
द्वितीय महायुद्ध में लड़ने वाले देशों के जासूसों ने बड़े-बड़े विस्मयकारी कारनामे दिखाए थे। हद तो तब हो गई, जब एक सामान्य से दिखने वाले व्यक्ति ने ऐसा कमाल कर दिखाया कि उस कार्य को टैंक, विमान और समुद्री युद्धपोत मिलकर भी अंजाम नहीं दे सकते थे।
प्राकृतिक दृष्टि से स्कॉटलैंड का समुद्री तट एक स्थान से ऐसा अन्दर चला गया है कि अंग्रेजों ने वहाँ नौसैनिक युद्ध जहाजों और पनडुब्बियों आदि का अड्डा बना रखा था। उस स्थान का नाम है- स्कापा। अंग्रेजों ने इस अड्डे यानी युद्ध बंदरगाह को विभिन्न व्यवस्थाओं से अपराजेय बना दिया था। उसका मुहाना इतना तंग था कि उसमें प्रवेश पा लेना शत्रु के किसी समुद्री जहाज या पनडुब्बी के लिए असम्भव था। फिर भी मित्र राष्ट्रों की अंग्रेजी फौजों ने एहतियात के तौर पर उस ठिकाने पर समुद्र में बारूदी सुरंगे बिछा दी थी। ब्रिटेन के नौसैनिक हाईकमांड की यह गर्वोक्ति थी कि शत्रु की छोटी सी युद्ध नौका भी उस बंदरगाह में प्रवेश नहीं कर सकती थी।
द्वितीय महायुद्ध आरम्भ होने के लगभग डेढ़ माह बाद यह बंदरगाह अर्द्धरात्रि में भयंकर धमाकों से दहल उठा था। एक बड़ा युद्धक जहाज तबाह होकर समुद्र में डूब गया। एक अन्य बड़ा युद्धक जहाज डूबा तो नहीं, लेकिन उसे इतना सख्त नुकसान पहुँचा कि एक लम्बे अरसे तक युद्ध में भाग लेने योग्य ही नहीं रहा। अनेक छोटे युद्धक जहाज भी तबाह हो गए या लम्बे समय तक के लिए बेकार हो गए। और सबसे बड़ा नुकसान तो ब्रिटिश सरकार को यह हुआ कि उसका यह विश्वास चकनाचूर हो गया कि उनका स्कापा स्थित समुद्री अड्डा अपराजेय और प्रतिद्वन्दी जर्मनों के हाथों से सुरक्षित है। ब्रितानवी सेना के हाई कमांड के पाँव तले से जमीन निकल गई।
ब्रितानिया की गुप्तचर व्यवस्था के एक विशिष्ट विभाग को हरकत में लाया गया। उसके सुपुर्द यह काम सौंपा गया कि उनके अति महत्व के जहाजों की यह तबाही किस जासूस का कारनामा है, उसे तलाश किया जाए। अब तक केवल यह सुराग मिला था कि यह तबाही सिर्फ एक पनडुब्बी ने मचाई है। लेकिन यह तय था कि जर्मनों की वह पनडुब्बी किसी जासूस के पथ- प्रदर्शन के बिना बंदरगाह के अन्दर नहीं आ सकती थी।
ब्रितानिया गुप्तचर विभाग खोज में व्यस्त हो गया। खोज में यह पाया गया कि इस अड्डे के निकट घड़ियाँ मरम्मत करने वाले एलबर्ट ओर्टल की दुकान तबाही के बाद से बन्द थी। ओर्टल ने यह दुकान महायुद्ध के 12 वर्ष पूर्व खोली थी। तब से लेकर वह आदमी अपनी दुकान से कभी अनुपस्थित नहीं हुआ था, लेकिन अब उसकी दुकान बन्द थी और वह स्वयं लापता था।
उसके ग्राहक और उसे जानने वाले लोग यह स्वीकार करने को तैयार नहीं थे कि वह घड़ीसाज जो 12 वर्ष से उनके साथ प्यार और मोहब्बत से रह रहा था और जिसने व्यवसाय और सामाजिक जीवन में कभी किसी का दिल नहीं दुखाया था, वह जासूस भी हो सकता है। ब्रितानवी नौसेना के अफसरों तक ने एलबर्ट ओर्टल के चरित्र और चाल-चलन की प्रशंसा की थी। लेकिन यह नेक और हँसमुख घड़ीसाज ऐसा लापता हुआ कि आज तक किसी को नजर नहीं आया। उसकी दुकान खोलकर देखी गई। वहॉं सारा सामान ज्यों का त्यों मौजूद था।
अब सबसे बड़ा प्रश्न यह था कि आखिर वह घड़ीसाज कहाँ गया? क्या उनका कत्ल हो गया अथवा उसका अपहरण कर लिया गया? किसी को यह सुराग नहीं मिल सका। महायुद्ध समाप्त होने के कुछ समय बाद जर्मनी की गुप्तचर विभाग के खुफिया कागजात अंग्रेजों के अधिकार में आए तो पता चला कि स्कापा की तबाही उसी नेक और हँसमुख घड़ीसाज के प्रदर्शन पर हुई थी, जिसका नाम एलबर्ट ओर्टल नहीं, बल्कि कैप्टन अल्फ्रेड वेहरिंग था। वह अंग्रेज नहीं, बल्कि जर्मन था, जिसने महायुद्ध शुरू होने से 12 वर्ष पूर्व यहाँ घड़ियाँ मरम्मत करने की दुकान खोली थी।
दरअसल प्रथम महायुद्ध में जर्मनी पूरी तरह पराजित हो गया था। इसका प्रतिशोध लेने के लिए जर्मनी ने उसी समय युद्ध की तैयारियाँ शुरू कर दी थी। यही भावना हिटलर को सत्ता में लाई थी। इसमें दो मत नहीं कि जिन्दा रहने वाली प्रतिष्ठित जातियाँ पराजित होकर कभी चुपचाप नहीं बैठती है और न ही पराजय को निर्णयात्मक समझती है।
जर्मनी ने पहला काम यह किया कि संसार भर के देशों में, जिनमें फ्रांस, ब्रिटेन और अमेरिका विशेष थे, अपने जासूस भेज दिए थे। स्कॉटलैंड की स्कापा की जासूसी भी इसी सिलसिले की एक कड़ी थी। जर्मन हाईकमांड ने यह जगह देखकर उसका युद्ध के दौरान महत्व और उपयोगिता मालूम कर ली थी। जर्मन चाहते थे कि युद्ध शुरू होते ही इस जगह पर अधिकार कर लिया जाए और यदि यह सम्भव न हो तो इस अड्डे को इसप्रकार बेकार और असुरक्षित कर दिया जाए कि अंग्रेज भी उसका उपयोग न कर सकें।
अंग्रेजों ने स्कापा अड्डे की सुरक्षा व्यवस्था को इतना सुदृढ़ बना रखा था कि वे उसे अपराजेय मानते और जानते थे। वहाँ बारूदी सुरंगे बिछा दी गई थीं। उन सुरंगों से ब्रिटिश सेना ने अपने जहाज गुजारने के लिए थोड़ा सा रास्ता सुरक्षित छोड़ रखा था। पानी में कुछ अन्य बाधाएँ भी थीं। जहाजों के गुजरने के लिए जो रास्ता छोड़ा गया था, वह ब्रिटिश नौसेना के कुछ अधिकारियों के सिवा किसी को मालूम ही नहीं था। जो नया नौसैनिक जहाज उस बंदरगाह में आता था, वह बाहर ही रुक जाता था और उसे बंदरगाह के विशिष्ट कप्तान ही अन्दर लाते थे। इसके अलावा बंदरगाह के खास-खास स्थानों पर दूर तक मार करने वाली तोपें भी स्थापित कर दी गई थीं, ताकि शत्रु का कोई जहाज बाधाओं और बारूदी सुरंगों में से गुजर कर आए तो उसे बंदरगाह में प्रवेश करने से पहले ही तबाह किया जा सके।
जर्मन नौसेना के लिए यह एक बड़ी चुनौती थी। वह यह जानना चाहती थी कि स्कापा का सुरक्षा-प्रबन्ध क्या है? और उनमें से गुजरने का रास्ता कौन सा है? यह काम कैप्टन अल्फ्रेड वेहरिंग के सुपुर्द किया गया था। उसे जासूसी का विशिष्ट प्रशिक्षण दिया गया। अंग्रेजी बोलचाल सिखाई गई। घड़ी बनाने का काम भी उस प्रशिक्षण का एक हिस्सा था। यह जर्मन कप्तान बुद्धिमान और दिलेर था। उसे बताया गया था कि जब कभी युद्ध शुरू होगा तो स्कॉटलैंड के इस अड्डे को तबाह करने के लिए एक खुफिया मिशन भेजा जाएगा और कैप्टन वेहरिंग इस मिशन का पथ-प्रदर्शन करेगा।
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एक दिन एक आदमी ब्रिटेन में प्रवेश किया। उसने अपना नाम एलबर्ट ओर्टल बताया। वह जहाँ भी गया, उसी नाम से उसने अपना परिचय देकर बताया कि वह जिनेवा से आया है और जीविका की तलाश में मारा-मारा फिर रहा है। उसने अपना व्यवसाय घड़ीसाज बताया। कुछ दिन बाद एलबर्ट ओर्टल स्कॉटलैंड के स्कापा बंदरगाह में जा पहुँचा। उसने एक ऊँची जगह पर अपनी दुकान बना ली।
वो दुकान ऐसी जगह पर थी, जहाँ से न केवल बंदरगाह नजर आता था, बल्कि वे तोपें भी नजर आती थी, जो बंदरगाह की सुरक्षा के लिए लगाई गई थीं। उनमें विमान भेदी तोपें भी थीं। वो सब ढँकी-छुपी थी। उस जगह से बंदरगाह का मुहाना भी नजर आता था और साफ-साफ देखा जा सकता था कि नौसैनिक जहाज उसमें से किस प्रकार दायें- बायें घूम-फिरकर गुजरते हैं। उस जगह की एक खूबी यह थी कि वहाँ नौसेना के मल्लाह और अफ़सर रहते थे, जिनसे मित्रता गाँठकर आवश्यक जानकारी प्राप्त की जा सकती थी।
कैप्टन वेहरिंग उर्फ एलबर्ट ओर्टल ने अपने छद्म नाम से घड़ीसाजी की दुकान खोल ली। दुकान का प्रचार किया। वह लोगों में उठने-बैठने लगा और कुछ ही दिनों में एक नेक जिन्दादिल और हँसमुख इंसान के रूप में लोकप्रिय हो गया। उसके ग्राहक बंदरगाह पर काम करने वाले मजदूर, मल्लाह और नौसेना के अफ़सर थे। वह प्रत्येक काम सन्तोषजनक करता था और मजदूरी बहुत कम लेता था। साथ ही वादे के मुताबिक काम करता था। व्यवहार इतना अच्छा कि अफसर उसी के पास जाना पसन्द करते थे। इस प्रकार उसने बहुत से अफसरों को मित्र बना लिया था।
मित्रता में बेतकल्लुफी पैदा हो गई। बेतकल्लुफी गहरी मित्रता में बदल गई। यह वेहरिंग के स्वभाव की जिन्दादिली का ही चमत्कार था। इसका फायदा उसने यह उठाया कि अफसरों को गपशप में लगाकर उनसे भेद की बातें भी मालूम कर लेता था। उसे जो तटवर्ती तोपें नजर नहीं आती थी, उसकी पोजीशन भी वह जान गया था। रात के समय वह नक्शा बनाता और जानकारी एक डायरी में लिख लेता। कभी-कभार बर्लिन से एक आदमी किसी छद्म रूप में उसके पास आता और सारे नक्शे और जानकारी ले जाता।
उस बंदरगाह की सुरक्षा प्रबन्धों में जब भी कोई परिवर्तन होता, उसकी सूचना बर्लिन पहुँच जाती। उधर बर्लिन में वेहरिंग की भेजी हुई जानकारी में वृद्धि होती गई, इधर स्कॉटलैंड के स्कापा तट पर अलबर्ट ओर्टल लोकप्रिय इंसान बनता गया। उसने समुद्र के उस हिस्से की निशानदेही भी कर ली, जिसमें बारूदी सुरंग बिछी हुई थी और जहाँ अन्य बाधाएँ भी थीं।
ब्रिटेन द्वारा द्वितीय महायुद्ध में जर्मनी के विरुद्ध युद्ध की घोषणा होते ही स्कापा के नौसैनिक अड्डे की सुरक्षा प्रबन्धों में और परिवर्तन करके उसे अधिक सुदृढ़ बना दिया गया। वेहरिंग ने अपने हाईकमांड को इन परिवर्तनों से भी अवगत करा दिया और ताजा नक्शा भेज दिया। उसके अनुसार जर्मनी को अपने मंसूबे में परिवर्तन करना पड़ा। संकेत निश्चित कर दिए गए और स्कापा को तबाह करने का मिशन लेकर नौसेना के एक अफसर कैप्टन प्रेन को रवाना किया गया।
कैप्टन प्रेन पनडुब्बी ‘यू-फोर्टी सेवन’ को लेकर समुद्र के नीचे से स्कॉटलैंड की ओर चल पड़ा और रात लगभग 12 बजे पनडुब्बी स्कापा बंदरगाह के निकट पहुँच कर रुक गई। अब पनडुब्बी के कप्तान को तट से संकेत की प्रतीक्षा थी। पनडुब्बी पानी के नीचे से ऊपर उभर आई थी। उसका रंग स्याह था और रात भी अन्धेरी थी। इसलिए वह पनडुब्बी नजर नहीं आ सकती थी। तट से एक बत्ती जलकर बुझ गई। यह वेहरिंग का संकेत था।
कैप्टन प्रेन ने तत्काल पनडुब्बी को डुबकी दी और पानी के अन्दर ही अन्दर उस दिशा की ओर ले गया, जहाँ से उसे बंदरगाह के मुहाने में प्रवेश करना था। यहाँ बारूदी सुरंगों में से सुरक्षित रास्ता भी था। पनडुब्बी उस रास्ते से गुजर कर बंदरगाह में प्रवेश कर गई। स्कॉटलैंड के लोग गहरी नींद में सोए हुए थे, तभी अचानक दिल दहला देने वाले धमाकों से धरती काँप उठी। इससे पहले प्रकाश का संकेत मिलते ही पनडुब्बी में से रबर की एक नौका तट के एक विशेष भाग की ओर भेज दी गई थी।
केवल 12 मिनट के अन्तराल में कैप्टन प्रेन ने बंदरगाह में दो बड़े युद्धक जहाजों को तबाह कर दिया था और बाकी अनेक युद्ध पोतों को भी सख्त नुकसान पहुँचाया था। इससे ब्रितानी नौसेना की कमर टूट गई और उनके अभिमान चकनाचूर हो गए। ब्रिटेन सिर्फ इस अर्थ में भाग्यशाली रहा कि वह एक और विनाशकारी नुकसान से बच गया था। दो दिन पहले तक उस बंदरगाह में ब्रिटिश नौसेना का लगभग पूरा बेड़ा लंगर डाले हुए था और उसे वहाँ से गए हुए बामुश्किल 24 घण्टे भी नहीं गुजर पाया था। अन्यथा एक पनडुब्बी ब्रिटेन के पूरे बेड़े को तबाह कर दी होती।
पनडुब्बी से जो रबर की नौका भेजी गई थी, वह तट पर गई। कैप्टन वेहरिंग, स्कापा का मासूम घड़ीसाज, उस नौका में बैठा। फिर वह नौका उसे पनडुब्बी तक ले गई और पनडुब्बी उसे जर्मनी ले गई। स्कॉटलैंड वाले एक- दूसरे से पूछते रहे कि अलबर्ट ओर्टल नामक वो घड़ीसाज न जाने कहाँ गायब हो गया? वे उसे याद करते रहे, क्योंकि वह उनका घनिष्ठ मित्र था।