आलेख

”दिव्य दृष्टि” श्रीमती माधुरी कर वरिष्ठ साहित्यकार रायपुर छत्तीसगढ

पांच साल की जब मैं हुयी। मेरे पिता(श्री गौरीशंकर पंडा) ने अपने नाम की वर्णमाला थमाई। सोलह साल होते-होते कंठस्त हुई पढ़ाई।

राम जैसा पति मिला। कई बार अग्नि परीक्षा से गुजरती रही। पहले तो भाई पर शक था, अब बेटों का भी नंबर आया। प्रेमचंद की निर्मला याद आई। कहते हैं, गुरू के पास दिव्य दृष्टि होती है।

सीता को गुरू ने ही न्याय दिलाया, पर मेरे गुरूजन सीता शूर्पणखा में अंतर नहीं कर पाए। व्यक्ति जब थकता है, मां की गोद चाहता है। मैंने भी मां की गोद चाही। गोद में बैठने के पहले लखन भाई और विवेक बेटे ने आवाज लगाई। स्नेह ममत्व के विशेष जंजरों में बंधी और फिर सोलह साल का प्यार देने चली आई। मधु नाम पाया, पर मधुशाला के बदले गौशाला पाठशाला में बंध गई।

 

वह रचना तीस साल पहले मैंने लिखी थी। एक बेटा पं. श्री राम शर्मा बहुउद्वेशीय गौ-संरक्षण-संवर्धन ट्रट के माध्यम से गौ सेवा में लगा है। तथा दूसरा बेटा जमशेदपुर एनआईटी में असिस्टेंट प्रोफेसर है। मां प्रथम तथा दूसरा बेटा जमशेदपुर एनआईटी में असिस्टेंट प्रोफेसर है। मां प्रथम गुरू होती है,जिस वृक्षारोपण करने वाले को यह पता रहता है कि वह तो बीज बो रहा है, आगे चलकर अवश्य फलेगा।

 

उसके फल की उपयोगिता कब कहां होगी। वैसे ही हर शिक्षक को पता होना चाहिए कि उसके सानिध्य में आए विद्यार्थी परिवार, समाज के लिए क्या कर सकते हैं। माता-पिता और गुरू को भी इस दिशा में सतर्क रहना चाहिए और बच्चों को सही दिशा और प्रेरणा देनी चाहिए। जैसे विवेकानंद को रामकृष्ण परमहंस ने, शिवाजी को समर्थ गुरू रामदास ने, कृष्ण को संदीपनि ने, राम को विश्वामित्र ने प्रेरणा दी।

 

गुरू शिष्य परंपरा का महत्व सदैव रहा है। जीवन में भटकाव से बचने के लिए शिष्य परंपरा का महत्व सदैव रहा है। जीवन में भटकाव से बचने के लिए मार्गदशक चाहिए। सुफी फकीर बालशाम अपने शिष्यों के साथ नगर भ्रमण को निकले थे। मार्ग में एक व्यक्ति मिला और उसने अपना प्रश्न उनके समक्ष रखा। प्रश्न था- हमें गुरू की आवश्यकता क्यों है? बाल शाम बोले- तुमने चिड़ियों के अंडे देखे हैं? चिड़िया अंडे तभी फोड़ती है, जब अंदर चूजा बड़ा हो गया होता है और किसी को यह पता नहीं होता। वैसे ही सच्चे गुरू को अपने शिष्य के संस्कारों,प्रारब्धों का पूरा ज्ञान होता है, और वहीं सही समय आने पर अपने शिय को सही दिशा दे सकता हे। उस व्यक्ति की शंका का समाधान हो गया।

 

 

भारतवर्ष का आध्यामिक इतिहास ऐसे सौभाग्यशाली शिष्यों और सद्गुरूओं से भरा पड़ा है। विवेकानंद जब अमेरिका में भाषण दे रहे थे, तब एक फोटोग्राफर ने उसका फोटो खींचा पर जब फोटो धूलकर आया तब उसमें एक और व्यक्ति पीछे दिखायी दे रहा था। फोटोग्राफर ने कहा कि मैंने तो केवल आपका अकेला फोटो खींचा, पर एक और व्यक्ति कहां से आया? विवेकानंद ने उसे देखा और कहा कि ये तो मेरे गुरू रामकृष्ण परमहंस हैं। विवेकानंद जब अमेरिका धर्म-सम्मेलन में भाग लेने जा रहे थे तब लोग मजाक उड़ा रहे थे कि यह जरा सा लड़का क्या बोलेगा। परंतु जब उन्होंने शुन्यवाद पर बोलना शुरू किया तो सब हैरान रह गए कि इसके अंदर ये कौन बोल रहा है। विवेकानंद ने कहा कि मैं नहीं मेरे अंदर से मेरे गुरू बोल रहे हैं। मेरे पीछे मेरे गुरू हैं।

पूज्य गुरूदेव पं. श्रीराम शर्मा आचार्य ने कहा है कि नवसृजन योजना महाकाल की योजना है। वह पूरी होती ही है। परिवर्तन का आधार बनेगा चरित्रनिष्ठ,भाव-संवेदना युक्त व्यक्तियों से। ऐसे व्यक्तित्व बनाना विद्या का काम है। आज शिक्षण या साक्षरता से मनुष्य तो निपट स्वार्थी भी बना सकती है।

 

उसमें विद्या का समावेश अनिवार्य है। नवयुग के अनुरूप मनः परिस्थितियां और परिस्थितियां उत्पन्न करने के लिए ऐसे प्राध्यापकों की आवश्यकता है,जिनकी शिक्षा भले ही सामान्य हो पर वे अपने चुंबकीय व्यक्तित्व से, अपने सच्चरित्र से अपने शिष्यों में वांछित विशिष्टताओं को भर देने की विद्या के धनी हों, क्योंकि चरित्रबल राष्ट्र की प्रगति उन्नति का मूल आधार है। चारित्रिक विकास के बिना कोई भी भौतिक सफलता स्थिर नहीं रह सकती। गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने अपना कठोर निर्णय दिया है कि सुख शांति का जीवन शुद्व और उसका प्रत्येक कर्म यज्ञीय भावना के साथ होना चाहिए।

 

जीवन में स्वार्थ के साथ परमार्थ का भी पर्याप्त योग होना आवश्यक है। विद्यार्थी में ईमानदारी के प्रति निष्ठा और विनम्रता का भाव जाग जाए और नशामुक्त जीवन जीने का संकल्प जाग जाए तो वह एक श्रेष्ठ नागरिक बन सकता है। आधारविहीन व्यक्ति विद्वान बन जाने के बाद भी उस प्रतिष्ठा को नहीं प्राप्त कर सकता, जो एक सामान्य सदाचारी व्यक्ति सहजता से प्राप्त कर लेता है। केवल 99 प्रतिशत अंक पाने वाले विद्यार्थी ही योग्य होते हैं, यह सोचना गलत है।

 

साधक की श्रद्वा के साथ गुरू की सामर्थ्य की प्रक्रिया को गुरूदीक्षा कहा जाता है। प्रार्चीन गं्रथों में अगस्त्य, रूपय,जाबाल,परशुराम,वाल्मिीकि,भारद्वाज वशिष्ट नामदेव,विश्वामित्र,व्यास,शौवक,संदीपनी आदि के नाम उल्लेखनीय है। इन आचार्यों ने गुरूकुल में अपने शिष्यों के साथ अपनी संस्कृति एवं जीवन मूल्यों के प्रति समर्पित जीवन जीया।

 

वर्तमान युग चुनौतियों से भरा है। पर्यावरण संकट,शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्यगत समस्याएं,सभ्यताओं का दूत,सांस्कृतिक संकट,अलगाववाद व आतंकवाद की समस्या इत्यादि।

 

इन सभी चुनौतियों से लड़ने के लिए युवाओं को तैयार करने में गुरूओं का दायित्व प्रमुख है। एक तुम्हीं आधार सद्गुरू एक तुम्हीं आधार।। जब तक मिलो न तुम जीवन में, शांति कहीं मिल सकती है मन में।। खोज फिरा संसार।। कैसा भी हो तारनहारा। मिले न जब तक शरण सहारा।। हो न सकका उस पार।। हे प्रभु तुम्हीं विविध रूपों से हमें बताते भव कूपों से।। हो न सका उस पार।। हे प्रभु तुम्हीं विविध रूपों से हमें बचाते भव कूपों से ।। ऐसे परम उदार।। हम आए हैं द्वार तुम्हारे अब उद्वार करो दुखहारे। सुन लो दास पुकार।। छा जाता जग में अंधियारा, जब पाने प्रकाश की धरा आते तेरे द्वार।। एक तुम्हीं आधार।।

 

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