आलेख

‘स्वाधीनता आंदोलन’ में संत गुरू घासीदास की भूमिका” डॉ. रामायण प्रसाद टण्डन वरिष्ठ साहित्यकार,कांकेर छत्तीसगढ़

साहित्यकार परिचय- डॉ. रामायण प्रसाद टण्डन

जन्म तिथि-09 दिसंबर 1965 नवापारा जिला-बिलासपुर (म0प्र0) वर्तमान जिला-कोरबा (छ.ग.)

शिक्षा-एम.ए.एम.फिल.पी-एच.डी.(हिन्दी)

माता/पिता –स्व. श्री बाबूलाल टण्डन-श्रीमती सुहावन टण्डन

प्रकाशन –  हिन्दी साहित्य को समर्पित डॉ.रामायण प्रसाद टण्डन जी भारत के छत्तीसगढ़ राज्य में हिन्दी के स्तंभ कहे जाते हैं। हिन्दी की जितनी सेवा उन्होंने शिक्षक के रूप में की उतनी ही सेवा एक लेखक, कवि और एक शोधकर्ता के रूप में भी उनकी लिखी पुस्तकों में-1. संत गुरू घासीदास की सतवाणी 2. भारतीय समाज में अंधविश्वास और नारी उत्पीड़न 3. समकालीन उपन्यासों में व्यक्त नारी यातना 4. समता की चाह: नारी और दलित साहित्य 5. दलित साहित्य समकालीन विमर्श 6. कथा-रस 7. दलित साहित्य समकालीन विमर्श का समीक्षात्मक विवेचन 8. हिन्दी साहित्य के इतिहास का अनुसंधान परक अध्ययन 9. भारतभूमि में सतनाम आंदोलन की प्रासंगिकता: तब भी और अब भी (सतक्रांति के पुरोधा गुरू घासीदास जी एवं गुरू बालकदास जी) 10. भारतीय साहित्य: एक शोधात्मक अध्ययन 11. राजा गुरू बालकदास जी (खण्ड काव्य) प्रमुख हैं। 12. सहोद्रा माता (खण्ड काव्य) और 13. गुरू अमरदास (खण्ड काव्य) प्रकाशनाधीन हैं। इसके अलावा देश के उच्च स्तरीय प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में, राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय शोध संगोष्ठी सेमिनार में अब तक कुल 257 शोधात्मक लेख, आलेख, समीक्षा, चिंतन, विविधा तथा 60 से भी अधिक शोध पत्र प्रकाशित हैं। आप महाविद्यालय वार्षिक पत्रिका ‘‘उन्मेष’’ के संपादक एवं ‘‘सतनाम संदेश’’ मासिक पत्रिका के सह-संपादक भी हैं। मथुरा  उत्तर  प्रदेश से प्रकाशित मासिक पत्रिका ‘‘डिप्रेस्ड एक्सप्रेस’’ राष्ट्रीय स्तरीय पत्रिका हिन्दी मासिक के संरक्षक तथा ‘‘बहुजन संगठन बुलेटिन’’ हिन्दी मासिक पत्रिका के सह-संपादक तथा ‘‘सत्यदीप ‘आभा’ मासिक हिन्दी पत्रिका के सह-संपादक, साथ ही 10 दिसम्बर 2000 से निरंतर संगत साहित्य परिषद एवं पाठक मंच कांकेर छ.ग और अप्रैल 1996 से निरंतर जिला अध्यक्ष-पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी सृजनपीठ कांकेर छ.ग. और साथ ही 27 मार्च 2008 से भारतीय दलित साहित्य अकादमी कांकेर जिला-उत्तर बस्तर कांकेर छ.ग. और अभी वर्तमान में ‘‘इंडियन सतनामी समाज ऑर्गनाईजेशन’’ (अधिकारी/कर्मचारी प्रकोष्ठ) के प्रदेश उपाध्यक्ष.के रूप में निरंतर कार्यरत भी हैं।

पुरस्कार/सम्मान1-American biographical Institute for prestigious fite *Man of the year award 2004*research board of advisors (member since 2005 certificate received)

2. मानव कल्याण सेवा सम्मान 2005 भारतीय दलित साहित्य अकादमी छत्तीसगढ़ 3. बहुजन संगठक अवार्ड 2008 भारतीय दलित साहित्य अकादमी छत्तीसगढ़ 4. पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी  स्मृति प्रोत्साहन पुरस्कार 2007(बख्शी जयंती समारोह में महामहिम राज्यपाल श्री ई.एस.एल. नरसिंम्हन जी के कर कमलों से सम्मानित। इनके अलावा लगभग दो दर्जन से भी अधिक संस्थाओं द्वारा आप सम्मानित हो चुके हैं।) उल्लेखनीय बातें यह है कि आप विदेश यात्रा भी कर चुके हैं जिसमें 11वां विश्व हिन्दी सम्मेलन मॉरीसस 16 से 18 अगस्त 2018 को बस्तर संभाग के छत्तीसगढ़ भारत की ओर से प्रतिनिधित्व करते हुए तीन दिवसीय अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन में भाग लेकर प्रशस्ति-पत्र प्रतीक चिन्ह आदि से सम्मानित हुए हैं।

सम्प्रति – प्रोफेसर एवं विभागाध्यक्ष, शोध-निर्देशक (हिन्दी) शासकीय इन्दरू केंवट कन्या स्नातकोत्तर महाविद्यालय कांकेर, जिला-  कांकेर (छत्तीसगढ़) में अध्यापनरत हैं। तथा वर्तमान में शहीद महेन्द्र कर्मा विश्वविद्यालय बस्तर जगदलपुर छत्तीसगढ़ की ओर से हिन्दी अध्ययन मण्डल के ‘‘अध्यक्ष’’ के रूप में मनोनित होकर निरंतर कार्यरत भी हैं।

सम्पर्क  –मकान नं.90, आदर्श नगर कांकेर, जिला-  कांकेर, छत्तीसगढ़ पिन-494-334 चलभाष-9424289312/8319332002

अंतर्राष्टीय संगोष्ठी दिनांक 06 से 08 अगस्त 2022  काे वाचन के लिए तैयार आलेख

‘स्वाधीनता आंदोलन में आध्यात्मिक संत गुरू घासीदास की भूमिका”

भारत देश अपनी स्वतंत्रता का अमृत महोत्सव मना रहा है। खुशी की बात है कि 15 अगस्त 2022 को स्वाधीनता के 75 वां वर्ष पूर्ण हो जायेंगे। हम भारत वासियों के लिए यह महत्वपूर्ण है कि हम भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के समूचे विचार को ‘स्व’ की दृष्टिकोंण से देखें, जिसमें हमारे लोगों को बहुविध प्रेरित करने का सामर्थ्य है और जो संम्भत हमारे दौर के लोगों के सामने अपना सही अर्थ व्यक्त करेगा। 

 

हमारे लिए उत्साह की बात यह है कि आज जिस आजाद भारत में हम अपना आजाद जीवन जी रहे हैं उसमें हमारे देश के रण बांकुरों सहित साहित्यकार, कलाकार, पत्रकार, संताें महंतों, महापुरूषों और हमारे आध्यात्मिक गुरूओं ने भी जो योगदान दिया उसे हम भुला नहीं सकते। इन्हीं योगदान के तहत मैंने अपने शोध आलेख में ऐसे महान संत गुरू घासीदास जी के योगदान को रेखांकित करना चाहता हूं कि जिसने भारतीय स्वाधीनता आंदोलन में सामाजिक योगदान के अलावा गुरू घासीदास ने राजनैतिक क्षेत्र में भी अपना महत्वपूर्ण भूमिका निभाई  है जिनको हमारे इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है।

 

सामाजिक और आध्यात्मिक क्षेत्र में अपना योगदान देते हुए इन्होंने पराधीन भारत में अंग्रेजों की आततायी और अन्पायी शासन व्यवस्था के खिलाफ भी 1820 से 1830 के बीच मुखर स्वर में अन्याय और अत्याचार के खिलाफ महत्वपूर्ण संघर्ष किया। जिसे भुलाया नहीं जा सकता।

 

छत्तीसगढ के सभी लोग मराठों के आतंक के बाद 1806 ई0 में छत्तीसगढ   में पिण्डारियों की लूट खसोट प्रारंभ हुई। सबसे पहले उन्होंने रतनपुर पर धावा बोला। इसके बाद इनके आक्रमण बढते गए। ये पिण्डारी अपने शिकार की खोज में बराबर रहते थे तथा प्राय अंचल के आडा-तिरछा पार करते रहते थे। इनके भय से लोग घरों से बाहर नहीं निकलते थे। छत्तीसगढ में पूरी तरह विचरण करके 1810 के बाद ये पिण्डारी यहां से चले गए।

 

ऐसा इसलिए कि उनसे पूर्व ही छत्तीसगढ पूरी तरह मराठों के द्वारा लूट लिया गया था। और उनके बाद पिण्डारियों के लूटने के लिए कुछ बचा ही नहीं था। ब्रिटिश उपनिवेश वादियों ने पिण्डारियों के मामले में हस्तक्षेप नहीं किया। वे चाहते थे कि सूबा-शासन अधिकाधिक बदनाम हो, जिससे जनता कालांतर में उनके पक्ष में हो जाय।

 

छत्तीसगढ में मराठा-सूबेदारों का प्रशासन इकत्तीस वर्षो (1787-1818) तक था। इसी अवधि में गुरू घासीदास युवावस्था से वृद्धावस्था में घोर पीडा से गुजर रहे थे। अराजकता की स्थिति से संपूर्ण छत्तीसगढ अवसादग्रस्त था। छत्तीसगढ की राजसत्ता की शक्ति इतना बंट चुकी थी कि आंचलिक राजनैतिक नेतृत्व की स्थितियां ही नहीं थीं। गुरू घासीदास के मन में जो आग थी, वह उन्हें कहीं स्थिर नहीं कर रही थी। अंत में सन्यास के माध्यम से राजसत्ता को चुनौती देने का संकल्प बनाया।

 

मराठा सूबेदारों की राजनैतिक सोच को गुरू घासीदास के समकालीन एग्न्यू (1820) ने विस्तार के साथ लिखा है।
1787 ई0 में भोसला की मृत्यु के बाद छत्तीसगढ में नागपुर से सूबेदारों की नियुक्ति होने लगी। प्रथम सूबेदार रघोजी द्वितीय अत्यंत लोभी थे। उनके भाई व्यंकोजी (1789-1811) जब छत्तीसगढ के सरदार बने, तो उनके संबंध रघोजी द्वितीय से शत्रुतापूर्ण हो गया थें। व्यंकोजी ने रघोजी द्वितीय को नीचा दिखाने के लिए ब्रिटिश अधिकारियों से साठगांठ कर ली थी।

 

उन्हीं के काल में ब्रिटिश यात्रियों और मिशनरियों का आवागमन प्रारंभ हो गया था। वे मराठा-शासन की गोपनीयता को ब्रिटिश अधिकारियों तक पहुंचा रहे थे। यही स्थिति उनके पुत्र अप्पासाहब (1811-1816) की भी थी, जो छत्तीसगढ के सूबेदार थे। श्रीधर पंडित, जसवन्तराव, रामचंद्र, नागो पंडित अप्पा साहब के मंत्री थे और अपने स्वामी मराठों के खिलाफ साजिश रचने के लिए इन्हें ब्रिटिश अधिकारियों से पुरस्कार मिलता था। (एसएनआरआर,वोल-3 पीवी) इससे यह अंदाजा लग सकता है कि राजपरिवार से लेकर मंत्रियों तक समूची मराठा सरकार लक्ष्यविहीन थी।

 

ईमानदारी का अभाव था। आपसी एका नहीं थी। निष्कपटता की कमी थी। किसी की किसी के प्रति वफादारी नहीं थी। ऐसी स्थिति में सूबा सरकार एक ईमानदार और मजबूत सरकार नहीं दे पायी। और छत्तीसगढ का आम आदमी अनिश्चय की स्थिति में रहस्यात्मक होता गया। गुरू घासीदास भी इसी रहस्यात्मकता के दौर से होकर गुजरे थे।
ऐसी अस्तव्यस्त स्थिति में कानून और व्यवस्था बिगडनी ही थी। दुराचारी लोगों का साम्राज्य हो गया।

 

हमें ज्ञात होता है कि गुरू घसीदास से सम्बद्ध सोनाखान की जमींदारी के बिंझवारों के हमलों से लोवान, सिरपुर, खल्लारी तथा रायपुर के पूर्वी परगनों की समृद्धि पर बुरा असर पडा था तथा वहां के गांव के गांव उजाड हो गए थे। इस अंचल में बर्बादी का यह आलम था कि लोवान, सिरपुर तथा खल्लारी की आमदनी जो 1563 ई0 में 63, 160 रूपये थी, वह 1817 ई0 तीन या चार हजार तक सीमित हो गयी (एसएनआरआर,वोल-3 पीवी)। क्षेत्र के विनाश के लिए और भी अनेक कारण जुडते गए। यह ध्यान देने योग्य है कि गुरू घासीदास के काल में उन्हीं की जमींदारी के बिंझवारों का पूरे  छत्तीसगढ  में बहुत अधिक आतंक बढ गया था।

 

इसी बीच राजनैतिक परिस्थितियां बदलीं। सर्वप्रथम 1817 ई0 में अंग्रेजों ने पेशवा को पूना में एक दूसरी संधि पर दस्तखत करने के लिए विवश कर दिया। छत्तीसगढ के सभी मामलों का संचालन ब्रिटिश रेजिडेण्टल के जरिये करने का दायित्व ग्रहण किया। लेकिन नागपुर के अप्पासाहेब ने विद्रोह कर दिया। इस स्थिति में अंग्रेजों ने मराठों के खिलाफ 120 हजार सैनिकों के साथ अपना विजय’युद्ध शुरू किया। सीताबर्डी की इस लडाई में अप्पासाहेब पराजित हुए तथा 15 मार्च 1818 को गिरफतार कर लिए गए। भारत की विजय में मराठों का आधुनिकीकरण उपनिवेशवाद के प्रारंभ का प्रथम चरण था। अंग्रेजों ने अत्यधिक चालाकी बरतते हुए अप्पासाहेब के बाद अवयस्क रघोजी तृतीय को 18 जून 1818 को नागपुर की गद्दी पर बैठाया और अवयस्कता के बहाने इस अंचल के संरक्षक (1818-1830) बन बैठे।

 

सूबेदारी व्यवस्था के स्थान पर बारह वर्षौ तक कैप्टन एडमण्ड्स (1818-1818), मेजर एग्न्यू (1818-1826), कैप्टन हण्टर (1825), कैप्टन सण्डेस (1825-1828), कैप्टन विलकिंसन, तथा कैप्टन क्राफो्रर्ड (1830) नामक ब्रिटिश सेनाधिकारी छत्तीसगढ पर शासन करते रहे। कैप्टन एड्मण्ड्स के काल तक मुख्यालय रतनपुर ही था, किन्तु एग्न्यू के साथ ही मुख्यालय रायपुर बना। मुख्यालय बदलने के पीछे निहितार्थ था. क्योंकि इसमें रतनपुर के सात सौ वर्षो के राजनैतिक जीवनकाल की समाप्ति के स्वर भी निहित थे।

 

विजय के वर्षो में अंग्रेजों ने छत्तीसगढ के सामंतो के खजानों की लूट से प्राप्त अपार संपदा का स्वदेश को निर्यात किया। मिशाल के तौर पर एग्न्यू के सैनिकों ने डोंगरगढ पर चढाई कर हीरे-जवाहरातों से अपनी जेबें भर ली थीं। सोनाखान के बिंझवार-नरेश को ही नहीं, उनकी पूरी जमींदारी को ही जलाकर राख कर दिया, जिसके वासिंदे गुरू घासीदास थे। जमींदार को ‘‘मीक’’नामक एक अंग्रेज ने खरीद लिया था।

 

धमधा के गोंड राजा के पूरे परिवार का अन्त करवा दिया, जिससे कि वहां की जनता में त्राहि-त्राहि मच गयी (ग्राण्ट 1870)। 01 मई 1828 ई0 से ग्रेगोरियन कैलेण्डर को लागू करने के साथ ही एग्न्यू ने औपनिवेशिक राजस्व का मुख्य स्त्रोत किसानों से प्राप्त भूमि-कर था। औपनिवेशिक संस्कृति के लिए छत्तीसगढ के दरवाजे खोल दिए (एसएनआर,वोल,4,पी,250,डेटेड 15,5,1828,लेटर नम्बर 32)। ईसाईयत का तेजी के साथ प्रचार होने लगा। अंग्रेजी अपनी उपस्थिति दर्ज कराने लगी।

 

ब्रिटिश सत्ता के मजबूती से स्थापित हो जाने के बाद शोषण की दूसरी अवस्था शुरू हुई। औपनिवेशिक राजस्व का मुख्य स्त्रोत किसानों से प्राप्त भूमि-कर था। औपनिवेशिक सत्ता ने सूबेदारी व्यवस्था की खामियों को बताते हुए व करों के सरलीकरण की प्रक्रिया को दुहाई देते हुए अधिक से अधिक भूमिकर वसूल किया। सूबेदारी व्यवस्था में सभी राजस्व-प्रणालियों में उतार-चढाव आता रहता था। औपनिवेशिक सरकार के कारण छत्तीसगढ के किसानों की स्थिति सूबेदारीकाल से भी बदतर हो गयी।

 

इन समूची अव्यवस्थाओं से पीडित होकर गुरू घासीदास ने आध्यत्मिक क्रांति के मार्ग को चुना और 1820 ई0 में आत्मबोध की स्थिति में वे छत्तीसगढ की अस्मिता के लिए छत्तीसगढी जनता को जगाने लगे। यही कारण है कि गुरू घासीदास की क्रांति के उद्घोष का यह स्वर 1820 से 1830 के बीच अधिक मुखर हुआ है। इस तथ्य को चीशोल्म (1868) तथा ग्राण्ट (1870) ने स्वीकार किया है। अंग्रेज-प्रशासक यह चाहते थे कि गुरू घासीदास का उक्त आंदोलन सामाजिक दूरियों के प्रसार का कारण बने। यही कारण है कि उनकी सभी रचनाओं में गुरू घासीदास के सतनाम-आंदोलन को अपमान जनक संबोधन से जोड दिया गया है।

 

एग्न्यू चाहता था कि गुरू घासीदास उक्त आंदोलन को उच्च जाति के विरूद्ध निम्न जाति के आक्रोश में बदल दें। किन्तु गुरू घासीदास जैसे मनीषी को यह अनुभव था कि समरसता के बिना छत्तीसगढी समाज की रचना नहीं हो सकती। इसीलिए अंग्रेजों के लाख प्रयासों के बावजूद वे केवल दलितों, पीडितों और शोषितों के ही मसीहा नहीं थे, अपितु संपूर्ण छत्तीसगढ के जन मानस के मसीहा थे। उन्होंने सामंतवाद और उपनिवेशवाद के खिलाफ एक बौद्धिक संघर्ष प्रारंभ किया था। उन्नीसवी शताब्दी के तीसरे दशक तक गुरू घासीदास का आंदोलन इतना प्रचंड था कि 1830 ई0 तक अंग्रेजों को यहां से हटना पडा तथा 6 जून 1830 से गुरू घासीदास की मृत्यु (1850) र्प्यन्त देशी शासन की नींव पुन:  डालनी पडी।

 

इतिहासकार इस तथ्य को आरेखित नहीं कर सके कि गुरू घासीदास प्रारंभ से ही छत्तीसगढ की अस्मिता और अस्तित्व के लिए किस प्रकार संघर्ष करते रहे हैं। मराठों की सूबेदारी की अव्यवस्था से उद्विग्न होकर उन्होंने छत्तीसगढ की मुक्ति का क्या उपाय खोजा और 1820 ई0 में सम्बोधि की स्थिति में अंग्रेजों के कठोर अनुशासन के काल में भी उन्होंने छत्तीसगढ को किस प्रकार जगाया और 1830 ई के बाद अंग्रेजों ने पुन देशी शासन का मार्ग क्यों अपनाया ? पूरी एक शताब्दी तक गुरू घासीदास बाहरी तत्वों से संघर्ष करते रहे।

 

देशी शासन (1830-1854) व्यवस्था को पुन लौटाने में अंग्रेजों की चाहे जो भी नीति रही हो, उसमें आध्यात्मिक संत गुरू घासीदास के मुक्ति-संग्राम के प्रभाव को नहीं भुलाया जा सकता। देशी शासन के प्रथम सूत्रधार थे कृणाराव अप्पा। उनके प्श्चात् क्रमश अधोलिखित जिलेदार या सूबेदार नागपुर राज्य की ओर से छत्तीसगढ पर शासन रहे-1. अमृतराव, 2. साधूदीन, 3. दुर्गा प्रसाद, 4 सखाराम बाबू 5 गोविन्द राव 6. व्यंकट राव 7 गोपालराव आध्यात्मिक संत गुरू घासीदास का निधन गोपाल राव के कार्यकाल में हुआ था।

 

गुरू घासीदरास के प्रभाव से यद्यपि अंग्रेज प्रत्यक्षतौर पर छत्तीसगढ के राजनैतिक परिदृश्य से हट गए थे, किन्तु परोक्ष तौर पर ब्रिटिश शासन ही हावी था। छत्तीसगढ के कलचुरि शासन के पतन के कारण राजनैतिक अस्थिरता और अराजकता का दौर 1741 ई0 से 1854 ई0 तक चलता रहा। इस दौर में ही गुरू घासीदास का संपूर्ण जीवन बीता था। यह एक भयंकर संक्षोभ का दौर था, जिसका राजनैतिक नेतृत्व सोनाखान के बिंझवार कर रहे थे और आध्यात्मिक नेतृत्व का बीड था। उसी जमींदारी के गिरौद-निवासी गुरू घासीदास ने उठाया था। आध्यात्मिक संत गुरू घासीदास सही मायनों में एक क्रियावादी महानपुरूष और आध्यात्मिक संत थे। उन्होंने बहुत सोच-समझकर पहले हिंसक क्रांति और बाद में अहिंसक आध्यात्मिक क्रांति का मार्ग अपनाया था।

 

कलचुरि-शासनकाल में रतनपुर संस्कृति और धर्म का प्रमुख केन्द्र था। 1820 के बाद रायपुर सांस्कृतिक और धार्मिक क्रियाओं का केन्द्र बन गया। बाद में इन दोनों ही केन्द्रों के मिलन के साथ ही धार्मिक और सांस्कृतिक समीकरण की स्थिति बनी थी। कलचुरि शासन के पतन के पश्चात् आने वाले मराठों तथा अंग्रेजों ने नगरों में ही बसना प्रारंभ किया था। इसलिए नगर सभ्यता को पहली बार बहुत महत्व मिल रहा था। यद्यपि ग्रामीण अंचलों की अपनी स्वायत्ता थी, किन्तु वे कर आदि अदायगी के लिए नगर-केन्द्रित शासन से जुडे।

 

गांव कुछ समय तक धर्म की मूलभूत ईकाई बने रहे। प्रत्येक गांव की अपनी शिल्प रचना थी और शिल्प के आधार पर जातीय संरचना भी भिन्न-भिन्न थी। उसी के अनुसार जीवन यापन कर रहे थे। संत गुरू घासीदास एक कृषक परिवार से थे और एक कृषक अर्थात् श्रमण संस्कृति से ताल्लुक रखने के कारण शोषितों और पिछडाें का समाज की दशा कमजोर थी। लेकिन आध्यात्मिक संत गुरू घासीदास ने 1820 से 1830 के मध्य पूरी ताकत से छत्तीसगढ समाज की अस्मिता और अस्तित्व के लिए कडा  संघर्ष किया। चाहे वह आंतरिक हो या वाह्य दोनों से लडते हुए उन्होंने अंग्रेजाें की मंसूबों को कामयाब नहीं होने दिया।

 

जिसका वास्तविक और आंखो देखा इतिहास अंग्रेजी लेखक एग्न्यू और ग्रांट ने किया है। अंग्रेजाे  ने देखा था कि आध्यात्मिक संत गुरू घासीदास अति ही मजबूत व्यक्तित्व के धनी होने के साथ-साथ सामाजिक, राजनैतिक और सतनाम आंदोलन के अगुवा सक्षम नेतृत्व कर्ता थे जिन्होंने छत्तीसगढी. जनता की अस्मिता और अस्तित्व को बचाया था। और छत्तीसगढ की धरती को अहिंसक और शांतिमय वातावरण प्रदान किया था। जिसका सुपरिणाम हमें आज भी देखने को मिलता है।

 

ब्रिटिश औपनिवेशिक शक्ति की नजरें छत्तीसगढ. पर अठारहवीं शताब्दी (1795 में ब्लंण्ट के आगमन) से ही रही हैं। सतनामी-विद्रोह (1820-1830) छत्तीसगढ. के इतिहास में एक महत्वपूर्ण घटना है। उसने ब्रिटिश-शासन के सामाजिक आधार की आपेक्षिक कमजोरी को प्रकट किया। ब्रिटिश-पूंजीपति वर्ग ने छत्तीसगढ. के प्रशासनतंत्र को मजबूत करने और इसे नई ऐतिहासिक परिस्थिति के अनुकूल बनाने के लिए 1818 ई0 से शासनप्रणाली में महत्वपूर्ण परिवर्तन किया।

 

छत्तीसगढ. की स्थिति औपनिवेशिक दास की हो गयी। अनेक औपनिवेशिक सिद्दान्तों का तेजी के साथ विकास हुआ। उनकी नीति थी कि सतनामी-आंदोलन को हिन्दुओं के खिलाफ मोड. कर उसे ईसाइयत की प्रतिकृति बना दिया जाय। रसेल तथा हीरालाल (1916, खण्ड 1,पृष्ठ 316) के अधोलिखित कथन से उनके इरादे साफ जाहिर होते हैं।-‘‘निष्कर्ष में कहा जा सकता है कि दलितों में ईसाइयत के फैलाव के लिए सतनामी आंदोलन एक तरह से प्रतिकृति है, क्योंकि ईसाई दलित यह आशा करता है कि वह हिन्दुत्व के सामाजिक बंधनों से मुक्त हो सकता है। साहब बन सकता है।’’ इसी प्रकार (ग्राण्ट 1870, 103) के अधोलिखित कथन से ब्रिटिशों की दूरदृष्टि का अंदाजा लगाया जा सकता है, जिसके तहत वे भारतीय समाज को तोडना चाहते थे-

‘’ THERE IS NO CLASS MORE LOYAL AND SATISFIED WITH OUR RULE THAN THIS SATNAMI COMMUNITY] AND IF IT SHOULD HAPPEN THAT] LIKE KOLS] THEY ARE FAVOURABLY IMPRESSED WITH MISSIONARY TEACHING] A TIME MAY COME WHEN THEY WILL BE A SOURCE OF STRENGTH TO OUR GOVERNMENT.’’

 

इस तरह स्वाधीनता आंदोलन में आध्यात्मिक संत गुरू घासीदास व उनके अनुयायिओं ने मिशरियों के उपदेश से कभी प्रभावित नहीं हुए और अंग्रेजों के प्रलोभन के बावजूद उन्होंने यह बेहतर समझा कि हिन्दू धर्म और समाज में ऐसे संशोधन किए जायं जो बदली हुई परिस्थितियों के अनुसार समतावादी समाज की रचना में सहायक हों।

 

आज इस बात पर विवाद नहीं हो सकता है कि छत्तीसगढ में सतनामी बनाम हिन्दू का भेदभाव 1860 ई0 में बालकदास की हत्या के बाद पनपा। यह अलग बात है कि अंग्रेजों ने हत्या का दोष आरोप हिन्दुओं पर मढ दिया किंतु यह भी सच लगता है कि गुरू बालकदास की हत्या सामंतवादी सवर्णो ने ही किया है। और इस तरह छत्तीसगढ में सतनामियों और सवर्णो दोनों में दूरियां पनपने लगीं।

 

अंग्रेजों ने यहां के दलितों-पीडितों को बार-बार यह अहसास दिलाया कि छत्तीसगढी परंपरा और संस्कृति घटिया है और उनका कल्याण ईसाइयत अर्थात् ईसाई मत में ही हो सकता है। किंतु प्रखर चिंतक और स्वाधीनता आंदोलन के अगुवा महानायक संत गुरू घासीदास पर ऐसे प्रलोभनों का कोई असर नहीं पडा। वे छत्तीसगढी जनमानस में आज भी जीवित है, क्योंकि संकट की घडी में आध्यात्मिक संत गुरू घासीदास ने छत्तीसगढ को नई पहचान दी। स्वाधीनता आंदोलन के नेतृत्वकर्ता के रूप में इस महानायक ने अपनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा की थी, किन्तु इतिहासकारों ने इतिहास के पन्नों से इस महानायक को गायब तो नहीं कर सके किंतु उन्हें हासिए पर जरूर रख दिए।

 

गुरू घासीदास आधुनिक भारत के नैतिक, सामाजिक, धार्मिक तथा आध्यात्मिक जागरण के एक महान शिल्पी थे। आज भी उनके द्वारा प्रवर्तित सतनाम के सिद्दांत छत्तीसगढ के लाखों सतनामियों और सर्व मानव समाज के लिए एक लिए मार्गदर्शक हैं।

 

संत गुरू घासीदास बहुत ही कठिन तपस्या से होकर गुजरे थे और परमात्मा की अनुभूति से वे अवतार की श्रेणी में आ गए। निरक्षर गुरू के अनुभव में वेदांत का निचोड है, जिसे ‘‘पंथी गीतों’’ के माध्यम से समझा जा सकता है। उन्होंने 1820 ई0 में छत्तीसगढी में दैवी संदेश को प्रस्तुत कर छत्तीसगढी को ‘‘देवभाषा’’ का दर्जा प्रदान कर दिया। जिस प्रकार मूसा ने ‘‘ओल्ड टेस्टामेण्ट’’ में दस सूत्र दिए थे, उसी प्रकार आध्यात्मिक संत गुरू घासीदास ने छत्तीसगढी में जनता को ‘‘सात सूत्र’’ दिए थे। उनके इन सूत्रों के ही कारण छत्तीसगढी जनता ने सामन्तवाद तथा उपनिवेशवाद का डटकर मुकाबला किया था।

 

छत्तीसगढ की अस्मिता और अस्तित्व के लिए स्वतंत्रता आंदोलन के नेतृत्वकर्ता अगुवा छत्तीसगढ के प्रथम आध्यात्मिक संत गुरू घासीदास जीवन भर अहिंसक रूप में संघर्ष करते रहे। स्वाधीनता आंदोलन के पुरोधा दलितों-शोषितों-पीडितों के मसीहा आध्यात्मिक संत गुरू घासीदास एक उच्च आध्यात्मिक विरासत के वि़द्मान होने के बावजूद दलितों-शोषितों का आज भी आर्थिक, राजनैतिक, शैक्षिक, धार्मिक, मानसिक और सामाजिक शोषण के शिकार थे और आज भी हैं।

 

उनका जीवन गुलामों से भी बदतर हो गया था। उन्होंने अपनी आत्मा को मार डाला था और मानवीय सम्मान को पूरी तरह भूल गए थे। दलितों, शोषितों और पीडितों के राजनैतिक, प्रशासनिक, सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक, नैतिक तथा आध्यात्मिक उत्थान के लिए संत गुरू घासीदास ने अपने जीवन में एक लम्बा अहिंसक संघर्ष (1820-1830) किया था और इस रूप में भारत के स्वाधीनता आंदोलन के वे अग्र पंक्ति के पुरोधा थे। भारतीय समाज में उनके जैसा आज तक शोषितों-दलितों, पिछडाें का कोई मसीहा पैदा नहीं हुआ।

 

छत्तीसगढ के इतिहास में घटित और उल्लेखित यह एक महत्वपूर्ण घटना है कि गांधी के इस सत्य, अहिंसा और मानवता के सिद्दातों से स्पष्ट होता है कि-‘‘गांधी जी का छत्तीसगढ आगमन के दौरान उनकी भेंट पं. सुन्दर लाल शर्मा से हुई। सुंदरलाल शर्मा ने छत्तीसगढ के महान मानवतावादी संत गुरू घासीदास जी के ‘‘सतनाम’’ के सिद्धांतों से अत्यधिक प्रभावित होकर संत गुरू घासीदास को अपना प्रथम गुरू मानते हुए देश की आजादी की लडाई लड रहे थे। इसी दौरान गांधी जी छत्तीसगढ की दौरा में आए थे। गांधी जी पं.सुन्दरलाल शर्मा को अपना प्रेरणा स्त्रोत और गुरू माना और इसी दौरान पं. शर्मा के साथ भण्डारपुरी भी गए थे जहां गुरू घासीदास के द्वितीय पुत्र गुरू बालकदास जी के द्वारा निर्मित भव्य गुरूद्वारा का भी दर्शन गांधी ने किया था।

 

जिसमें संत गुरू घासीदास जी के तीन बंदर आंख बंद किया हुआ और दूसरा बंदर कान बंद किया हुआ तथा तीसरा बंदर अपना मुंह बंद किया हुआ था। जिसका आशय था कि-‘‘बुरा मत देखों, बुरा मत सुनों और बुरा मत कहो।’’ के इस सिद्धांत को महात्मा गांधी ने अपने जीवन में पूर्णत अंगीकार किया है। 1920-1930 के दौरान गांधी जी छततीसगढ आए थें तब उन्होंने संत गुरू घासीदास जी के सतनाम के सिद्धांत को गांधी ने जीवन में अपनाकर गुरू घासीदास को अपना प्रेरणास़्त्रोत और गुरू भी माना है। हम कह सकते है कि आज भी अहिंसा और सत्य का मार्ग संपूर्ण मानवता के लिए अनुकूल प्रतीत होता है। और सत्य, अहिंसा का मार्ग आज भी हम सबके लिए संपूर्ण मानवता के लिए बहुत ही प्रासंगिक भी है।

 

भारतीय इतिहास में इस सफल ‘अधरोत्तर’ (उलट-पलट) या सफल सामाजिक और राजनैतिक सतक्रांति का यह पहला और अंतिम उदाहरण है। खेद का विषय है कि मानवता के महानायक और स्वाधीनता आंदोलन के नेतृत्वकर्ता आध्यात्मिक संत गुरू घासीदास के इस महत्वपूर्ण ऐतिहासिक घटना को लिपिबद्ध नहीं किया गया। इस महान घटना को अंग्रेजों ने अपने इतिहास में उल्लेखित किया किन्तु लगता है अब तक भारतीय इतिहासकार इसे समझ नहीं सके या फिर समझकर जान बुझकर नजरअंदाज किया गया है।

संदर्भ ग्रंथ-

1 शुक्ल डॉ हीरालाल-गुरू घासीदास संघर्ष समन्वय और सिद्धांत म0प्र हिन्दी ग्रंथ अकादमी भोपाल 1995

2. टण्डन, डाॉ रामायणप्रसाद टण्डन-स्वतंत्रता आंदोलन में आध्यात्मिक गुरू घासीदास का योगदान सतनाम संदेश पत्रिका 1918 अंक 5 पृ016-17 एवं सशक्त हस्ताक्षर 2022 प्रकाशित।

3. त्रिवेदी सुशील-छत्तीसगढ मित्र, मासिक शोध पत्रिका वर्ष 2018 में प्रकाशित पृष्ठ-24-25

4.भास्कर डी के-डिप्रेस्ड एक्सप्रेस मासिक राष्टीय राष्टीय पत्रिका मथुरा (उत्तरप्रदेश) वर्ष 2022 पृ0 23-24

 

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