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वधु की साड़ी का अक्षत आज कहां? श्री मनोज जायसवाल संपादक सशक्त हस्ताक्षर छ.ग.

. अतीत में गंगा दशहरा पर अपनी सासु मां को प्रदान करती थी।

(मनोज जायसवाल) देश के अन्य प्रदेशों के साथ छत्तीसगढ़ में विवाह अवसर पर अनेकानेक परंपराएं है। छत्तीसगढ़ के विवाह परंपराओं में मंगरोहन की अपनी विशिष्टता है। जहां विवाह अवसर पर घर की द्वार में जहां विवाह होना है दो बांसों का मंडप बनाया जाता है। बांस को आंगन की मिट्टी खोदकर गड़ाया जाता है। इन्हीं बांसों के पास मिट्टी के दो कलश रख दिया जाता है, जिसमें जिसे प्रज्जवलित किया जाता है।

उन्हीं बांसों के साथ नीचे जमीन से लगाकर आम, डुमर, गूलर या खदिर की लकड़ी की एक मानव कृति बनाकर रख दी जाती है। बांसों के साथ दोनों आकृतियां स्थापित की जाती है। इन्हीं आकृति वाली लकड़ी को जो मानव की होती है,उसे ही मंगरोहन कहा जाता है। इसके बगैर विवाह संस्कार पूरे नहीं होते। सीधे रूप में कहें तो मंगरोहन विवाह संस्कार के साथ सात फेरों का साक्षी होता है।

विवाह के समय होने वाले अपशकुन को मिटाने के टोटका के रूप में भी संभवतया इसे प्रयोग किया जाता है। मंगरोहन एक वह काष्ठ की आकृति है,जिसके सामने साक्षी मानते हुए ही विवाह संस्कार करवाये जाते हैं। छत्तीसगढ़ में मंगरोहन गीत इसी पर आधारित है। महाभारतकालीन किवदंतियां भी है। विवाह अवसर पर कन्या की साड़ी की पल्लू और वर के फेंटा धोती या दुपट्टे में अक्षत सुपाड़ी,फुल,सिक्का,दूर्वा पांच चीजें रखकर जो गांठ बांधा जाता है, जीवन में इन पांच चीजों का खासा महत्व है।

इसे खोलते समय भी परिवार के विशिष्ट रिश्तों का महत्व होता है। ऐसे ही गांठ न बांधे जाते न खोले जाते। कन्या अपनी साड़ी में सामने की भाग पर अक्षत यानि हल्दी से रंगे चावल लटकाये होती है,जो वर पक्ष के यहां विवाह संपन्न होते समय सात फेरों के समय भी दिखायी देता है।

महत्वपूर्ण बात कि अतीत से चली आ रही परंपरा के मुताबिक इस चांवल को गंगा दशहरा के पुण्य पर्व पर लड़की अपनी सासु मां को प्रदान करती है। इससे पूर्व उस चावल को एक पात्र में रखकर रखा जाता था। लेकिन आज के आधुनिक समय में शायद यह परंपरा लुप्त हो गयी है। लगता है आज मंगरोहन स्थल पर या कहां डाल देती है यह पता करने की किए जाने पर भी पता नहीं चला।

लेकिन जो जानकारी मिली उसमें पास रखे अक्षत पात्र में ही पुनः मिला दिये जाने की जानकारी मिली। वैसे भी इस परंपरा का ख्याल ही नहीं रखा जा रहा तो पता कैसे चलेगा? लेकिन इतना तो तय है कि परंपरा अब नहीं रही तो ससम्मान कहां रखा जाता है। आज के युग में तो जैसे ही विवाह संपन्न होता है फोटो शूट में लग जाते हैं। हां लकड़ी की जो मानवाकृति बनायी जाती है वह निश्चित रूप से गंगा दशहरा पर नदी या तालाब में विसर्जित किए जाते हैं।

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