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अपनत्व नहीं तो प्यार कहां? मनोज जायसवाल संपादक सशक्त हस्ताक्षर कांकेर छ.ग.

(मनोज जायसवाल)
लाख कहें वो तो हमारे दिलों में है,कहने वाली बात ही होगी। अपनत्व का भाव तो आभासी अहसासों में ही नहीं वरन भौतिक मुलाकातों में निहीत है। कहने के नाम बड़ी-बड़ी बातें जरूर पर यह कोरी मिथ्या के अतिरिक्त कुछ नहीं है। जिसमें जिनके प्रति अपनत्व और स्नेह का भाव होता है,उनकी फिक्र जरूर उन्हें सताती रहती है। साहित्य एवं कला संगीत जगत के साथियों के पास अपनत्व भाव का जो कद्र है,शायद आम रोजमर्रा में उस जिंदगी में नहीं है,जहां पैसों के लेनदेन के नाम समय गुजरती है। अपनत्व के नाम उनके कुछ अत्यंत नजदीकी रिश्ते।

शुन्य हो चुकी वैचारिक विचार शुन्यता के बीच रूहों के एहसास की परिकल्पना भी बेमानी। मस्तिष्क पटल में सिर्फ और सिर्फ किसी व्यवसाय के नाम फायदा और घाटे की बात! हितवाद की नीति के चलते इनके तकलीफों पर दूर-दूर तक अपनों को ढूंढती आंखे पथरा जाती है,लेकिन अपने कम ही मिलते हैं।

अपने तकलीफों के मौकों पर दूसरों के सहयोग लेने वाले और समय गुजरने के बाद भूला देने वाले इन स्वार्थी लोगों का हश्र ऐसा ही होता है, अपनत्व का भाव यदि इनके अंदर होता तो ये स्थिति परिस्थतियां कुछ और होती। अपनत्व के भाव को पूरी गंभीरता से समझना ही होगा। अपनों की तो फिक्र होना ही अपनत्व भाव का मजबूत आधार है।

ज्यादा दिनों तक भौतिक मुलाकात नहीं होना, बातचीत न होना फिक्र पैदा करता है। यही फिक्र लोगों को एक दूसरे से मेल मिलाप के लिए बाध्य भी जहां मेल मिलाप के बाद ही अच्छा लगता है। स्नेह..प्यार निभाने के लिए कर्तव्य जरूरी है,जिससे विलग होने पर ही अपनत्व भाव भी लोप होने लगता है,जिसका प्रतिपल ध्यान जरूरी है।सच्चा प्यार इतना आसान नहीं जितना कई जगह बना कर रखा गया है।

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