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”छायावादोत्तर हिन्दी कविता में रचनात्मक प्रतिबद्धता और सार्थकता” डॉ रामायण प्रसाद टण्डन वरिष्ठ साहित्यकार कांकेर छ.ग.

साहित्यकार परिचय-

डॉ. रामायण प्रसाद टण्डन

जन्म तिथि-09 दिसंबर 1965 नवापारा जिला-बिलासपुर (म0प्र0) वर्तमान जिला-कोरबा (छ.ग.)

शिक्षा-एम.ए.एम.फिल.पी-एच.डी.(हिन्दी)

माता/पिता स्व. श्री बाबूलाल टण्डन-श्रीमती सुहावन टण्डन

प्रकाशन –  हिन्दी साहित्य को समर्पित डॉ.रामायण प्रसाद टण्डन जी भारत के छत्तीसगढ़ राज्य में हिन्दी के स्तंभ कहे जाते हैं। हिन्दी की जितनी सेवा उन्होंने शिक्षक के रूप में की उतनी ही सेवा एक लेखक, कवि और एक शोधकर्ता के रूप में भी उनकी लिखी पुस्तकों में-1. संत गुरू घासीदास की सतवाणी 2. भारतीय समाज में अंधविश्वास और नारी उत्पीड़न 3. समकालीन उपन्यासों में व्यक्त नारी यातना 4. समता की चाह: नारी और दलित साहित्य 5. दलित साहित्य समकालीन विमर्श 6. कथा-रस 7. दलित साहित्य समकालीन विमर्श का समीक्षात्मक विवेचन 8. हिन्दी साहित्य के इतिहास का अनुसंधान परक अध्ययन 9. भारतभूमि में सतनाम आंदोलन की प्रासंगिकता: तब भी और अब भी (सतक्रांति के पुरोधा गुरू घासीदास जी एवं गुरू बालकदास जी) 10. भारतीय साहित्य: एक शोधात्मक अध्ययन 11. राजा गुरू बालकदास जी (खण्ड काव्य) प्रमुख हैं। 12. सहोद्रा माता (खण्ड काव्य) और 13. गुरू अमरदास (खण्ड काव्य) प्रकाशनाधीन हैं। इसके अलावा देश के उच्च स्तरीय प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में, राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय शोध संगोष्ठी सेमिनार में अब तक कुल 257 शोधात्मक लेख, आलेख, समीक्षा, चिंतन, विविधा तथा 60 से भी अधिक शोध पत्र प्रकाशित हैं। आप महाविद्यालय वार्षिक पत्रिका ‘‘उन्मेष’’ के संपादक एवं ‘‘सतनाम संदेश’’ मासिक पत्रिका के सह-संपादक भी हैं। मथुरा  उत्तर  प्रदेश से प्रकाशित मासिक पत्रिका ‘‘डिप्रेस्ड एक्सप्रेस’’ राष्ट्रीय स्तरीय पत्रिका हिन्दी मासिक के संरक्षक तथा ‘‘बहुजन संगठन बुलेटिन’’ हिन्दी मासिक पत्रिका के सह-संपादक तथा ‘‘सत्यदीप ‘आभा’ मासिक हिन्दी पत्रिका के सह-संपादक, साथ ही 10 दिसम्बर 2000 से निरंतर संगत साहित्य परिषद एवं पाठक मंच कांकेर छ.ग और अप्रैल 1996 से निरंतर जिला अध्यक्ष-पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी सृजनपीठ कांकेर छ.ग. और साथ ही 27 मार्च 2008 से भारतीय दलित साहित्य अकादमी कांकेर जिला-उत्तर बस्तर कांकेर छ.ग. और अभी वर्तमान में ‘‘इंडियन सतनामी समाज ऑर्गनाईजेशन’’ (अधिकारी/कर्मचारी प्रकोष्ठ) के प्रदेश उपाध्यक्ष.के रूप में निरंतर कार्यरत भी हैं।

पुरस्कार/सम्मान – 1-American biographical Institute for prestigious fite *Man of the year award 2004*research board of advisors (member since 2005 certificate received)

2. मानव कल्याण सेवा सम्मान 2005 भारतीय दलित साहित्य अकादमी छत्तीसगढ़ 3. बहुजन संगठक अवार्ड 2008 भारतीय दलित साहित्य अकादमी छत्तीसगढ़ 4. पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी  स्मृति प्रोत्साहन पुरस्कार 2007(बख्शी जयंती समारोह में महामहिम राज्यपाल श्री ई.एस.एल. नरसिंम्हन जी के कर कमलों से सम्मानित। इनके अलावा लगभग दो दर्जन से भी अधिक संस्थाओं द्वारा आप सम्मानित हो चुके हैं।) उल्लेखनीय बातें यह है कि आप विदेश यात्रा भी कर चुके हैं जिसमें 11वां विश्व हिन्दी सम्मेलन मॉरीसस 16 से 18 अगस्त 2018 को बस्तर संभाग के छत्तीसगढ़ भारत की ओर से प्रतिनिधित्व करते हुए तीन दिवसीय अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन में भाग लेकर प्रशस्ति-पत्र प्रतीक चिन्ह आदि से सम्मानित हुए हैं।

सम्प्रति – प्रोफेसर एवं विभागाध्यक्ष, शोध-निर्देशक (हिन्दी) शासकीय इन्दरू केंवट कन्या स्नातकोत्तर महाविद्यालय कांकेर, जिला-  कांकेर (छत्तीसगढ़) में अध्यापनरत हैं। तथा वर्तमान में शहीद महेन्द्र कर्मा विश्वविद्यालय बस्तर जगदलपुर छत्तीसगढ़ की ओर से हिन्दी अध्ययन मण्डल के ‘‘अध्यक्ष’’ के रूप में मनोनित होकर निरंतर कार्यरत भी हैं।

सम्पर्क  मकान नं.90, आदर्श नगर कांकेर, जिला-  कांकेर, छत्तीसगढ़ पिन-494-334 चलभाष-9424289312/8319332002

 

”छायावादोत्तर हिन्दी कविता में रचनात्मक प्रतिबद्धता और सार्थकता”

शोध का विषयः-‘‘हिन्दी कविता में दलित, आदिवासी, स्त्री, किन्नर एवं किसान विमर्श’’

विमर्श अंग्रेजी के शब्द क्पेबवनतेम का पर्याय है जिसका अर्थ विचारण, संवाद, वादविवाद या बातचीत से है तो अस्मिता विमर्श का अंग्रेजी में अर्थ प्कमदजपजल क्पेबवनतेम है। प्कमदजपजल क्पेबवनतेम (आईडेंटिटी डिस्कोर्स) से अभिप्राय है पहचान के लिए किया गया विचारण या संवाद। वर्तमान समय में अस्मिता विमर्श की चर्चा बहुत अधिक है। परिवेश व परंपरा की निजता और विशिष्टता अस्मिता विमर्श में विशेष महत्व रखती है। वर्ण, धर्म, लिंग आदि के प्रश्नों को लेकर अनेक व्यक्ति और समूह अपनी अपनी अस्मिता के साथ खड़े हुए दिखाई देते हैं। व्यक्तिगत अस्मिता में स्त्री अस्मिता, पुरूष अस्मिता, किसान अस्मिता का सवाल उठता है तो सामूहिक अस्मिता में दलित अस्मिता, आदिवासी अस्मिता, किन्नर अस्मिता, क्षेत्रीय अस्मिता, भाषायी अस्मिता आदि की चर्चा की जाती है। इस प्रकार विमर्श सकारात्मक और नकारात्मक दोनों हो सकते हैं।

 

किंतु जो समाजहित में हो तो वह सकारात्मक अस्मिता है और जो व्यक्तिगत हो तो वह नकारात्मक अस्मिता है। इस संदर्भ में प्रो0 अभयकुमार दुबे का कथन है कि-‘‘यह अस्मिता एक ऐसा दायरा है जिसके तहत् व्यक्ति और समुदाय यह बताते है कि वे खुद को क्या समझते हैं। भारतीय साहित्य जगत में छायावादी कवयित्री महादेवी वर्मा ने वर्ष 1942 में नारी अस्मिता की लड़ाई लड़ी इस तरह वे नारियों के हित में उनकी पीड़ा और दर्द को अपनी कविताओं में अभिव्यक्त किया है। इसी प्रकार सावित्री बाई फूले ने भी अपने ढंग से स्त्रियों के उत्थान में योगदान दिया तथा उन्होंने स्त्रियों के लिए स्कूल खोलकर उन्हें शिक्षा देने का कार्य किया इसीलिए उन्हें भारत की पहली महिला शिक्षिका मानी गई हैं। ताराबाई शिंदे नेवर्ष 1882 में स्त्री पुरूष का तुलनात्मक रचना का लेखन किया।

 

सुप्रसिद्ध कवयित्री महादेवी वर्मा ने वर्ष 1942 मेंस्त्री समस्याओं पर केन्द्रित ‘श्रृंखला की कड़ियां’ पुस्तक की रचना की। महादेवी का चिंतन स्त्री के प्रति बहुत गहरा रहा है। स्त्री के संबंध में उनका यह कथन दृष्टव्य है-‘‘भारतीय नारी जिस दिन अपने संपूर्ण प्राण आयोग से जान सके, उस दिन उसकी गति रोकना किसी के लिए संभव नहीं। उसके अधिकारों के संबंध में यह सत्य है कि वे शिक्षावृत्ति से न मिले हैं न मिलेंगे। क्योंकि उनकी स्थिति आदान-प्रदान योग्य वस्तुओं से भिन्न है। समाज में व्यक्ति का सहयोग और विकास की दिशा में उसका उपयोग ही उसके अधिकार निश्चित करता रहता है। वर्तमान समय में स्त्री की स्थिति देखकर हम कह सकते हैं कि उसके जीवन में उत्तरोत्तर सुधार हो रहे हैं। लेकिन वे पर्याप्त नहीं हैं। लेखिकाओं ने इस दिशा में महत्वपूर्ण प्रयास किए हैं। स्त्री विमर्श से संबंधित अनेक पुस्तकें हमें देखने को मिलता है।

 

इन पुस्तकों में स्त्रियों के जीवन, संघर्ष और सपनों के बारे में गहरे से चिंतन किया गया है। ‘द सेकेण्ड सेक्स’ का प्रभा खेतान द्वारा किया गया अनुवाद ‘स्त्री उपेक्षिता’ बहुचर्चित रहा है। हिन्दी लेखिकाओं ने स्त्री को अपनी रचनाओं में भी अपने तरीके से अभिव्यक्त किया है। स्त्री आत्म कथाओं के माध्यम से स्त्री स्वरों को एक सार्थक जगह मिलती हुई दिखाई देती है। गल्प साहित्य के अतिरिक्त किया गया स्त्री केन्द्रित लेखन इस दिशा में बहुत मायने रखता है। सुमन राजे की ‘हिंदी साहित्य का आधा इतिहास’ राधाकुमार की ‘स्त्री संघर्ष का इतिहास’ प्रभा खेतान की ‘उपनिवेश में स्त्री’ मैत्रेयी पुष्पा की ‘खुली खिड़कियां’ सुनों मालिक सुनों’ नासिरा शर्मा की ‘औरत के लिए औरत’ अनामिका की ‘स्त्री का मानचित्र’, स्त्री मिर्श का लोकपक्ष रोहिणी अग्रवाल की ‘स्त्री लेखन:स्वरूप और संकल्प’ ममता कालिया की ‘भविष्य का स्त्री विमर्श’ मृणाल पाण्डेय की ‘देह की राजनीति से देश की राजनीति तक’, परिधि पर स्त्री, क्षमा शर्मा की ‘ स्त्री का समय’ मनीषा की ‘हम सभ्य औरतें’ नमिता सिंह की ‘स्त्री-प्रश्न, कात्यायनी की ‘दुर्गद्वार पर दस्तक’ गीता श्री की ‘सपनों की मंडी’ आदि स्त्री लेखकों द्वारा रचित स्त्री विमर्श से जुड़ी महत्वपूर्ण व चर्चित कृत्तियां हैं।

 

इसी तरह पुरूष लेखकों के द्वारा लिखी किताब ‘आदमी की निगाह में औंरत’ स्त्री के संबंध में एक चर्चित कृति है। अर्चना वर्मा के साथ संपादन में भी उनकी कृति ‘औरत: उत्तर कथा का उल्लेख किया जा सकता है। राजकिशोर की ‘स्त्री-पुरूष: एक पुनर्विचार, स्त्रीत्व का उत्सव अरविंद जैन की ‘औरत होने की सजा, उत्तराधिकार बनाम पुत्राधिकार, औरत अस्तित्व और अस्मिता, यौन हिंसा और न्याय की भाषा, देवेन्द्र इस्सर की ‘स्त्री मुक्ति के प्रश्न, सुधीस पचौरी की ‘नारी देह के विमर्श’ आदि पुरूष लेखकों की उल्लेखनीय कृत्तियां हैं।
इसी प्रकार दलित विमर्श में मनुष्य को मनुष्य होने के बावजूद उन्हें मनुष्यों की श्रेणी में नहीं समझा गया है। शूद्रों को अस्पृश्य माना गया और उनके लिए बहुत ही कठोर नियम लागू किए गये।

 

मनुस्मृति के अनुसार शूद्रों को वेद आदि ग्रंथों को पढ़ने का अधिकार नहीं था। वे किसी भी धार्मिक ग्रंथ और धार्मिक कार्य में सछूतों की तरह भाग नहीं ले सकते थे। महात्मा बुद्ध, ज्योतिबा फूले और आंबेडकर ने शूद्रों के उद्धार के लिए उल्लेखनीय योगदान दिया। दलित साहित्य का वैचारिक आधार भी आंबेडकर का जीवन संघर्ष और महात्मा बुद्ध और महात्मा ज्योतिबा फूले का जीवन दर्शन है। जोतिबा फूले ने 1873 र्इ्र0 में सत्य शोधक समाज की स्थापना से सामंती मूल्यों और सामाजिक भेदभाव को चुनौती देने का काम किया। उनके द्वारा लिखित पुस्तक-‘गुलाम गिरी’ एक महत्वपूर्ण पुस्तक है। अनेक महापुरूषों से भी दलित आंदोलन प्रेरणा ग्रहण करता रहा है। इस संदर्भ में केरल के नारायणा गुरू, तमिलनाडु के पेरियार रामास्वामी नायकर, उत्तर भारत के स्वामीं अछूतानंद, बंगाल के चांद गुरू, छत्तीसगढ़ के संत गुरू घासीदास जी का नाम बड़े ही आदर के साथ लिया जाता सकता है। 1972 ई0 में नामदेव ढसाल और जे0बी0 पवार द्वारा स्ािापित ‘दलित पैंथर’ का मुख्य उद्देश्य दलितों को उनके हकों के लिए जागरूक करना था। जाति आधारित असमानता और भौतिक संसाधनों के मामले में होने वाले अन्याय के खिलाफ ‘दलित पैंथर’ का संघर्ष देखा जा सकता है। 1914 ई0 में प्रकाशित हीरा डोम की कविता ‘अछूतों की शिकायत’ दलित साहित्य में महत्वपूर्ण स्थान रखती है।

 

इस तरह से हमें यह भी देखने को मिलता है कि प्रेमचंद और निराला की अनेक रचनाएं दलित केन्द्रित हैं, जो उनके जीवन को गहरी संवेदना के साथ बयां करती हैं। दलित विचारकों ने लेकिन गैर-दलितों द्वारा लिखी गयी रचनाओं को दलित साहित्य की प्रतिनिधि रचनाओं के रूप में स्वीकार नहीं किया। सहानुभूति और स्चानुभूति की बहस इस संदर्भ में देखी जा सकती है। ओमप्रकाश बाल्मीकि, कंवल भारती के साथ मैनेजर पाण्डेय, शिवकुमार मिर ओर राजेनद्र यादव और गैर दलित लेखक स्वानुीाूति के प्रश्न के साथ खड़े हैं। हॉलाकि राजेन्द्र यादव सहानुभूति के साहित्य को पूरी तरह से नहीं नकारतें इस दृष्टि से उनका यह कथन समीचीन मालूम होता है-‘दलित चेतना को जगाने में सहानुभूति पहला कदम है।

 

जब हम कहते हैं (या गांधी जी कहते थे) ये भी मनुष्य हैं। इनको दरिद्रता अवस्था में क्यों रखा जाए, तो यह सहानुभूति है। इससे यह जरूर हुआ कि दलितों के भीतर भी यह भावना जागी कि हम भी मनुष्य हैं और हमें भी षान से जीने का पूरा हक और अधिकार है और सुविधाएं भी पूरी मिलनी चाहिए। यह चेतना पैदा हुई। लेकिन कभी भी सहानुभूति का साहित्य स्वानुभूति के साहित्य का स्ािान नहीं ले सकता’’। दलित साहित्य कविता कहानी के साथ आत्मकथा के रूप में अधिक देखने को मिलता है। आत्मकथाएं दलितों के किसी जीवन संघर्ष को प्रामाणिकता के साथ भिव्यक्त करती हैं। मराठी के साथ हिंदी में अनेक महत्वपूर्ण आत्मकथाएं प्रकाशित हुईं हैं। अन्य महत्वपूर्ण दलित लेखकों में मोहनदास नैमिशराय, डॉ तुलसीराम, श्योराजसिंह बेचैन, मलखानसिंह, असंगधोष, सुशीला, सुशीला टाकभौरे, डॉ. धर्मवीर, जयप्रकाश कर्दम, रत्नकुमार संभारिया, तेजसिंह, सूरजपाल चौहान, अजय नवारिया, अनिता भारती मुख्य हैं।

 

हिन्दी साहित्य में स्त्री औेर दलित विमर्श के पश्चात् आदिवासी विमर्श भी चलता है। आदिवासी से अभिप्राय इस देश के आदिनिवासी से है जिसकी सदियों से उपेक्षा की गई्र है। आदिवासी समाज का जीवन दर्शन-प्रकृति के बहुत ही निकट स्ािान पाता है। सदियों से जल, जंगल और जमीन बचाने के लिए उसने बहुत ही संघर्ष किया है। इतिहास में उनके अनेक आंदोलन प्रसिद्ध है। कोल विद्रोह, संथाल विद्रोह, भील विद्रोह, मुडा विद्रोह, अहोम विद्रोह, खासी विद्रोह, रम्पा विद्रोह आदि ऐतिहासिक महत्व के बड़े व महत्पूर्ण विद्रोह है। भारत में इस समय भील, गोड़, संथाल, उरांव, मुडा, अहो, खासी, नागा, आदि प्रमुख आदिवासी समुदाय निवास करते हैं। आदिवासी समुदाय हमेशा से ही हासिए पर रहा है। आदिवासियों की ओर न सत्ता ने कभी ध्यान दिया, न किसी और ने उनके प्रति चिंता करनी आवश्यक समझी।

 

वैश्वीकरण के दौर में देश के प्राकृतिक संसाधनों का दोहन और अधिक तेजी से देखने को मिला है। इसका सबसे अधिक प्रभाव आदिवास समाज पर ही पड़ा है। आदिवासियों की मूल पहचान उनकी संस्कृति से जुई है। आदिवासियों के साहित्य ने आदिवासी अस्मिता को पहचानने की कोशिश की है। उनके जीवन और संस्कृति के बारे में न केवल आदिवासियों ने बल्कि गैर आदिवासियों ने भी लिखा है। प्रेमचंद, रांगेय राघव, देवेन्द्र सत्यार्थी, नागार्जुन, फणीश्वरनाथ रेणु, संजीव, राकेश कुमार सिंह, रमणिका गुप्ता आदि गैर आदिवासी लेखक हैं, जिनकी रचनाओं में हमें आदिवासी समाज की सार्थक उपस्थिति मिलती है। वीरेन्द्र जैन का ‘पार’ मधु कोकरिया का ‘खुले गगन के लाल सितारे, महुआ माजी का, मरंग गौड़ा नीलकंठ हुआ, हरिराम मीणा का ‘धूणीतपेतीर, रणेन्द्र का ‘ग्लोबल गांव के देवता, संजीव का ‘जंगल जहां से शुरू होता है, मनमोहन पाठक का ‘गगन घटा घहरानी, राकेश कुमार सिंह के ‘पठार पर कोहरा’ जो इतिहास में नहीं है, विनोद कुमार का ‘रेडजान’ आदि ऐसे उपन्यास हैं जो आदिवासियों के जीवन के बारे में हमें विविध ओैर तथ्यपरक जानकारी प्रदान करते हैं। शिक्षा के माध्यम से चेतना जागृत होने पर इसी से आदिवासी साहित्य का महत्व तब और बढ़ा जब आदिवासियों ने स्वयं अपनी बात कहनी प्रारंभ की। नब्बे के दशक के बाद हिंदी और अन्य आदिवासी भाषाओं यथा मुंडरी, संथाली, खड़िया, कुडुख, आदि में अनेक आदिवासी लेखक सामने आए। साहित्य के साथ-साथ सिनेमा में भी आदिवासियों के मुद्दों को जगह दी जाने लगी है। पिछले दशकों में जिन आदिवासी रचनाकारों ने साहित्य जगत का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया है, उनमें एलिस एक्का, बंदनाटेटे, निर्मल मुतुल, रोज केरकेट्टा, पीटर पॉल एक्का, महादेव टोप्पो, अनुज लुगुन, जंसिता केरकेट्टा आदि प्रमुख हैं।

 

किन्नर विमर्श और किसान विमर्श किन्नरों अर्थात् थर्ड जेंडर केन्द्रित साहित्य से जुड़ी कुछ कृतियां किन्नरों के स्वरों को उभारने का कार्य कर रही है। अभी तक उपन्यास विधा के रूप में किन्नरों के जीवन को अधिक अभिव्यक्त किया गया है। नीरज माधव का ‘यमदीप’ महेन्द्र भीष्म का ‘किन्नर कथा’ प्रदीप सौरभ का ‘तीसरी ताली’ निर्मला भुराड़िया का ‘गुलाम मंडी’ चित्रा मुदृगल का ‘पोस्ट बॉक्स नं. 203’ नाला सोपारा, आदि प्रमुख उपन्यास इस दृष्टि से उल्लेखनीय है। इन उपन्यासें में किन्नरों की सामाजिक, पारिवारिक, यौन, शिक्षा, उपेक्षा आदि से जुड़ी समस्याओं का अंकन किया गया है। किन्नरों ने शिखा समाज और राजनीति के क्षेत्र में अपनी पहचान बनानी शुरू की है। प्रसिद्धि के शिखर पर पहुंचे कुछ किन्नरों ने स्वयं अपने शब्दों में जीवन की कथा कही है। ये आत्मकथाएं अपनी बेबाकी के लिए चर्चित रही हैं। लक्ष्मी नारायण त्रिपाठी की ‘मैं हिजड़ा’ ‘मैं लक्ष्मी’ तथा मानोबी बांधपाध्याय की ‘‘पुरूष तन में फंसा मेरा नारी मन’ आदि उदाहरण के रूप में देखी जा सकती हैं। अनेक संपादित पुस्तकें और पत्रिकाएं भी अपने विशेषांकों के माध्यम से किन्नरों के मुद्दों पर प्रमुखता से बात कर रही हैं। किसानों पर हमेशा से ही साहित्य लिखा गया है। लेकिन विमर्श के रूप में अभी भी किसानों पर उसकी बात नहीं कही जा रही, जितनी आवश्यक है।

 

ऐसी कोई भी विधा नहीं हैं जिसमें किसानों पर न लिखा गया हो। बालकृष्ण भट्ट से लेकर नए लेखक तक ने किसान जीवन की अभिव्यक्ति अपनी रचनाओं में अभिव्यक्त किया है। किसान केन्द्रित उपन्यासों में जगदीश झा विमल का ‘खरा सोना’ प्रेमचंद के ‘गोदान’ प्रेमाश्रम, नागार्जुन के रतीनाथ की चाची, बलचनामा, फणीश्वरनाथ रेणु ‘परती परिकथा’ विवेकीराय का ‘सोनामाटी’ जगदीशचंद्र का ‘घास गोदाम’ वीरेन्द्र जैन का ‘डूब’ भीमसेन त्यागी का ‘जमीन’ राजूशर्मा का ‘हलफनामें’ शिवमूर्ति का ‘आखिरी छलांग’ सुनील चतुर्वेदी का ‘काली चाट’ संजीव का ‘फांस’ अनंतकुमार सिंह का ‘ताकि बची रहे हरियाली, पंकज सुबीर का ‘अकाल में उत्सव’ एम.एम चंद्रा का ‘यह गांव बिकाउ है आदि मुख्य चर्चित व हैं।’ कवियों और कहानीकारों ने भी अपनी रचनाओं में किसान और उनके जीवन पर कलम चलायी है।
दलित विमर्श, स्त्री विमर्श, आदिवासी विमर्श, थर्ड जेंडर या किन्नर विमर्श जैसे अस्मितावादी विमर्शो ने साहित्य जगत में ऐसा परिदृश्य उपस्थित कर दिया है, जिसके पीछे स्वानुभूति या भोगे हुए यथार्थ जीवनानुभवों का प्रबल तर्क है। इस तर्क के अनुसार साहित्य सामान्य मनुष्य का न होकर दलित द्वारा दलित के लिए, स्त्री द्वारा स्त्री के लिए, आदिवासी द्वारा आदिवासियों के लिए होगा।

 

समकालीन हिंदी कथा साहित्य प्रवृत्तियों की दृष्टि से नारीवाद, आदिवासी और दलित विमर्श, अल्पसंख्यक विमर्श के श्रेणीगत सैद्धांतिक ढांचे में बंध कर रह गया है। उक्त वर्गीकरण विभिन्न विधाओं में रचित साहित्य के शोधपरक अध्ययन के लिए सुविधाजनक है। दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक समुदाय तथा नारीवादी दृष्टि से साहितियक विधाओं का समाजशास्त्रीय अध्ययन के लिए उपयुक्त सैद्धांतिक ढांचे को गढ़ लिया गया है। समकालीन कहानियों और उपन्यासों का वर्गीकरण इसी आधार पर कर लिया गया। इसी क्रम में भारतीय समाज में मौजूद एक विशेष वर्ग, किन्नर समुदाय का जीवन भी वर्तमान परिदृश्य में हिंदी कथा साहित्य का प्रमुख अंग हो गया है। भारत में किन्नर समुदाय प्राचीन काल से ही अपना जीवन, समाज के अन्य वर्गो के साथ येन-केन प्रकारेण बिता रहा है। इस समुदाय के जीवन की विषमताओं और विसंगतियों की ओर सुसंस्कृत समाज का ध्यान साहित्यिक सांस्कृतिक दृष्अि से बहुत समय तक नहीं गया। यह समुदाय साहित्य की मुख्यधारा में अपनी पहचान दर्ज कराने में असमर्थ रहा। किन्नरों का उल्लेख विविध संदर्भो में भारतीय पौराणिक साहित्य में प्राचीन काल से होता रहा है। रामायण में राम-रावण युद्ध में राम की सैन्य वाहिनी में वानर सेना के साथ कोल, किरात, किन्नर और भील आदि जनजातियों की सेना भी सम्मिलित थी। ‘किन्नर’ एक वन्य जनजाति के रूप में रामायण महाकाव्य में उल्लिखित है किंतु यह नपुंसक (हिजड़ा) समुदाय नहीं था। यह बलशाली और पीरता से युक्त जनजाति थी।

 

महाभारत कथा में अर्जुन देवलोक में उर्वशी के श्राप से नपुंसक रूप धारण करने को अभिशप्त हो जाता है। अर्जुन की इस स्थिति का सदुपयोग पांडव अपने अज्ञातवास काल में करते हैं। पांडव अज्ञातवास काल में विराट महाराज के आश्रय में रहते हैं जहां अर्जुन नृत्यकला के आचार्य वृहन्नला (किन्नर) का रूप धारण कर विराट राजा की सुपुत्री ‘उत्तरा’ को नृत्यकला में पारंगत कराता है। महाभारत कथा में एक अन्य प्रसंग में महारथी भीष्म द्वारा तिरस्कृत राजकृमारी ‘अंबा’ अपने अपमान का प्रतिकार लेने के लिए कुरूक्षेत्र के महासंग्राम में नपुंसक शिखंडी के रूप में भीष्म के सम्मुख प्रकट होकर उनके मृत्यु का कारण बनती है। शिखंडी और वृहन्नला दोनों ही किन्नर के रूप में पुराणों में वर्णित हैं। स्त्री और पुरूष के अतिरिक्त मानव समाज मे एक और लिंग व्यवस्था सदियों से चली आ रही है। जिसे अनय लिंगी मनुष्य कहा जाता है अर्थात् जो न स्त्री है और न पुरूष। जननांगों के अभाव, अविकसित या निष्क्र्रियता से उत्पन्न नपुंसकता से ग्रस्त मनुष्यों को हिजड़ा कहा जाता है।

 

प्रकारांतर से इनके लिए एक सम्मानजनक शब्द ‘किन्नर’ गढ़ लिया गया। ‘किन्नर’ शब्द का संबंध हिमाचल प्रदेश के किन्नौर जिले से कदापि नहीं है। हिजड़ोण के लिए इस शब्द के प्रयोग पर ‘किन्नौर’ प्रदेश के लोगों ने आपत्ति की थी। किन्नरों के लिए अंग्रेेजी ‘थर्ड जंेडर’ शब्द बहुप्रचलित है अर्थात् तृतीय लिंगी मनुष्य। अपवाद स्वरूप यत्र-तत्र भारत में शिक्षित व्यक्ति (अन्य लिंगी) दिखाई दे जाते हैं जिनकी संख्या नगण्य है। लक्ष्मीनारयण त्रिपाठी नामक किन्नर (महिला का वेष धारण करती/करता है) जो शिक्षित विदुषी व्यक्ति के रूप में जानी जाति हैं इन्होंने आध्यत्मिक ज्ञान के साथ संगीत और नृत्य शास्त्र का भी अध्ययन किया है। किन्नर समुदाय के अधिकारों के लिए इन्होंने एक सशक्त आंदोलनकारी के रूप में ख्याति अर्जित की है। उज्जैन महाकुंभ सिंहस्थ 2016 में उन्हें महामंडलेश्वर की पदवी प्रदान की गई थी। इनके ,ारा रचित आत्मकथा ‘मैं हिजड़ा मैं लक्ष्मी’ हिंदी किन्नर साहित्य में बहुचर्चित कृति है।

 

नई सदी में कुछ किन्नरों ने अपने कठिन संधर्ष से राजनीति में प्रवेश कर विधायक और महापौर तक के पद संभाले जिनमें प्रमुख हैं-शबनम मौसी, कमला जान, कमला किन्नर और मधु किन्नर आदि। देश की पहली किन्नर शिक्षाविद् प्राचार्य मानोबी बंधोपाध्याय (पश्चिम बंगाल) और पहली किन्नर वकील तमिलनाडु की सत्या श्रीशर्मिला ने सिद्ध कर दिया कि किन्नर अथवा ‘थर्ड जंेडर’ किसी भी विद्वत स्त्री-पुरूष की भांति बु0िजीवी वर्ग के समकक्ष अपनी प्रतिभा प्रदर्शित कर सकते हैं। अस्मिता की यह लड़ाई जो किन्नरों ,ारा लड़ी जा रही है, उन्हें 15 अपै्रल 2014 को विजय हासिल हुई जब सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति के एस राधाकृष्णन और न्यायमूर्ति ए के सीकरी ने ‘थर्ड जेंडर’ को मान्यता देते हुए किन्नरों के हक में ऐतिहासिक फैसला दिया।

संदर्भ-
1.हिंदी साहित्य में किन्नर स्वर: डॉ एम. वेंकटेश्वर (1अप्रैल 2020 अंक 153 प्रथम 2020 में प्रकाशित)
2.शिकंजे का दर्द:सुशीला टाकभौरे की आत्मकथा।
3.दोहरा अभिषाप: कौशल्या बैसंत्री
4.जूठन: ओमप्रकाश वाल्मीकि 

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