(मनोज जायसवाल)
वैसे तो सामाजिक प्रतिषेध कानून उन लोगों के लिए बड़ी आस है,जिन्हें गावों में कई दफा हुक्का पानी बंद तो गांव की मुख्यधारा से अलग किया जाता है। मुख्यतः गांवों में कुछ नामचीन तथाकथित प्रभावशाली लोगों की सियानी चलती है,जहां कभी कभी वे घमंड से इतना चुर होते हैं कि गांव के अन्य व्यक्ति उन्हें बौने लगते हैं।
अंतिम व्यक्ति जागरूक होते हुए अपना बात नहीं रख सकते और रख भी लें तो ये तथाकथित स्वयंभु जज उनकी बातों को कोई तरजीह नहीं देते। इनके सामने हां में हां मिलायें तो ठीक है। आम को इमली कहे तो इमली ही कहें आम नहीं। कहीं इनके कहे मुताबिक आम कह दें तो बड़ा अनर्थ होगा।
अंतिम व्यक्ति से भी कम पढ़े लिख इन लोगों का अंतिम औकात अपनी निष्पक्ष बात रखने वालों को गांव से बेदखल,बाहर करने का होता है। कभी कभी इनकी असली औकात का पता तब चलता है, जब कोई गरीब अंतिम सिरे के यही व्यक्ति हिम्मत दिखाते थाने की ओर रूख करता है।
जब कानून की धारा में जाता है तब पता चलता है कि उनकी सियानी क्या होती है। एक निश्चित व्यक्ति विशेष के बीच में अपने मन मुताबिक बिना दोनों पक्ष की राय जाने कुछ लोगों के चापलुसी से निर्णय देने और किसी से पैसे के सहयोग के बतौर पर निर्णय देना कितना मंहगा साबित होता है, यह कई जगह घटी घटनाओं से पता चलता है।
किसी के लिए समझाईश और निर्णय देना जितना सरल है उतना ही कठिन बात है कि स्वयं के गिरेबान को झांकना। पूरी तरह अपने एवं अपने लोगों के अतीत को छान मार कर देखना ज्यादा उचित होगा कि हम क्या हैं। सनद रहे गांव या समाज के जिन लोगों को बाहर करने की यह गंदी हिमाकत दिखलायी जाती है,उन लोगों के कोई काम नहीं रूका करते। वे वैसे ही निर्विघ्न संपन्न होते हैं, जैसे सबके।
तुम्हारे कार्य कैसे संपन्न हो रहे हैं यह उन गांव समाज से अलग हुए व्यक्ति नहीं देखा करते। झांका तो वे ही करते हैं, पूछताछ तो वे कर रहे होते हैं जिन्होंने ये निर्णय दिया होता है। मानसिक शांति कभी ऐसे निर्णय देने वालों को नहीं होती। बल्कि मानसिक शांति उन्हें बिल्कुल होती है,जिन्हें समाज की मूल धारा से विच्छेदित किया गया होता है। हल्की बातों पर समाज से विच्छेदित किया जाना गंदी सोच बयां करती है। जब ऊपर वाला किसी को पृथक नहीं करता तो यहां धरा वाले कैसे किसी को पृथक कर सकते हो।