Newsbeat आलेख देश संस्मरण

‘‘हरिशंकर परसाई का साहित्य: व्यंग्य के विविध आयाम’’ डॉ रामायण प्रसाद टण्डन वरिष्ठ साहित्यकार कांकेर छ.ग.

साहित्यकार परिचय-

डॉ. रामायण प्रसाद टण्डन

जन्म तिथि-09 दिसंबर 1965 नवापारा जिला-बिलासपुर (म0प्र0) वर्तमान जिला-कोरबा (छ.ग.)

शिक्षा-एम.ए.एम.फिल.पी-एच.डी.(हिन्दी)

माता/पितास्व. श्री बाबूलाल टण्डन-श्रीमती सुहावन टण्डन

प्रकाशन –  हिन्दी साहित्य को समर्पित डॉ.रामायण प्रसाद टण्डन जी भारत के छत्तीसगढ़ राज्य में हिन्दी के स्तंभ कहे जाते हैं। हिन्दी की जितनी सेवा उन्होंने शिक्षक के रूप में की उतनी ही सेवा एक लेखक, कवि और एक शोधकर्ता के रूप में भी उनकी लिखी पुस्तकों में-1. संत गुरू घासीदास की सतवाणी 2. भारतीय समाज में अंधविश्वास और नारी उत्पीड़न 3. समकालीन उपन्यासों में व्यक्त नारी यातना 4. समता की चाह: नारी और दलित साहित्य 5. दलित साहित्य समकालीन विमर्श 6. कथा-रस 7. दलित साहित्य समकालीन विमर्श का समीक्षात्मक विवेचन 8. हिन्दी साहित्य के इतिहास का अनुसंधान परक अध्ययन 9. भारतभूमि में सतनाम आंदोलन की प्रासंगिकता: तब भी और अब भी (सतक्रांति के पुरोधा गुरू घासीदास जी एवं गुरू बालकदास जी) 10. भारतीय साहित्य: एक शोधात्मक अध्ययन 11. राजा गुरू बालकदास जी (खण्ड काव्य) प्रमुख हैं। 12. सहोद्रा माता (खण्ड काव्य) और 13. गुरू अमरदास (खण्ड काव्य)14. गुरूघासीदास साहेब (महाकाव्य) प्रकाशनाधीन हैं। इसके अलावा देश के उच्च स्तरीय प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में, राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय शोध संगोष्ठी सेमिनार में अब तक कुल 257 शोधात्मक लेख, आलेख, समीक्षा, चिंतन, विविधा तथा 60 से भी अधिक शोध पत्र प्रकाशित हैं। आप महाविद्यालय वार्षिक पत्रिका ‘‘उन्मेष’’ के संपादक एवं ‘‘सतनाम संदेश’’ मासिक पत्रिका के सह-संपादक भी हैं। मथुरा  उत्तर  प्रदेश से प्रकाशित मासिक पत्रिका ‘‘डिप्रेस्ड एक्सप्रेस’’ राष्ट्रीय स्तरीय पत्रिका हिन्दी मासिक के संरक्षक तथा ‘‘बहुजन संगठन बुलेटिन’’ हिन्दी मासिक पत्रिका के सह-संपादक तथा ‘‘सत्यदीप ‘आभा’ मासिक हिन्दी पत्रिका के सह-संपादक, साथ ही 10 दिसम्बर 2000 से निरंतर संगत साहित्य परिषद एवं पाठक मंच कांकेर छ.ग और अप्रैल 1996 से निरंतर जिला अध्यक्ष-पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी सृजनपीठ कांकेर छ.ग. और साथ ही 27 मार्च 2008 से भारतीय दलित साहित्य अकादमी कांकेर जिला-उत्तर बस्तर कांकेर छ.ग. और अभी वर्तमान में ‘‘इंडियन सतनामी समाज ऑर्गनाईजेशन’’ (अधिकारी/कर्मचारी प्रकोष्ठ) के प्रदेश उपाध्यक्ष.के रूप में निरंतर कार्यरत भी हैं।

पुरस्कार/सम्मान – 1-American biographical Institute for prestigious fite *Man of the year award 2004*research board of advisors (member since 2005 certificate received)

2. मानव कल्याण सेवा सम्मान 2005 भारतीय दलित साहित्य अकादमी छत्तीसगढ़ 3. बहुजन संगठक अवार्ड 2008 भारतीय दलित साहित्य अकादमी छत्तीसगढ़ 4. पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी  स्मृति प्रोत्साहन पुरस्कार 2007(बख्शी जयंती समारोह में महामहिम राज्यपाल श्री ई.एस.एल. नरसिंम्हन जी के कर कमलों से सम्मानित। इनके अलावा लगभग दो दर्जन से भी अधिक संस्थाओं द्वारा आप सम्मानित हो चुके हैं।) उल्लेखनीय बातें यह है कि आप विदेश यात्रा भी कर चुके हैं जिसमें 11वां विश्व हिन्दी सम्मेलन मॉरीसस 16 से 18 अगस्त 2018 को बस्तर संभाग के छत्तीसगढ़ भारत की ओर से प्रतिनिधित्व करते हुए तीन दिवसीय अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन में भाग लेकर प्रशस्ति-पत्र प्रतीक चिन्ह आदि से सम्मानित हुए हैं।

सम्प्रति – प्रोफेसर एवं विभागाध्यक्ष, शोध-निर्देशक (हिन्दी) शासकीय इन्दरू केंवट कन्या स्नातकोत्तर महाविद्यालय कांकेर, जिला-  कांकेर (छत्तीसगढ़) में अध्यापनरत हैं। तथा वर्तमान में शहीद महेन्द्र कर्मा विश्वविद्यालय बस्तर जगदलपुर छत्तीसगढ़ की ओर से हिन्दी अध्ययन मण्डल के ‘‘अध्यक्ष’’ के रूप में मनोनित होकर निरंतर कार्यरत भी हैं।

सम्पर्क मकान नं.90, आदर्श नगर कांकेर, जिला-  कांकेर, छत्तीसगढ़ पिन-494-334 चलभाष-9424289312/8319332002

राष्टीय संगोष्ठी 10 जनवरी 2025 के  लिये….

‘‘हरिशंकर परसाई का साहित्य: व्यंग्य के विविध आयाम’’
शोध पत्र का विषय- ‘हिंदी व्यंग्य परंपरा और हरिशंकर परसाई’
हिंदी-साहित्य में व्यंग्य की परंपरा नई नहीं है। विगत् साहित्य पर दृष्टि डाले तो कबीर के यहां सामाजिक और धार्मिक विसंगितियों पर जोरदार व्यंग्य मिलता है। कबीर ने खरी-खरी बातें कही है उतनी खरी बातें उनके समकालीन किसी अन्य कवि ने नहीं कही। शायद इसी व्यंग्य प्रखरता के कारण कबीर आज भी प्रासंगिक है। कबीर के बाद तुलसीदास के साहित्य में प्रसंगगत व्यंग्य मिलता है, जिससे हास्य का पुट अधिक है। व्यंग्य के छिट-पुट प्रसंग हमें केशवदास की ‘रामचंद्रिका’ में अनेक स्थलों पर मिलते हैं। इनके यहां पर व्यंग्य का स्वरूप राजनैतिक है, क्योंकि केशवदास दरबारी कवि थे और राजनैतिक दांव-पेंच से भलिभांति परिचित थे। केशवदास ने व्यंग्य का प्रयोग संवादों के माध्यम से किया है। रावण-बाणासुर संवाद, रावण-अंगद संवाद इसके श्रेष्ठ उदाहरण हैं।
आधुनिक अर्थ में व्यंग्य का विधिवत् आरंभ भारतेन्दु युग से माना जाता है। इस युग की परिस्थितियां इस प्रकार की रहीं की व्यंग्य साहित्य के अध्यापन और लेखन दोनों में सुविधा हुई। भारतेन्दु हरिश्चंद्र, बालकृष्ण भट्ट, प्रतापनारायण मिश्र, बालमुकुन्द गुप्त आदि श्रेष्ठ रचनाकारों ने अपने समय की सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक रूढ़ियों के साथ-साथ अंग्रेजो की शोषण नीति पर जमकर व्यंग्य प्रहार किए। इस युग में व्यंग्य एक प्रकार से अपने पैरों से चलने लगा था। इसकी उपलब्धि भारतेंन्दु युग में रची गई अनेक व्यंग्य रचनाओं के आधार पर मिलती है।

भारतेन्दु युग के सबसे सशक्त व्यंग्यकार बालमुकुन्द गुप्त जी हैं। उनके ‘भारतमित्र’ में प्रकाशित ‘शिव शंभू के चिट्ठे’ हिंदी का प्रथम व्यंग्य स्तंभ है। हरिशंकर परसाई से पूर्व वही एक ऐसे साहित्यकार हैं जो व्यंग्य कर्म के लिए ख्याति प्राप्त हैं। व्यंग्य परंपरा को आगे बढ़ाने में कथाकार मुंशी प्रेमचंद और निराला जी का स्थान भी महत्वपूर्ण है। दोनों ने सामाजिक, धार्मिक, और आर्थिक विसंगतियों पर व्यंग्य किए हैं। फिर भी दोनों साहित्यकार उपन्यास और कविता के लिए जाने जाते हैं।

व्यंग्य विधा को ‘विधा’ का स्थान ग्रहण कराने वाले यशस्वी साहित्यकार हरिशंकर परसाई जी हैं। परसाई जी ने सामाजिक और राजनैतिक विसंगतियों की गहराई से पड़ताल की और वास्तविक स्थितियों को समाज के समक्ष प्रस्तुत किया। स्वतंत्रता के बाद की राजनीति निरंतर भ्रष्ट होती गई, सिद्धांत और नारे अर्थहीन होते चले गए। पवित्र शब्दों का अवमूल्यन होने से कथनी-करनी मे निरंतर खाई गहरी हुई। एक ओर भारतीय जन पुरानी मान्यताओं और संस्कारों से मुक्त नहीं हो सके, तो दूसरी ओर भारतीय बुद्धिजीवी वैज्ञानिक दृष्टि को अपने जीवन का अंग नहीं बना पाया आज का जीवन निश्चय ही विभिन्न प्रकार की विसंगितियों और विषमताओं द्वारा विखण्डित किया जा रहा है। ऐसी स्थिति में इस जीवन के भोक्ता मनुष्य की अभिव्यक्ति में तिक्तता, कडुवाहट और कसैलेपन का आ जाना सवाभाविक ही है। बहुत गहरे में चोट खाया हुआ मनुष्य जब बोलेगा तब व्यंग्य लेखक के प्रहार का क्षेत्र है। संपूर्ण सामाजिक आचरण व्यंग्य के अभिव्यंजनात्मक ताप के योग्य बन चुका था।

हरिशंकर परसाई स्वातंत्रयोत्तर भारत के सबसे सशक्त व्यंग्यकार हैं। उनके संपूर्ण साहित्य की बानगी व्यंग्य की आधारशिला पर टिकी हुई है। आज़ाद भारत का कोई भी क्षेत्र परसाई जी से बचा नहीं है। फिर भी इनकी रचनाओं में सामाजिक और राजनैतिक संदर्भ बार-बार आते हैं। परसाई जी ने कहानियां, ललित और विचारपरक निबंध, और लघुकथाएं लिखी हैं उनमें सामाजिक-राजनैतिक चेतना है और एक सुसंगत समझ भी है।

हिंदी साहित्य के सशक्त और मूर्धन्य साहित्यकार हरिशंकर परसाई जी को पढ़ते हुए पाठक महसूस करता है कि इंसान का विवेक और वैज्ञानिक चेतना बहुत ही महत्वपूर्ण चीजें है जिसका इस्तेमाल कर लेना चाहिए। वे रूढ़िवादी नज़रिए को सिरे से खारिज़ करते थे। और ये सब इतने अपनेपन के साथ बयां करते थे कि पाठक के साथ बहुत नज़दीकी रिश्ता का़यम हो जाता है। परसाई जी ने 10 अगस्त 1995 को इस दुनिया को अलविदा कहा।

परसाई जी ने कहानियां, उपन्यास, ललित और विचारपरक निबंध और लघुकथाएं लिखी हैं उनमेें सामाजिक-राजनैतिक चेतना है और एक सुसंगत समझ भी है। प्रस्तुत शोधात्मक मेरे इस लेख में परसाई जी के व्यंग्य साहित्य में सामाजिक7राजनैतिक संदर्भाे को व्यक्त करने का विनम्र प्रयास किया गया है। उनकी दृष्टि किसी भी तत्व को यथातथ्य स्वीकार नहीं करती।

हरिशंकर परसाई 22 अगस्त 1924 को मध्यप्रदेश के होसंगाबाद के जमानी में पैदा हुए थे। उनके कई व्यंग्य, निबंध संग्रह, उपन्यास, संस्मरण प्रकाशित हुए। इन व्यंग्य में पगडंडियों का जमाना, सदाचार का तावीज़, वैष्णवन की फिसलन, विकलांग श्रद्धा का दौर, प्रेमचंद के फटे जूते, शिकायते मुझे भी है, तिरछी रेखाएं, ठिठुरता गणतंत्र, ऐसा भी सोचा जाता है, तुलसीदास चंदन घिसै चंद नाम हैं। परसाई जी साहित्यिक पत्रिका ‘वसुधा’’ के संस्थापक और संपादक थे। हरिशंकर परसाई हिंदी की वो मशहूर हस्ती हैं जिन्होंने अपनी लेखनी के दम पर व्यंग्य को एक विधा के तौर पर मान्यता दिलाई। उन्होंने अपने व्यंग्य लेखन से लोगों को गुदगुदाया और समाज के गंभीर सवालों को भी बहुत सहजता से उठाया। व्यंग्य लेखन से हिंदी साहित्य को समृद्ध बनाने और उनके बहुमूल्य योगदान के लिए उन्हें 1982 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित भी किया गया है।

अब मैं हरिशंकर परसाई जी का एक दिलचस्प व्यंग्य रचना ‘वह जो आदमी है न’ परसाई जी का एक व्यंग्य है। हरिशंकर परसाई एक प्रसिद्ध व्यंग्यकार और हास्यकार थे। उनकी रचनाओं में मानवीय मूल्यों और प्रकृति का वर्णन किया गया है। उनकी रचनाओं के अनुवाद लगभग सभी भारतीय भाषाओं और अंग्रेज़ी में हुए हैं। उनकी सभी रचनाएं ‘परसाई रचनावली’ शीर्षक से छः खण्डों में संकलित है। यहां पर एक व्यंग्य रचना ़प्रस्तुत कर रहा हूं-‘‘वो जो आदमी है न’’ निंदा में विटामिन और प्रोटीन होते हैं। निंदा खून साफ करती है, पाचन-क्रिया ठीक करती है, बल और स्फूर्ति देती है। निंदा पायरिया का तो शर्तियां इलाज है। संतों को परंिनंदा की मनाही होती है, इसलिए वे स्वनिंदा करके स्वास्थ्य अच्छा रखते हैं। ‘मो सम कौन कुटिल खल कामी।

यह संत की विनय और आत्मग्लानि नहीं है, टॉनिक है। संत बड़ा काइयां होता है। हम समझते हैं, वह आत्मस्वीकृति कर रहा है, परंतु वास्तव में वह विटामिन और प्रोटीन खा रहा है। स्वास्थ्य विज्ञान की एक मूल स्थापना तो मैंने कर दी। अब डॉक्टरों का कुल इतना काम बचा कि वे शोध करें कि किस तरह की निंदा में कौन से और कितने विटामिन होते हैं, कितना प्रोटीन होता है। मेरा अंदाज है, स्त्री संबंधी निंदा में प्रोटीन बड़ी मात्रा में होता है शराब संबंधी निंदा में विटामिन बहुत होते हैं। मेरे सामने जो स्वस्थ सज्जन बैठें थे, वे कह रहे थे-आपको मालूम है, वह आदमी शराब पिता है ? मैंने ध्यान नहीं दिया। उन्होंने फिर कहा-वह शराब पीता है।

निंदा में अगर उत्साह न दिखाओं तो करने वालों को जूता-सा लगता है। वे तीन बार बात कह चुके थे और मैं चुप रहा, तीन जूते उन्हें लग गए। अब मुझे दया आ गई। उनका चेहरा उतर गया था। मैने कहा -पीने दो। वे चकित हुए। बोले-पीने दो, आप कहते हैं पीने दो ? मैंने कहा-हां हम न उसके बाप हैं, न शुभचिंतक। उसके पीने से अपना कोई नुकसान भी नहीं है। उन्हें संतोष नहीं हुआ। वे उस बात को फिर-फिर रेतते रहे। तब मैंने लगातार उनसे कुछ सवाल कर डाले-आप चावल ज्यादा खाते हैं या रोटी ? किस करवट सोते हैं ? जूते में पहले दाहिना पांव डालते हैं या बायां ? स्त्री के साथ रोज संभोग करते हैं या कुछ अंतर देकर ? अब वे ‘हीं-हीं’ पर उतर आए। कहने लगे-ये तो प्राईवेट बाते हैं, इनसे क्या मतलब। मैंने कहा-वह क्या खाता-पीता है, यह उसकी प्राईवेट बात है।

मगर इससे आपको जरूर मतलब है। किसी दिन आप उसके रसोईघर में घुसकर पता लगा लेंगेे कि कौन-सी दाल बनी है और सड़क पर खड़े होकर चिल्लाएंगे-वह बड़ा दुराचारी है। वह उड़द दाल की दाल खाता है। तनाव आ गया। मैं पोलाईट हो गया-छोड़ों यार, इस बात को। वेद में सोमरस की स्तुति में 60-62 मंत्र हैं। सोमरस को पिता और ईश्वर तक कहा गया है। कहते हैं-तुमने मुझे अमर बना दिया। यहां तक कहा है कि अब मैं पृथ्वी को अपनी हथेलियों में लेकर मसल सकता हूं। /ऋषि को ज्यादा चढ़ गई होगी/चेतन को दबाकर राहत पाने या चेतना का विस्तार करने के लिए सब जातियों के ऋषि किसी मादक द्रव्य का उपयोग करते थे। ‘‘वे देश को पश्चिमी सभ्यता के सलाद संग खाते थे, ये जनतंत्र के अचार संग खाते हैं।’’ चेतना का विस्तार। हां, कई की चेतना का विस्तार देख चुका हूं। एक सम्पन्न सज्जन की चेतना का इतना विस्तार हो जाता है कि वे रिक्शेवाले को रास्ते में पान खिलाते हैं, सिगरेट पिलाते हैं, और फिर दुगुने पैसे देते हैं। पीने के बाद वे ‘प्रोलेतारियत’ हो जाते हैं।

कभी-कभी रिक्शेवाले को बिठाकर खुद रिक्शा चलाने लगते हैं। वे यों भी भले आदमी हैं। पर मैंने ऐसे देखे हैं, जो होश में मानवीय हो ही नहीं सकते। मानवीयता उन पर रम के ‘किक’ की तरह चढ़ती है। इन्हें मानवीयता के ‘फिट’ आते हैं-मिरगी की तरह। सुना है मिरगी जूता सुंघाने से उतर जाती है। इसका उल्टा भी होता है। किसी-किसी को जूता सुंघाने से मानवीयता का फिट भी आ जाता है। यह नुस्खा भी अजमाया हुआ है। एक और चेतना का विस्तार मैंने देखा था। एक शाम रामविलास शर्मा के घर हम लोग बैठे थे /आगरा वाले रामविलास शर्मा नहीं। वे तो दुग्धपान करते हैं और प्रातः समय की वायु को ‘सेवन करता सुजान’ होते हैं/। यह रोडवेज के अपने कवि रामविलास शर्मा हैं। उनके एक सहयोगी की चेतना का विस्तार कुल डेढ़ पेग में हो गया और वे अंग्रेजी बोलने लगे। कबीर ने कहा-‘‘मन मस्त हुआ तब क्यों बोले।’’ यह क्यों नहीं कहा कि मन मस्त हुआ तब अंग्रेजी बोले।

नीचे होटल से खाना उन्हीं को खाना था। हमने कहा-‘अब इन्हें मत भेजो। ये अंग्रेजी बोलने लगे। पर उनकी चेतना का विस्तार जरा ज्यादा ही हो गया था। कहने लगे-‘नो सर, नो सर, आई शैल ब्रिंग ब्यूटीफुल मुर्गा। ‘अंग्रेजी’ भाषा का कमाल देखिए। थोड़ी ही पढ़ी है, मगर खाने की चीज़ को खूबसूरत कह रहे हैं। जो भी खूबसूरत दिखा, उसे खा गए। यह भाषा रूप में भी स्वाद देखती है। रूप देखकर उल्लास नहीं होता, जीभ में पानी आने लगता है। ऐसी भाषा साम्राज्यवाद के बड़ें काम की होती है। कहा-इंडिया इज ए ब्यूटीफुल कंट्री। और छुरी-कांटे से इंडिया को खाने लगे। जब आधा खा चुके, तब देशी खानेवालों ने कहा-अगर इंडिया इतना खूबसूरत है, तो बाकी हमें खा लेने दो। तुमने ‘इंडिया’ खा लिया। बाकी बचा भारत हमें खाने दो। अंग्रेज ने कहा-अच्छा, हमें दस्त लगने लगे हैं। हम तो जाते हैं। तुम खाते रहना। यह बातचीत 1947 में हुई थी।

हम लोगो ने कहा-अहिंसक क्रांति हो गई। बाहरवालों ने कहा-यह ट्रांस्फर ऑफ पॉवर है-सत्ता का हस्तांतरण। मगर सच पूछो तो यह ‘ट्रांसफर ऑफ डिश’ हुआ-थाली उनके सामने से इनके सामने आ गई। वे देश को पश्चिमी सभ्यता के सलाद के खाते थे। ये जनतंत्र के अचार के साथ खाते हैं। फिर राजनीति आ गई। छोड़िए। बात शराब की हो रही थी। इस संबंध में जो शिक्षाप्रद बातें उपर कहीं हैं, उन पर कोई अमल करेगा, तो अपनी ‘रिस्क’ पर। नुकसान की जिम्मेदारी कंपनी की नहीं होगी। मगर बात शराब की भी नहीं, उस पवित्र आदमी की हो रही थी, जो मेरे सामने बैठा किसी के दुराचार पर चिंतित था। मैं चिंतित नहीं था, इसलिए वह नाराज और दुखी था। मुझे शामिल किए बिना वह मानेगा नहीं। वह शराब से स्त्री पर आ गया-और वह जो है न, अमुक स्त्री से उसके अनैतिक संबंध है। मैंने कहा-हां, यह बड़ी खराब बात है। उसका चेहरा अब खिल गया।

बोला-है न ? मैंन कहा-हां खराब बात यह है कि उस स्त्री से अपना संबंध नहीं है। वह मुझसे बिल्कुल नाराज हो गया। सोचता होगा, कैसा पत्थर आदमी है यह कि इतने उंचे दर्जे के ‘स्कैडल’ में भी दिलचस्पी नहीं ले रहा। वह उठ गया। और मैं सोचता रहा कि लोग समझते हैं कि हम खिड़की हवा और रोशनी के लिए बनवाते हैं, मगर वास्तव में खिड़की अंदर झांकने के लिए होती है। कितने लोग हैं जो ‘चरित्रहीन’ होने की इच्छा मन में पाले रहते हैं, मगर हो नहीं सकते और निरे ‘चरित्रवान’ होकर मर जाते हैं। आत्मा को परलोक में भी चैन नहीं मिलता होगा और वह पृथ्वी पर लोगों के घरों में झांककर देखती होगी कि किसका संबंध किससे चल रहा है। किसी सत्री और पुरूष के संबंध में जो बात अखरती है, वह अनैतिकता नहीं है, बल्कि यह है कि हाय उसकी जगह हम नहीं हुए। ऐसे लोग मुझे चुंगी के दरोगा मालूम होते हैं। हर आते-जाते ठेले को रोककर झांककर पूछते हैं-तेरे भीतर क्या छिपा है ? ‘‘……….आपकी बेटी हमें ‘चरित्रहीन’ होने का चांस नहीं दे रही है।’’

 

एक स्त्री के पिता के पास हितकारी लोग जाकर सलाह देते हैं-उस आदमी को घर में मत आने दिया करिए। वह चरित्रहीन है। वे बेचारे वास्तव में शिकायत करते हैं कि पिताजी आपकी बेटी हमें ‘चरित्रहीन’ होने का चांस नहीं दे रही है। उसे डांटिए न कि हमें भी थोड़ा चरित्रहीन हो लेने दें। जिस आदमी की स्त्री-संबंधी कलंक कथा वह कह रहा था, वह भला आदमी है-ईमानदार, सच्चा, दयालु, त्यागी। वह धोखा नहीं करता, कालाबाजारी नहीं करता, किसी को ठगता नहीं है, घूस नहीं खाता, किसी का बुरा नहीं करता। एक स्त्री से उसकी मित्रता है। इससे वह आदमी बुरा और अनैतिक हो गया। बड़ा सरल हिसाब है अपने यहां आदमी के बारे में निर्णय लेने का। कभी सवाल उठा होगा समाज के नीतिवानों के बीच के नैतिक-अनैतिक, अच्छे-बुरे आदमी का निर्णय कैसे किया जाए। वे परेशान होंगे। बहुत सी बातों पर आदमी के बारे में विचार करना पड़ता है, तब निर्णय होता है। तब उन्होंने कहा होगा-ज्यादा झंझट में मत पड़ों। मामला सरल कर लो। सारी नैतिकता को समेटकर टांगों के बीच में रख लो।

हरिशंकर परसाई को साहित्य अकादमी पुरस्कार से 1982 में उनके व्यंग्य रचना ‘विकलांग श्रद्धा का दौर’ के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार दिया गया था। हरिशंकर परसाई कहते हैं एक भारतीय टेलीविज़न शो में जिसने हरिशंकर परसाई की कई रचनाओं को एपिसोडिक कहानियों में रूपांतरित किया जो 2000 के दशक की शुरूवात में डीडी नेशनल चैनल पर प्रसारित किया गया था।

1.
अभी-अभी एक आदमी मेरे चरण छूकर गया है। मैं बड़ी तेजी से श्रद्धेय हो रहा हूं, जैसे कोई चलतू औरत शादी के बाद बड़ी फुर्ती से पतिव्रता होने लगती है। यह हरकत मेरे साथ पिछले कुछ महीनों से हो रही है कि जब-तक कोई मेरे चरण छू लेता है। पहले ऐसा नहीं होता था। हां एक बार हुआ था, पर वह मामला वहीं रफ़ा-दफ़ा हो गया। कई साल पहले एक साहित्यिक समारोह में मेरी ही उम्र के एक सज्जन ने सबके सामने मेरे चरण छू लिए। वैसे चरण छूना अश्लील कृत्य की तरह अकेले में ही किया जाता है। पर वह सज्जन सार्वजनिक रूप से कर बैठे, तो मैंने आसपास खड़े लोगों की तरफ गर्व से देखा-तिलचट्टो देखो मैं श्रद्धेय हो गया। तुम घिसते रहो कलम। पर तभी उस श्रद्धालु ने मेरा पानी उतार दिया। उसने कहा-‘‘अपना तो यह नियम है कि गौ, ब्राम्हण, कन्या के चरण जरूर छूते हैं।’’ यानी उसने मुझे बड़ा लेखक नहीं माना था। बाम्हन माना था।

श्रद्धेय बनने की इच्छा मेरी तभी मर गई थी। फिर मैंने श्रद्धेयों की दुर्गति भी देखी। मेरा एक साथी पी-एच. डी. के लिए रिसर्च कर रहा था। डॉक्टरेट अध्ययन और ज्ञान से नहीं, आचार्य-कृपा से मिलती है। आचार्यो की कृपा से इतने डॉक्टर हो गए है कि बच्चे खेल-खेल में पत्थर फेकतें हैं तो किसी डॉक्टर को लगता है। एक बार चौराहे पर यहां पथराव हो गया। पांच घायल अस्पताल में भर्ती हुए और वे पांचों हिंदी के डॉक्टर थे। नर्स अपने अस्पताल के डाक्टर को पुकारती:‘डाक्टर साहब’ तो बोल पड़ते थे ये हिंदी के डॉक्टर।

मैंने खुद कुछ लोगों के चरण छूने के बहाने उनकी टांग खींची है। लंगोटी धोने के बहाने लंगोटी चुराई है। श्रद्धेय बनने की भयावहता मैं समझ गया था। वरना मैं समर्थ हूं। अपने आपको कभी का श्रद्धेय बना लेता। मेरे ही शहर के कॉलेज में एक अध्यापक थे। उन्होंने अपने नेम-प्लेट पर खुद ही ‘आचार्य’ लिखवा लिया था। मैं तभी समझ गया था कि इस फूहड़पन में महानता के लक्षण हैं। आचार्य बम्बईवासी हुए और वहां उन्होंने अपने को ‘भगवान रजनीश’ बना डाला। आजकल वह फूहड़ से शुरू करके मान्यता प्राप्त भगवान हैं। मैं भी अगर नेम-प्लेट में नाम के आगे ‘पंडित’ लिखवा लेता तो कभी का ‘पंडित जी’ कहलाने लगता।

सोचता हूं, लोग मेरे चरण अब क्यों छूने लगे हैं ? यह श्रद्धा एकाएक कैसे पैदा हो गई ? पिछले महीनों में मैंने ऐसा क्या कर डाला ? कोई खास लिखा नहीं है। कोई साधना नहीं की। समाज का कोई कल्याण भी नहीं किया। दाड़ी नहीं बढ़ाई। भगवा भी नहीं पहना। बुजुर्गी कोई नहीं आई। लोग कहते हैं, ये वयोवृद्ध है हैं। और चरण छू लेते हैं। वे अगर कमीने हुए तो उनके कमीनेपन की उम्र भी 60-70 साल हुई। लोग वयोवृद्ध कमीनेपन के भी चरण छू लेते हैं। मेरा कमीनापन अभी श्रद्धा के लायक नहीं हुआ है। इस साल मेरी एक ही तपस्या है-टांग तोड़कर अस्पताल में पड़ा रहा हूं। हड्डी जुड़ने के बाद भी दर्द के कारण टा्रग फुर्ती से समेट नहीं सकता। लोग मेरी इस मजबूरी का नाजा़यज फायदा उठाकर झट से चरण छू लेते हैं। फिर आराम के लिए मैं तख्त पर लेटा ही ज्यादा मिलता हूं। तख्त ऐसा पवित्र आसन है कि उस पर लेटे दुरात्मा के भी चरण छूने की प्रेरणा होती है।

क्या मेरी टांग में से दर्द की तरह श्रद्धा पैदा हो गई है ? तो यह विकलांग श्रद्धा का दौर है। जानता हूं, देश में जो मौसम चल रहा है, उसमें श्रद्धा की टांग टूट चुकी है। तभी मुझे भी यह विकलांग श्रद्धा दी जा रही है। लोग सोचते होंगे-इसकी टांग टूट गई है। यह असमर्थ हो गया। दयनीय है। आओ, इसे हम श्रद्धा दे दें।
हां बिमारी में से श्रद्धा कभी-कभी निकलती है। साहित्य और समाज के सेवक से मिलने मैं एक मित्र के साथ गया था। जब वह उठे तब उस मित्र ने उनके चरण छू लिए। बाहर मैंने मित्र से कहा-‘‘यार तुम उनके चरण क्यांे छूने लगे ?’’ मित्र ने कहा-‘‘तुम्हे पता नहीं है, उन्हे डायबिटीज हो गया है।’’ अब डायबिटीज श्रद्धा पैदा करे तो टूटी टांग भी कर सकती है। इसमें कुछ अटपटा नहीं है। लोग बिमारी से कौन फायदा नहीं उठाते। मेरे एक मित्र बिमार पड़े थे। जैसे ही उन्हें कोई स्त्री देखने आती, वह सिर पकड़कर कराहने लगते। स्त्री पूछती-‘‘क्या सिर में दर्द है ? ’’वे कहते हां, सिर फटा पड़ता है।’’ स्त्री सहज ही उनका सिर दबा देती। उनकी पत्नी ने ताड़ लिया। कहने लगी-‘‘क्यों जी, जब कोई स्त्री तुम्हें देखने आती हैं तभी तुम्हारा सिर क्यों दुखने लगता है ?’’ उसने जवाब भी माकूल दिया। कहा-‘‘तुम्हारे प्रति मेरी इतनी निष्ठा है कि परस्त्री को देखकर मेरा सिर दुखने लगता है। जान प्रीत-रस इतनेहु माही।’’

श्रद्धा ग्रहण करने की भी एक विधि होती है। मुझसे सहज ढं़ग से श्रद्धा ग्रहण नहीं होती। अटपटा जाता हूं। अभी ‘पार्ट टाइम’ श्रद्धेय ही हूं। कल दो आदमी आए। वे बात करके जब उठे तब एक ने मेरे चरण छूने को हाथ बढ़ाया। हम दोनों ही नौसिखिए। उसे चरण अभ्यास नहीं था।, मुझे छुआने का। जैसा भी बना उसने चरण छू लिए। पर दूसरा आदमी दुविधा में था। वह तय नहीं कर पा रहा था कि मेरे चरण छुए या नहीं। मैं भिखारी की तरह देख रहा था। वह थोड़ा सा झुका। मेरी आशा उठी। पर वह फिर सीधा हो गया। मैं बुझ गया। उसने फिर जी कड़ा करके कोशिश की। थोड़ा झुका। मेरे पांवों में फड़कन उठी। फिर वह असफल रहा। वह नमस्ते कर के ही चला गया। उसने अपने साथी से कहा होगा-तुम भी यार कैसे टुच्चों के चरण छूते हो। मेरे श्रद्धालु ने जवाब दिया होगा-काम निकालने के लिए उल्लूओं से ऐसा ही किया जाता है। इधर मुझे दिन भर ग्लानि रही। मैं हीनता से पीड़ित रहा। उसने मुझे श्रद्धा के लायक नहीं समझा। ग्लानि शाम को मिटी जब एक कवि ने मेरे चरण छूए। उस समय मेरे एक मित्र बैठे थे। चरण छूने के बाद उसने मित्र से कहा-‘‘मैने साहित्य में जो कुछ सीखा है, परसाई जी से।’’ मुझे मालूम है, वह कवि सम्मेलनों में हूट होता है। मेरी सीख का क्या यही नतीजा है ? मुझे शर्म से अपने-आपको जूता मार लेना था। पर मैं खुश था। उसने मेरे चरण छू लिए थे।

अभी कच्चा हूं। पीछे पड़ने वाले तो पतिब्रता को भी छिनाल बना देते हैं। मेरे ये श्रद्धालु मुझे पक्का श्रद्धेय बनाने पर तुले हैं। पक्के सिद्ध श्रद्धेय मैंने देखे हैं। सिद्ध मकरध्वज होते हेैं। उनकी बनावट ही अलग होती है। चेहरा, आंखे खीचने वाली। पांव ऐसे कि बरबस आदमी झुक जाए। पूरे व्यक्तित्व पर श्रद्धेय लिखा हो है। मुझे ये बड़े बौड़म लगते है। पर ये पक्के श्रद्धेय होते हैं। ऐसे एक के पास मैं अपने मित्र के साथ गया था। मित्र ने उनके चरण छुए जो उन्होंने विकट ठण्ड में भी श्रद्धालुओं की सुविधा के लिए चादर से पैर बाहर निकाल रखे थे। मैंने उनके चरण नहीं छुए। नमस्ते करके बैठ गया। अब एक चमत्कार हुआ। होना यह था कि उन्हें हीनता का बोध होता कि मैंने उन्हें श्रद्धा के योग्य नहीं समझा। हुआ उल्टा। उन्होंने मुझे देखा। और हीनता का बोध मुझे होने लगा-‘हाय मैं इतना अधर्मी कि अपने को इनके पवित्र चरणों को छूने के लायक नहीं समझता। सोचता हूं, ऐसा बाध्य करने वाला रोब मुझ ओछे श्रद्धेय में कब आयेगा।

श्रद्धेय बन जाने की इच्छा से इस हल्की सी इच्छा के साथ ही मेरा डर बरकरार है। श्रद्धेय बनने का मतलब है ‘नान परसन’ ‘अव्यक्ति’ हो जाना। श्रद्धेय वह होता है जो चीजों को हो जाने दे। किसी चीज़ का विरोध न करें-जबकि व्यक्ति की, चरित्र की, पहचान ही यह है कि वह किन चीज़ों का विरोध करता है। मुझे लगता है, लोग मुझसे कह रहे हैं-‘‘तुम अब कोने में बैठो। तुम दयनीय हो। तुम्हारे लिए सब कुछ हो जाया करेगा। तुम कारण नहीं बनोगे। मक्खी भी हम उड़ायेंगे।
और फिर श्रद्धा का यह कोई दौर है देश में ? जैसा वातावरण है, उसमें किसी को भी श्रद्धा रखने में संकोच होगा। श्रद्धा पुराने अखबार की तरह रद्दी में बिक रही है। विश्वास की फसल को तुषार मार गया। इतिहास में शायद कभी किसी जाति को इस तरह श्रद्धा और विश्वास से हीन किया गया होगा। जिस नेतृत्व पर श्रद्धा थी, उसे नंगा किया जा रहा है। जो नया नेतृत्व आया है, वह उतावली में अपने कपड़े खुद उतार रहा है। कुछ नेता तो अंडरवियर में ही हैं। कानून से विश्वास गया। अदालत से विश्वास गया। अदालत से विश्वास छिन लिया गया। बुद्धिजीवियों की नस्ल पर ही शंका की जा रही है। डॉक्टरों को बिमारी पैदा करने वाला सिद्ध किया जा रहा है। कहीं कोई श्रद्धा नहीं, विश्वास नहीं।

अपने श्रद्धालुओं से कहना चाहता हूं-‘‘यह चरण छूने का मौसम नहीं, लात मारने का मौसम है। मारो एक लात और क्रांतिकारी बन जाओ।’’
विकलांग श्रद्धा का दौर के व्यंग्य अपनी कथात्मक सहजता और पैनेपन में अविस्मरणीय हैं, ऐसे कि एक बार पढ़कर इनका मौखिक पाठ किया जा सके। आए दिन आसपास घट रही सामान्य-सी घटनाओं से असामान्य समय संदर्भो। और व्यापक मानव-मूल्यों की उद्भावना न सिर्फ रचनाकार को मूल्यवान बनाती है बल्कि व्यंग्य विधा को भी नई उंचाईयां सौंपती है।2/हरिशंकर परसाई की साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित कृति ‘विकलांग श्रद्धा का दौर’ से साभार।/
संदर्भ ग्रंथों की सूचीः-
1. प्रसार भारती, दूरदर्शन अभिलेखागार 2008
2. ओपन लाईब्रेरी में हरिशंकर परसाई की रचनाएं
3. प्रसार भारती, ऑल इंडिया रेडियो 6 जनवरी 2003 को लिया गया।
4. हरिशंकर परसाई का व्यग्य साहित्य: डॉ कपिल कुमार

प्रस्तुतकर्ता-लेखक-कवि-महाकाव्यकार एवं समीक्षक
डॉ. रामायण प्रसाद टण्डन एम.ए.एम.फिल.पी-एच.डी
प्रोफेसर एवं विभागाध्यक्ष ‘हिंदी’
शास. ई. के. कन्या महाविद्यालय कांकेर
जिला-उत्तर बस्तर छत्तीसगढ़ पिन-494334
मोबाईल-9424289312/8319332002

 

 

error: Content is protected !!