(मनोज जायसवाल)
-संविधान के दिए मौलिक अधिकारों का ना हो हनन।
वृहत भारतीय समाज जिसकी परिकल्पना देश के महान समाजसेवकों की रही। राजा राममोहन राय जैसे महान समाजसेवी ने स्त्रियों को सती प्रथा से मुक्त कराया तो छूआछूत से लेकर विधवा विवाह के साथ समाज की कई कुरीति कुप्रथाओं को समूल खत्म किया।
अंतिम व्यक्ति का दमन नहीं
लेकिन बहुत चिंतनीय तो आज कई भागों में बंटे उस समाज का है,जहां कई उन व्यावहारिक विषयों को लेकर समाज की कुरीति दूर करने के नाम तथाकथित समाजसेवक लबादा ओढ़े बैठे हैं,जिसका पालन समाज का अंतिम व्यक्त करे, जो नियम लागू करने वाले कर्ताधर्ता हैं,वे स्वयं पालन ना करें। इन्हीं कुछ बातों को लेकर हमेशा टकराहट बना रहता है। कई व्यावहारिक रूप से वे विषय हैं,जिस पर भारतीय संविधान उन्हें पूरी तरह से स्वतंत्रता का अधिकार देता है। अपने अनुसार जीवनयापन,व्यवसाय,जीगिषा जैसे विषयों के नाम पर खलल डालना किसी भी व्यक्ति के मौलिक अधिकारों का हनन है।लेकिन किसी पदाधिकारी के नाम पर अहम पाल कर समाज के अंतिम व्यक्ति का दमन नहीं किया जा सकता।
दुःख समाज से विच्छेदित होने का
देश की ज्यादातर आबादी गावों में बसती है,इसके साथ समाज की आत्मा भी। गावों में समाज संगठन लोगों का आधार है। गांव का हर व्यक्ति समाज की सीमा में रहना चाहता है,जहां समाज से किसी व्यक्ति को विच्छेद किया जाना उनका सबसे बड़ा दुःख का विषय होता है। कई बार बिना किसी अंतिम पत्र लिख कर व्यक्ति आत्महत्या तक कर लेता है। उनके अंदर समाज से अलग होने का इतना दुख होता है कि मरने के बाद भी वह आरोप लगाना नहीं चाहता। बात-बात पर समाज से विच्छेदित किए जाने की बात उनके अंतस में हमेशा सालता रहता है। जब समाज-समाज की रट लगाए कोई समाजसेवी के नाम अति करता है तो पीड़ित व्यक्ति विद्रोही हो जाता है।
मौलिक अधिकारों का हनन
समाज के नाम पर किसी व्यक्ति को समाज से विच्छेदित किए जाने की बातें कुछ लोगों की जुबां में ज्यादा ही सरल हो गया है। उनकी जुबां में उनकी यही अंतिम औकात नजर आने लगता है। अपने पद के घमंड में इतना चूर होता है कि शायद उन्हें यह भी होश नहीं रहता कि देश के हर नागरिक को भारतीय संविधान ने मौलिक अधिकार दिये हैं,जिसे तुम हनन नहीं कर सकते। पति-पत्नी प्रकरण से लेकर समाज से विच्छेद किए जाने के कई प्रकरण कई सालों से अधर में लटका दिया जाता है,जिसके चलते गहन मानसिक अवसाद में लोग अपने भविष्य को लेकर चिंतित दिखायी देते हैं। समाज में उनके भवन के अतिरिक्त लोगों के शिक्षा,स्वास्थ्य,आजीविका के क्षेत्र में सरोकार संदर्भ कभी गंभीरता दिखायी नहीं देता।
बुद्धिजीवियों की कमी है क्या?
स्वयं के समाज में कई अनमोल प्रतिभाएं हैं,जिनका सम्मान दूसरे समाज में हो रहा है,लेकिन स्वयं के समाज में इस प्रकार उपेक्षित किया जाता है,जिसको लेकर असंतोष व्याप्त होता है, ऐसी उपेक्षा किसी दंश से कम नहीं है। कला,संगीत,साहित्य पत्रकारिता,खेल जैसी क्या प्रतिभाएं नहीं है समाज में? बुद्विजीवी वर्ग का क्या इतना ही कमी है। एक टीम के रूप में बैठने के अतिरिक्त क्या कोई काम नहीं रह गया है? समाज के जागरूक वर्ग को अपने साथ सभाओं में आने पर इनकी नाक भौं क्यों सिकुड़ती है? इसलिए कि ये सवाल करेंगे! और इन्हें वे लोग चाहिए जो इनकी बातों पर हां में हां मिलाये!
प्रतिभा से बड़ा नहीं
अपने टीम विशेष की भावना घर कर जाने के चलते ही संभवतया बड़ा भाई छोटे का समाजिक उत्थान पर गंभीर नहीं है। खुद समाज से विच्छेद किए जाने के अपने अहं की तुष्टि के घमंड में चूर नजर आए तो वह समाज सेवक कैसे हो सकता है? कोई भाई उम्र से, आर्थिक धन संपदा से बड़ा हो सकता है,लेकिन किसी छोटे भाई की प्रतिभा से बड़ा नहीं हो सकता। कटू सत्य बात है,जिसे पूरी बेशर्मीपूर्वक स्वीकार करना ही पड़ेगा। वो छोटा भाई जिसे छोटा समझने की बड़ी भूल कर रहे हैं वह भी जीवन के किसी पायदान में ऊपर होता है। फिर यह ना भूलें कि आपका पद और प्रतिष्ठा चिरस्थायी है। एक समय आता है,जब आपके बिस्तर में बीमार पड़े हों तो लोग पूछने तक नहीं आते। ऐसा ना हो, ना ही कोई ऐसा सोचें! अपनी औकात अपने तक सीमित रखें क्योंकि यदि आप अपनी आर्थिक हैसियत पर घमंड करते हैं तो यह दूसरे के लिए कुछ काम का नहीं है। मिथ्या विचार त्यागना ही बेहतर होगा। क्योंकि हर परिवार का पुरूष सदस्य अपने में शेर और संपूर्ण होता है।
सामाजिकता परिवार में जाकर देखें
आपका सामाजिक रूतबा इतना ही है,तो लोगों को चाहिए कि कोई भाई की सामाजिक सोच इतना ही अच्छा है तो उनके खुद के परिवार तक जाकर भी देख लें कि वो अपनों के सीने में पैर रख कर बाहर में अपनी सामाजिकता के नाम झंडे तो नहीं फहरा रहा है। उन्हें नसीहत देने की जरूरत है कि समाज-समाज का रट लगाने वाले तुम अपने परिवार में कितनी सामाजिकता ला पाये हो। अपने किसी भाई के साथ वो अन्याय किये जाने का भागीदार तो नहीं है? क्योंकि व्यक्ति से परिवार और परिवार से ही समाज का निर्माण होता है। समाज में चिल्ला चिल्ला कर बोलने वाले के खुद की आवाज उनके गैर सामाजिक संस्कार होने की बात स्वयं बयां करते हैं।