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 छत्तीसगढ़ी कथा लोक : एक समीक्षा

 समीक्षक – डॉ. किशन टण्डन क्रान्ति
प्रशासनिक अधिकारी

 ‘छत्तीसगढ़ी कथा लोक’ – डॉ. पीसी लाल यादव द्वारा लिखी गई पुस्तक है। इसमें छत्तीसगढ़ी परिवेश की सदियों पुरानी कुल 32 लोक कथाएँ संकलित हैं। यह कृति प्रिंटेड स्कैनर, पटेल पारा रायपुर से मुद्रित होकर शिक्षादूत ग्रंथागार प्रकाशन, समता कॉलोनी रायपुर से प्रथम संस्करण के रूप में सन 2024 में प्रकाशित हुई थी। इस कृति का आई.एस.बी.एन. 978-81- 96863-92-0 है। सर्वाधिकार लेखकाधीन है। इस कृति में  श्री सत्यप्रकाश सिंह के प्रकाशकीय लेख भी शामिल है। 

लोक कथाएँ सदियों से चली आ रही मौखिक एवं काल्पनिक कहानियाँ है, जो अब भी गाँव के चौपाल में बड़े बुजुर्गों से सुनने को मिल जाती हैं। इन कहानियों में लोक जीवन का इन्द्रधनुषी रंग होता है तथा ये प्रेरणा के तत्वों से आपूरित होते हैं। ‘चार पइसा के चार गीत’ लोक कथा की ये पंक्तियाँ इसके गवाह हैं-

 “चोर मन जानिस के डोकरी ओमन ल भागत देखत हे त सब्बे चोर अउ पल्ला मार के भागे लगिन। तब तक लेड़गा सो गे रिहिस। ओहा अपन बिहाव के निक-निक सपना में खो गे रिहिस। चार पइसा के चार गीत’ ह डोकरी के धन-दोगानी ल चोरी होय ले बचा लिन।”

    

डॉ. पीसी लाल यादव छत्तीसगढ़ के माटी में रचे-बसे कलमकार हैं। उनकी कहानियों में भी अनेक स्थानों पर कविता की तरह तुकबंदियाँ देखने को मिल जाती हैं, जैसा कि ऊपर के पैराग्राफ में है। छत्तीसगढ़ की लोक संस्कृति और परम्परा इन कहानियों में अविरल प्रवाहमान होती है। इसमें प्रकृति के सारे उपादान यानी पशु-पक्षी, पेड़-पौधे, खेत-खलिहान, जंगल-पहाड़ सब कुछ बोलते हैं। ‘मितानी’ शीर्षक कहानी की ये पंक्तियाँ इसकी तस्दीक करती है-

“सिकारी घर ले हीरा लेके आइस अउ केछुवा ल दे दिस। केछुवा ह हीरा ल तरिया में फेंक दिस अउ हाँस के कहिस- लालची तोला एक हीरा लेना नहीं अउ मोला दू हीरा देना नहीं। तैं लालची हस। तोर कोई भरोसा नइ हे। दूसर हीरा लेके तैं तीसर घँव घलो आ सकत हस।”
     

 निःसन्देह लोक व्यापक है, लोक कथाएँ उससे भी ज्यादा व्यापक हैं। इस संकलन की कम से कम तीन चौथाई लोक कथाएँ मैं स्वयं विद्यार्थी जीवन में मोहल्ले के बाबा करिया भंडारी, ताऊ मानी बइगा और रँकहीन दादी के श्रीमुख से सुन चुका हूँ और एक अदना सा कहानीकार होने के नाते कई कहानियों को अपने छत्तीसगढ़ी कहानी-संग्रह अरपा भाग- 8 से 11 के अन्तर्गत लिखकर प्रकाशित करा चुका हूँ। 

  महत्वपूर्ण बात यह है कि एक ही प्रकार की लोक कथाओं में कुछ-कुछ भिन्नता है। ये कथाएँ ऐसी है कि जितनी बार सुनो हर बार एक नये कलेवर में रोचक, प्रेरक और मनोरंजक लगती है। महादेव-सहादेव यानी इस संग्रह में संकलित कहानी ‘महादेव के ददा सहादेव’, ‘चतुरा कोलिहा’, ‘टपकवा’, ‘डूमर फूल’, ‘चल रे तुमा बाटे-बाट’ इत्यादि ऐसी लोक कथाएँ हैं, जो कभी विस्मृत नहीं की जा सकतीं। इन कहानियों के पात्र, उनकी सोच, परस्पर वार्तालाप इत्यादि काफी रोचक, मनोरंजक और जिज्ञासा से भरपूर होते हैं। ‘टपकवा’ लोक कथा की ये पंक्तियाँ इसकी साक्षी है-

“बेंदरा ह पूछी छोड़ाय बर जी भर ताकत लगाइस। तहाँ पूछी उखन के बेलदार के हाथ म आगे। बेंदरा भदरस ले पेड़ ले गिरिस अउ धरा रपटा परान बचाके भागिस। बेंदरा ल भागत देखके बघवा घलो गिरत हपटत उलांडी मारत भागिस। देखते देखत पूरा जंगल रीता होगे।”

  छत्तीसगढ़ी लोक कथाओं में कुछ शब्दों या वाक्यों में ऐसी ऊर्जा-ऊष्मा है कि वह भुलाए नहीं भूलते। ऐसे शब्द न केवल उन कथाओं के प्राण होते हैं, वरन वे कालजयी भी होते हैं। मुझे नहीं लगता कि ये शब्द कभी मरेंगे। ऐसे शब्द पाठक के हृदय में गहरी छाप छोड़ते हैं। जैसे सामान्यतः किस्सा के आरम्भ में- ‘एक शहर म’, ‘एक गाँव म’, ‘बहुत जुन्ना बात आय’, ‘ए तइहा के गोठ आय’ फिर किस्सा के आखिरी में – ‘दार भात चुरगे, मोर किस्सा पुरगे’ इसमें परिस्थिति अनुसार कभी-कभी जोड़ दिए जाते थे- ‘ए टूरा घलो सुतगे’ इत्यादि। 

प्रस्तुत पुस्तक– ‘छत्तीसगढ़ी कथा लोक’ की तमाम कहानियों में एक लय है, एक जुनून है, एक धुन है, कई बार लगता है कि इन कहानियों में यथार्थ की अभिव्यक्ति है, जो बदलावों की ओर संकेत करती है। कहानी में कथ्यों में विविधता है। हास्य के पुट भी विद्यमान हैं। ‘चल रे तुमा बाटे-बाट की निम्नलिखित पंक्तियों में उर- अन्तर को गुदगुदाने वाली मनभावन तरंगों को महसूस किया जा सकता है-

“डोकरी तुमा म घुसरगे। तहाँ बेटी-दमांद, नाती-नतुरा सब्बो मिलके तुमा ल रद्दा म ढुलगा दिन। जा रे तुमा बाटे-बाट। तुमा ढुलगत जाय, डोकरी भीतरी ले बोलत जाय- चल रे तुमा बाटे-बाट।”

 

 कहानी लेखक डॉ. पीसी लाल यादव अपनी लेखकीय यानी अपनी बात में अपने हृदय के उद्गार इन शब्दों में व्यक्त करते हैं, जो किसी आवरण या बनावटीपन से पूर्णतः परे हैं- “यह लोक का संकलन है, लोक के लिए है। इसमें मेरा अपना कुछ भी नहीं है। जो कुछ भी है लोक का है।” ये शब्द लेखक की सहृदयता के परिचायक हैं, क्योंकि सृजन के लिए सबसे बड़ी चीज है अपना वक्त देना। फिर ज्ञान, फन और हुनर लगाना। तत्पश्चात पट के पट उसे लेखबद्ध करना। ये कम बातें नहीं हैं। 

इस पुस्तक में संकलित तमाम कहानियाँ छत्तीसगढ़ी साहित्य की अनमोल धरोहर हैं, जो पाठकों के हृदय में गहरी छाप छोड़ती है। यही वजह है कि इन कहानियों को जल्दी से जल्दी पढ़ लेने का मन करता है। फिर भी मन नहीं अघाता। तब पाठक उसे बार-बार पढ़ता है और फिर परिवार के लोगों को भी मजे ले-लेकर सुनाता है।

 

एक वो दौर था, जब फुर्सत के समय गाँव के नौजवान, किसान, किशोर वय के बच्चे, बड़े-बूढ़े सभी चौपाल में, धर्मशाला में, सड़क के किनारे, किसी की परछी में बैठकर बड़े मजे से कहानी सुनते थे। लेकिन अब वो दौर गुजर चुका है। अब सारे श्रोता फेसबुक, व्हाट्सएप, मोबाइल, वीडियो गेम, कार्टून, तरह-तरह के खेल, मूवी इत्यादि देखने में व्यस्त हो गए हैं। अब घर आने वाले मेहमानों को कोई नहीं कहते किस्से-कहानी सुनाने के लिए। उन किस्सों में कई सबक और संस्कार थे। लेकिन आज ये तकनीकें क्या परोस रही हैं, यह किसी से छुपा नहीं है। नैतिक और सामाजिक मूल्यों के पतन का यह एक बड़ा कारण है।

  अनेक छत्तीसगढ़ी कहावतों और मुहावरों का प्रसंगानुकूल सटीक प्रयोग और लोक को प्रेरित और ऊर्जस्वित करने वाली कहानियों से भरपूर ‘छत्तीसगढ़ी कथा लोक’ के आवरण-पृष्ठ के बाद प्रथम पृष्ठ में कथा स्रोत के रूप में क्रमशः स्व. सुरुज बाई यादव गंडई (लेखक की दादी माँ), स्व. महेन्द्र दास वैष्णव, छुईखदान (लेखक के शिक्षक), स्व. भोंगलू राम यादव (लेखक के रिश्ते के काका), श्रीमती मेहतरीन यादव (लेखक की भाभी), श्रीमती राधा यादव (लेखक की धर्मपत्नी) और श्री मन्नूराम कुंजाम (लेखक के ग्रामवासी) एवं अन्य का उल्लेख न होता तो पुस्तक के साथ यह समीक्षा भी अधूरी रह जाती। 

 

डॉ. पीसी लाल यादव स्थापित लेखक एवं कवि हैं। बावजूद किसी जानकार से कृति का सम्पादन हुआ होता तो और बेहतर होता। ‘छत्तीसगढ़ी कथा लोक’ में प्रत्येक पात्र और उनके चरित्रों को बारीकी से उकेरा गया है। प्रस्तुतीकरण एवं शिल्प प्रभावशाली है। भविष्य के लिए ये कहानियाँ एक पुख्ता जमीन तैयार करती हैं। अनेक सम्मानों से विभूषित मीठी जुबान के धनी डॉ. पीसी लाल यादव जी के स्वस्थ-सुदीर्घ जीवन की सत्गुरु से कामना करता हूँ। 

दिनांक : 26/06/2025          

                                                        डॉ. किशन टण्डन क्रान्ति 
                                                            साहित्य वाचस्पति  

          

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