(मनोज जायसवाल)
– किसी स्त्री के साथ गलत लहजों के साथ शब्दों का प्रयोग क्या किसी स्त्री के टूटने के लिए काफी नहीं है?
कोई स्त्री जिस तरह अपनी पलकों में जिससे स्नेह रखती हैं,छिपा कर रखती है,वैसे ही अपनी पीड़ा भी अपने अंतस तक सीमित रखती है। वह अपनी पीड़ा जिससे स्नेह रखती है,उनके पास ही बयां करती है। क्योंकि उन्हें पता है कि उनकी पीड़ा का भी उपहास किया जायेगा।
जो उनकी पीड़ा को समझ सकता है, उस पीड़ा का कद्र भी उनके अपने खास ही कर सकते है। वरन फजीहत ढाने वालों की कमी नहीं है। जिनसे मिल कर जिनसे बात कर उन्हें अपनत्व का पूर्ण बोध हो और अंतहीन पीड़ा के निवारण को दूर किये जाने का अटूट विश्वास भी शुभ भावनाओं के साथ समर्पित रूप से उन पर जो उनके अपनी पलकों के तले होती है। यह कारण है कि स्त्री को सम्मान देने के प्रतिफल स्वरूप वह भी पूर्ण तवज्जो के साथ जिनसे स्नेह रखे उसका सम्मान करती दिखती है।
जिस स्त्री का गुणगान देवता भी ना कर सके या फिर जिस स्त्री को देवता भी पार न पा सके तो हम तो एक साधारण मनुष्य हैं, कैसे पार पा सकते हैं। तत्संबंध में कई और कहावतें हैं,जिसे अलंकार लगा लगाकर स्त्री शक्ति के नाम मंचों पर पुरूषों द्वारा व्यक्त किया जाता है।
लेकिन सार बात तो यह है कि इन विचारों में गंभीरता होनी चाहिए कि तुम्हारा स्त्री के प्रति स्नेह छल,कपट भरा हो तो कैसे आप जान सकते हो। सबसे पहले स्वयं को शुभ भावनाओं के साथ स्नेह का सम्मान करने आना बेहद जरूरी है। कहावतें जो भी व्याप्त रहे पर आपकी भावनाएं शुभ हैं,आपका स्नेह छलकपट से दूर है,तो क्यों ना आप कुछ जान नहीं पाएंगे।
स्त्री के प्रति तमाम छलकपट,उनके स्वाभिमान के विपरीत कृत्य,हर शब्दों में उपेक्षित करने की दिलों में जमी मैल! सबसे बड़ी बात कि सिर्फ पत्थरों के मारने से नहीं अपितु उन के साथ गलत लहजों के साथ शब्दों का प्रयोग क्या किसी स्त्री के टूटने के लिए काफी नहीं है? स्त्री की
चाहत सिर्फ इतनी कि उन्हें इंसान समझा जाये।