(मोनिका शर्मा)
यह प्यारी सी बच्ची बीते दिनों एक कार्यक्रम में दिखी | ध्यान खींचा इसके फुलकारी दुपट्टे और सलवार-सूट ने ।पोस्ट में तस्वीर इस बिटिया की है पर यह बात बेटे-बेटी दोनों के लिए कह रही हूँ-
अभिभावक ख़ुद ही बच्चों को पारम्परिक चीजों से नहीं जोड़ रहे और शिकायत यह कि बच्चे हमारी जड़ों से नहीं जुड़ पा रहे, पारिवारिक रीत-रिवाज नहीं पहचानते, परम्परागत पहनावे को कैरी नहीं कर पाते ।
आजकल कोई भी अवसर हो, बच्चों का पहनावा लगभग एक सा होता है | इसे बच्चों के कमफ़र्ट से जोड़कर भी देखा जाता है और पसंद से भी ।अब हर बार, हर अवसर पर हम सहजता ही चुनेंगे तो बच्चे अलग तरह के परिधान को पहनना और पहनकर ख़ुद को संभालना कैसे सीखेंगे ?
पहनावे से जुड़े इस पक्ष पर बात करने पर आधुनिकता वाले एंगल से अजब-गजब तर्क दिए जाते हैं | पर्सनैलिटी और स्टाइल के मायने समझाये जाते हैं पर व्यक्तित्व विकास का एक पहलू यह भी है कि बच्चे कम से कम अपने परंपरागत परिधानों को पहनना भी सीखें । पहनने से ही इन कपड़ों की कढ़ाई-बुनाई , कपड़े-गोटे का नाम जानेंगे ।
हमारे देश में तो हर राज्य में परिधानों के रंग-ढंग अलग अलग हैं । बच्चे इनके बारे में जाने समझें तो क्या बुरा है ? किसी भी चीज़ को अपनाएं बिना जानना-समझना या उस परिधान विशेष में सहज रहना संभव नहीं।
पहनावे से जुड़ा यह तौर-तरीका जानकारी और जज़्बातों के मोर्चे पर कई चीजों से जुड़ा है | हाँ – इस मामले में भी अभिभावकों की भूमिका बेहद अहम है 🙂