Newsbeat छतीसगढ़ की खबरें राज्य साहित्य कला जगत की खबरें

“पगडण्डी (काव्य-संग्रह)”

विश्व पितृ दिवस
15 जून 2025 ई. सन्

कवि की कलम से…

भारत की आत्मा गाँवों में बसती है। भारतीय समाज मूल रूप से ग्रामीण समाज है। अब भी अधिकांश लोग गाँवों में ही निवास करते हैं। ‘पगडण्डी’ ग्राम्य-जीवन की एक महत्वपूर्ण विशेषता है। शहरों में तो सड़कें होती है। गाँव से शहर बनता है, शहर से गाँव नहीं। इसलिए गाँव ही महत्वपूर्ण इकाई है। यह विश्व समाज का ‘आरम्भ-बिन्दु’ है।

गाँव जीना सिखाता है जबकि शहर सिखाता है- पाना। इंसान के लिए सम्मान से जीना ही मायने रखता है। गाँव की मिट्टी की सौंधी खुशबू मन को छू जाती है। शहर ने ‘सपनों के पंख’ दिए हैं, लेकिन जड़ अब भी गाँव में ही है। देश के वासियों के लिए अन्न गॉंव की मिट्टी में ही उपजते हैं। यहाँ जीवन की सादगी और प्रकृति से प्रत्यक्ष सम्बन्ध अतुलनीय है। यहाँ के रीतिरिवाज, परम्पराएँ और सांस्कृतिक मूल्य अनूठे हैं।

‘पगडण्डी’ ग्राम्य-जीवन के बिम्बों पर ही रची गई काव्य-कृति है, जो लालटेन, तालाब, कुआँ, पनघट, चारपाई, कथरी, तकिया, बैलगाड़ी, अलाव, नदी-नाले, खेती-बाड़ी, हल, बैल, किसान, बर्तन, किरगा, उपले, घूरा, चलनी, सूप, टॉर्च, धरसा, चारागाह, बाजार, पाठशाला, चौपाल, मुनादी, माटी का चूल्हा, लोहे का चिमटा इत्यादि से परिपूर्ण है। इससे जीवन का गहरा रिश्ता है। ‘चिट्ठी’ सुख-दुःख बाँटने का जरिया है तो मेला, सर्कस इत्यादि मनोरंजन के साधन हैं। रोजमर्रा के जीवन की जरूरतों की पूर्ति भी इन्हीं से होती है। ‘ड्रैगनफ्लाई’ यानी फुरफुन्दी को आसमान तले उड़ते देखकर जो खुशी होती है, उसका भी चित्रण है। ‘कोई है?’ कविता जन-जागरण पर बल देती है। ‘खेती-बाड़ी’ में कृषि की पूर्णता के सन्दर्भ में बाड़ी के महत्व को रेखांकित किया गया है। ‘दया बाबा’ रचना ग्राम्य-जीवन में निःस्वार्थ सेवा और परोपकार का अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत करती है। मसलन :-
डॉक्टर द्वारा जवाब दे चुके
मानव और पशुओं को
अपने आयुर्वेदिक ज्ञान से
मौत के मुँह से खींच लाते
पारिश्रमिक- चढ़ावा
वो कुछ भी नहीं लेते।

मैं गाँव में ही जन्मा, पला, बढ़ा और पढ़ा भी हूँ। अब भी गाँव से मेरा जीवन्त रिश्ता है। एक सरकारी अधिकारी होने के बावजूद ग्रामीणों के साथ मिल-बैठकर दुःख-सुख बाँट लेता हूँ। ‘गाँव में’ कविता की ये पंक्तियां इस बात की साक्षी हैं :-
समय की चाक पर
कुम्हार के हाथों से
गुँथी हुई मिट्टियाँ
बदल रही है दीयों में
अन्धेरे के खिलाफ
दो-दो हाथ करने के लिए।

‘पगडण्डी’ मेरी 62वीं कृति है। इसके पूर्व ग्राम्य-जीवन पर आधारित 12वीं कृति- ‘उड़ रहा गाँव’ लगभग पाँच वर्ष पूर्व प्रकाशित हुई थी। पढ़े-लिखे एवं नौकरी पेशा लोगों के साथ हम सबका पवित्र दायित्व है कि गाँव की ओर चलकर गाँवों को उजड़ने से बचाएँ। इसमें हम सबका हित निहित है।
‘पगडण्डी’ के प्रकाशन के शुभ अवसर पर अपने परिजनों, गुरुजनों, प्रशंसकों, दिल अजीज मित्रों एवं प्रकाशक-वृन्द का भी विशेष आभारी हूँ , जिनकी शुभकामनाओं एवं सहयोग के फलस्वरुप ‘पगडण्डी’ कविता-संग्रह मूर्तमान स्वरूप ले सका। यह कृति आपके हाथों में सौंपते हुए मुझे आशा है कि इसे आप सबकी सम्मतियाँ प्राप्त होंगी। सविनय… साभार…। 

 

डॉ. किशन टण्डन ‘क्रान्ति’
   साहित्य वाचस्पति

error: Content is protected !!