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अच्छा हो स्त्री को पैर ना छुवायें … मनोज जायसवाल संपादक सशक्त हस्ताक्षर कांकेर(छ.ग.)

(मनोज जायसवाल)

-छत्तीसगढ में ही देखें तो शादी में बेटी और दामाद का कांस्य की थाली में पैर धोकर पानी लेते हैं ऐसे में कैसे उम्मीद की जा सकेगी कि चाची को पैर ना छुवायेंॽ फिर इस शुभ विवाह में तो इस परंपरा को ही खत्म करना होगा।

देश की संविधान में लोगों को दिए गए मौलिक अधिकारों से दूर स्वतंत्र जीवन जीने के अधिकारों के बीच किस प्रकार से किसी ना किसी नियम में बांधे जाने का प्रयास किया जाता है,समाज में कुछ बनाए गए नियम उसकी बानगी स्वयं बयां करते हैं।

यह नियम संगठन के नाम पर जिसके मन में जो आ रहा है, उन निजी विचारों को सार्वजनिक जीवनचर्या में लागू किये जाने का फरमान जारी किया जाता है। यही कारण है कि जो लोगों का मौलिक जीवन जीने का अधिकार में इसे शुमार किया वो नियम अंततः लोग नहीं मानते। यदि इस पर कडाई कर दिया जाये तो खुद का संगठन कमजोर पडने लगता है। जिंदगी में एक बार आने वाले विवाह पूर्व सगाई में वर-वधू द्वारा हार,अंगुठी नहीं पहनाया जाना। छट्ठी कार्यक्रम में बंदिशें। विवाह संस्कार में कई नियमों के साथ बंदिशें। मृत्यु संस्कार में भी नियमों का पालन पर फरमान। कई दफा कुछ बेहूदे नियमों के चलते आगामी पंचवर्षीय निर्वाचन में उन्हें ये सख्ती सामाजिक सत्ता से भी दूर करती है।

आधुनिक जीवन है। समाज में होने वाली कई संस्कार परंपराए जो उस प्रदेश का भी नहीं है,लेकिन टीवी सीरियल,फिल्में और उसमें निभाये जाने वाली रस्में देख कर भी लोग अपने जीवन में इसे उतारते हैं। छत्तीसगढ की शादियों में नव वधु द्वारा पैरों में महावर लगाकर घर में प्रवेश करना तो इसी तरह मृत्यु संस्कार में काली हंडी लेकर अंतिम संस्कार के लिए रखे शव का सात चक्कर लगाना पहले कहां था। कहीं ना कहीं देन चलचित्र माध्यम रहा। अब इसे ही समाप्त करने के लिए आने वाले में फरमान होगा।

विशिष्ट संस्कृति सभ्यता के देश में प्रणाम की हर राज्यों में परंपराएं हैं। छत्तीसगढ जो माता कौशिल्या की जन्मस्थली है। भगवान राम से भांजे के रिश्ते के नाम यहां के लोग जीवन में भांजा भांजियों को प्रणाम की परंपराए है,चाहे मामा उम्र से बडा क्यों ना हो।

इसी छत्तीसगढ में महिला वर्ग में भाभी देवर देवरानी की, चाची द्वारा भी प्रणाम की परंपराएं विद्यमान है। समाज में चाची को माता तुल्य माना गया है,इसके चलते इस पर विराम लगाये जाने की बातें भी सुनायी दे रही है,उचित निर्णय भी है। लेकिन सबसे अहम बात कि सिर्फ चाची ही क्यों? स्त्री जाति  को  पैर छुने की परंपरा ही क्यों ना खत्म कर देते? स्त्री दैवी तुल्य है,चाहे वो बडी हो या छोटी। राज्यों क्षेत्र के अनुसार जो परंपराएं निभायी जा रही है उसे किसी सख्ती से एकाएक रोका जाना इतना आसान नहीं है। छत्तीसगढ में ही देखें तो शादी में बेटी और दामाद का कांस्य की थाली में पैर धोकर पानी लेते हैं ऐसे में कैसे उम्मीद की जा सकेगीॽ फिर इस शुभ विवाह में तो इस परंपरा को ही खत्म करना होगा।

उत्तर भारत सहित देश के कई राज्यों में न सिर्फ विशेष रूप से चाची के रिश्ते अपितु छोटी कन्याओं से भी प्रणाम नहीं करवाया जाता। अपितु छोटी कन्याओं का पैर छुआ जाता है। छत्तीसगढ में भी नवरात्रि पर्व पर देवी का स्वरूप मानकर नव कन्या भोज करायी जाती है। उनका प्रणाम कर आशीर्वाद लिया जाता रहा है।

अच्छा बात होगा कि सिर्फ चाची ही क्यों? माता तुल्य स्त्री के अन्य रिश्तों से भी अपने पैर ना छुने देने का सोच क्यों नहीं?जब आप स्त्री के एक ही शुभ रिश्तों की बात करते हैं। हर राज्य में रिश्तों को निभाये जाने की अलग परंपरा है। भले ही छत्तीसगढ में अलग हो पर यह किसी समाज के द्वारा लागू किए जाने पर ही जागृत न होने की अपेक्षा स्वमेव अपनी जागरूकता से पालन किया जाना चाहिए। स्वयं अपने में प्रण लेकर लागू किए जाने पर संभव है, समाज के नियमों के चलते ही हम इसे लागू करें ऐसा ना हो।

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