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दुवाओं की परवाह ही किसमें है? मनोज जायसवाल संपादक सशक्त हस्ताक्षर कांकेर छ.ग.

ऐसा लगता है कि दुवाओं की परवाह ही किसमें है?मंदिरों में तमाम वीआईपी हस्तियां मत्था टेकने फिर रहे होते हैं। गरीबों पर भाषण देते नहीं अघाते। दान के नाम पर किसी को दे दें तो तमाम सोशल मीडिया कैमरों के मध्य नाम करने का सोच होता है।गुप्त दान करने वाला रकम  को वहां छुपा देने के नाम दान कर रहा होता है। सब कुछ होगा लेकिन शायद गरीबों के दुआ की किसी को जरूरत नहीं है।
गरीब के घर समुचित व्यवस्था कर वहां खाना खाकर सोशल में वायरल करना यह सब कुछ मतलबीपन साफ नजर आता है। दर-दर भटकते गरीबों को जो 1 रूपये उनकी झोली में डाल देने भर से जुग जुग जीने की दुआएं आज सबको मिथ्या महसुस होता है। तभी तो एक तरफ अपने शान के नाम पर थाली में अन्न की बर्बादी की जाती है तो दूसरी ओर तल्ख अन्न के लिए आज भी देश के कई गरीबों को भूखा सोना पड़ता है।
दशक के उत्तरार्ध तक किन्नरों को दान देना खाली हाथ लौटाना उनसे दुवाएं लेना पुण्य समझा जाता था।आज भी ऐसा माना जाता है। पर अब शायद यह बात भी लोग भूल गए या भूला दिए गए। किसी शादी या अन्य समारोह पर वही बुद्धिजीवी जो नौटंकी नाचने वालों के सिर में पैसा उड़ाकर अपनी शान दिखाना चाहेगा पर किसी भूख से व्याकुल गरीब,प्यास से विहल जानवरों को पानी देना अपनी फितरत के बाहर समझता है।
हालांकि गरीबी की परिभाषा जरूर बदल रहा है पर ऐसा बात नहीं कि जो वास्तव में गरीब हैं उन्हें भी इसकी सजा मिले।अन्न के बाद एक तरफ तन को ढंकने के लिए चितड़े कपड़े से जिंदगी बितायी जा रही है तो दूसरी ओर बड़े अमीर अच्छे कपड़ों को चिथड़े कर देह प्रदर्शन के नाम आधुनिकता का प्रदर्शन कर रहे हैं।

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