”पर्यावरण ”
दर्द मुझे भी होता है।
डाल-डाल काट,निर्जीव मुझे कर देते हैं।
आंसू मेरे भी झरते हैं।
वृक्ष भी विलाप करते हैं।
जंगल उजाड़ विकास न होगा।
पर्यावरण का विनाश ही होगा।
चारों ओर है छाया काला धुआँ ।
आसमान में है कोहरा घना।
ग्लेशियर टूट कर रहे हैं नर्तन।
बे मौसम बारिश कर रहे हैं तांडव।
जल हुआ विष का प्याला
हवाओं में है जहर मिला।
सूखी धरती,सूखे सारे जल भराव।
मूक पशु भूखे प्यासे तड़प रहे।
शहरों की ओर निकल पड़े।
मानव की करनी का सब दंड भुगत रहे।
हे मानव पर्यावरण सुरक्षित रखना है।
वृक्ष लगा हरित क्रांति लाना है।
यह प्रकृति ईश्वर प्रदत्त, अनुपम कृति है।
ऊँचे पेड़ पहाड़ों से सजी धरती है।
नदियों में निर्मल जल कल-कल,छल छल बहती है।
मोर नाचते,पक्षी गीत सुनाते हैं।
रंग बिरंगी परियों सी तितली।
फल,फूलों से डाली भरी -भरी।
तुमने उनका रूप विद्रूप किया।
हे मानव अब तो जागो, जाग जाओ।
दृढ़ संकल्प तुम्हें लेना है।
“सब मिलकर वृक्ष लगायेंगे”
“पर्यावरण बचायेंगे”
“पर्यावरण सुरक्षित रखना है “।