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प्रेस की स्वतंत्रता राजनीतिक महात्वाकांक्षा कितनी?मनोज जायसवाल संपादक सशक्त हस्ताक्षर छ.ग.

(मनोज जायसवाल)
आज तो हम छोटे बैनर बडे बैनर में मतभेद पाले बैठे हैं। उनके साथ न रहना। उन्हें फर्जी कहना जैसी कई बातें हैं जो मत ही नहीं पल पल मनभेद करा रही है। बची बात स्वतंत्रता की तो स्वतंत्रता का अधिकार सभी को है, मगर उस स्वतंत्रता का हम किस प्रकार से प्रयोग कर रहे हैं?

चिंता प्रेस के स्वतंत्रता की
स्वतंत्र पत्रकारिता के क्षेत्र में कई चुनौतियों के साथ कई रोड़े भी हैं। राज्य सरकारें पत्रकारों की मांग पर चिंतित तो दिखायी देती है,लेकिन उनकी मांग के संदर्भ राजनीतिक महात्वाकांक्षा का अभाव नजर आता है। छत्तीसगढ़ जैसे प्रदेश में पत्रकारों के हित में पत्रकार सुरक्षा कानून सदन में पास कर दिया गया जिस पर पत्रकारों में खुशी दिखायी दिया। लेकिन एक धड़ा इसमें उल्लेखित प्रावधानों से इसलिए संतुष्ट नहीं है कि उन्हें नहीं लगता कि इन बिंदुओं के तारतम्य वो फायदा पत्रकारों को नहीं मिल पायेगा जिसकी परिकल्पना वे कर रहे थे।

पत्रकारिता में क्या उन पहुंचे लोगों को ही यह नाम दें, बाकि अंतिम पंक्ति में बैठे कलमकार को क्या कहें जो स्थिती परिस्थती देख कर स्वयं में कभी आत्मविश्वास डगमगा जाता है, कि वो किस नाम से अपना परिचय दें! कई पत्रकार फर्जी मामलों में जहां फंसाये जाने का दंश झेल रहे हैं, तो कई लोगों को जिनका कोई लेना देना भी नहीं बावजूद इस बात का विद्वेश है कि वह लिखता है।

कौन हैं, पत्रकार
क्या घटना दुर्घनाओं का संदेश या खबर लिखने वाला ही पत्रकार है? स्वतंत्र पत्रकारिता भी क्षेत्र है। आज भी कई प्रतिभा जो अच्छी आलेख,कविताएं आदि लिख लेते हैं,और लिख कर अपने पास रखते हैं,वे उसका प्रकाशन तक नहीं करा पाते। शासकीय सेवारत लोग तो और भी बेहद सोच कर ही कोई आलेख सार्वजनिक करते हैं। यही नहीं कुछ तो यह मान लेते हैं कि पत्रकार को ही लिखने का अधिकार है। जबकि बड़े साहित्यकार एवं हिन्दी साहित्य के जानकार जानते हैं कि पत्रकारिता तो अथाह हिन्दी साहित्य के सागर की एक विधा है। जिसमें प्रतिभा है हर वह व्यक्ति निश्चित ही लेखन कर सकता है। सोशल मीडिया,पोर्टल चैनलों की धमक से पत्रकारिता का क्षेत्र और भी विस्तृत हुआ है।अपनी स्वतंत्र अभिव्यक्ति के लिए सोशल मीडिया पटल बेहतर मंच साबित हुए हैं।

अतिम सिरे पर सुदूर जगहों पर अपनी जान जोखिम में डाल कर काम कर रहे खबरनवीस सिर्फ और सिर्फ अपने बलबुते उन बडी कंपनियों के लिए काम कर रहा होता है, जहां मौका पडने पर वही कंपनी उनका साथ देगी या नहीं यह कहना मुश्किल है। कटू सत्य यह देखा जाता है, कि हमेशा उक्त कंपनी का हित साधने वाला खबरनवीश समय पडने पर अलग थलग पड जाता है। काम आते हैं तो उनके कुछ पत्रकार साथी या परिजन।

कुल मिला कर कहें तो वह स्वयं सुरक्षित नहीं है तो किसकी जिम्मेदारी लेगा। वही पुलिस जिनके घटना दुर्घटना या अन्य अवसरों पर आम लोगों को राहत पहूंचाने का काम करने वाला खबरनवीस जो उन्हें जानकारी देता है? किसी पत्रकार को कितना सहयोग कर पाता है,यह लिखने वाली बात नहीं है।

जबकि एक ग्रामीण पत्रकार हमेशा अपनी सजगता से न पुलिस अपितु जनता की भलाई के लिए अपने घर परिवार त्याग कर हर समय सक्रिय होता है। पिता से आस बंधाये उस पुत्र को क्या जवाब दें या उस पत्नी को क्या जवाब दें जो देर रात्रि तक अपने पत्रकार पति का रास्ता देख रही होती है। बावजूद आप का नजरिया कैसा होता है? कई जगहों पर बेफिजुल बातों के लिए बदनाम और सुदूर अंचलों से तो टुच्चु काम करने से भी कई असामाजिक तत्व बाज नहीं आते।

बावजूद इसके उन सारे बातों को साम्य बनाते चलना पडता है। पल पल बुराई करने से पहले एक दिन ही सही वह काम स्वयं में कर देख लिया जाय तो पता चलेगा कि किन संघर्षों में किन राहों में हम चल रहे होते हैं। इतने के बावजूद हमें आज क्या मिल रहा है। समाज सरकार से हमारी अपेक्षा हमारी न सही परिवार के लिए तो हो ना?

कम पढ़े लिखे धीर गंभीर विचारों वाले नहीं होने के चलते भी कभी-कभी अपने को ऊंचा बड़ा और दूसरों को नीचा समझने वाले कई जो स्वयं को कलमकार मान बैठे हैं,दूसरे कलमकारों यहां तक कि लेखकों की बुराई से बाज नहीं आते। संकीर्णता,बेशर्मी इतना है कि समाजउत्थान परक आलेखों पर भी अपनी घृणित अपने में शुमार आदतों जिसमें किसी को ब्लेकमेलिंग के नाम पैसे में स्वयं बिके कुछ दूसरे बौद्विक क्षमता वालों पर आरोप लगाते देखे जा सकते हैं।

इन्हें कौन बताए कि खुद के घर कांच के बने हों वहां पत्थर नहीं मारा करते। खबरों पर टीका टिप्पणी समझ आती है,जो आलेख क्या होता है,वह नहीं जानते वे आलेख के संदर्भ में कमेंट करते नजर आते हैं। वैसे भी जिन विषयों पर तल्ख समझ ना हो उस पर ना बोलें तो ही उचित होगा।

 

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