कांकेर में वह पत्थर मौजूद जिस पर बैठ लिखते थे, रचनाएं मनोज जायसवाल संपादक सशक्त हस्ताक्षर कांकेर छ.ग.

(मनोज जायसवाल)
-भंडारीपारा कांकेर में आज भी वह पत्थर मौजूद जहां बैठकर लिखते थे रचनाएं।
– कांकेर स्थित ऐतिहासिक नरहरदेव स्कूल में थे अध्यापक
पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी का जन्म 27 मई, 1894, राजनांदगांव, छत्तीसगढ़, भारत में हुआ था। इनके पिता श्री पुन्नालाल बख्शी खैरागढ़ के प्रतिष्ठित व्यक्ति थे। 14वीं शताब्दी में बख्शी जी के पूर्वज लक्ष्मीनिधि राजा के साथ मण्डला से खैरागढ़ में आये थे और तब से यहीं बस गये।
बख्शी के पूर्वज फतेह सिंह और उनके पुत्र श्रीमान राजा उमराव सिंह दोनों के शासनकाल में उमराव बख्शी राजकवि थे।सन् 1913 में लक्ष्मी देवी के साथ उनका विवाह हो गया। 1916 में उन्होंने बी.ए. की उपाधि प्राप्त की। पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी बी. ए. तक शिक्षा प्राप्त करने के साथ-साथ साहित्य सेवा के क्षेत्र में आये और सरस्वती में लिखना प्रारम्भ किया। इनका नाम द्विवेदी युग के प्रमुख साहित्यकारों में लिया जाता है।
सन् 1920 में यह सरस्वती के सहायक संपादक के रूप में नियुक्त किये गये और एक वर्ष के भीतर ही 1921 में वे सरस्वती के प्रधान संपादक बनाये गये जहाँ वे अपने स्वेच्छा से त्यागपत्र देने (1925) तक उस पद पर बने रहे। सन् 1929 से 1949 तक खैरागढ़ विक्टोरिया हाई स्कूल में अंगेजी शिक्षक के रूप में नियुक्त रहे। कांकेर में भी कुछ समय तक उन्होंने शिक्षक के रूप में काम किया। तब ‘सरस्वती’ हिन्दी की एक मात्र ऐसी पत्रिका थी जो हिन्दी साहित्य की आमुख पत्रिका थी। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के संपादन में प्रारंभ इस पत्रिका के संबंध में सभी विज्ञ पाठक जानते हैं। सन् 1920 में द्विवेदी जी ने पदुमलाल पन्नालाल बख्शी की संपादन क्षमता को नया आयाम देते हुए इन्हें ‘सरस्वती’ का सहायक संपादक नियुक्त किया।
फिर 1921 में वे सरस्वती के प्रधान संपादक बने, यही वो समय था जब विषम परिस्थितियों में भी उन्होंने हिन्दी के स्तरीय साहित्य को संकलित कर सरस्वती का प्रकाशन प्रारंभ रखा।1903 में आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने सरस्वती का सम्पादकीय कार्य प्रारम्भ किया था। हिन्दी साहित्य के नन्दनवन को बनाने में भारतेन्दु हरिश्चंद्र, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल और अन्य प्रबुद्ध विद्वानों का अवदान व परिश्रम तथा जागरूक बुद्धिमत्ता का ही प्रतिफल है। उसी साहित्यिक नन्दनवन में द्विवेदी जी के स्नेह संरक्षण व कुशल मार्ग निर्देशन में बख्शी रूपी कल्पतरु का भी विकास हुआ जिनकी रचनाओं के सौरभ से हिन्दी साहित्य की मंजूशा सुरभित हुए बिना न रह सकी। यही कारण है कि बख्शी जी आचार्य द्विवेदी जी के उत्तराधिकारी माने जाते हैं।
1969 में सागर विश्वविद्यालय से द्वारका प्रसाद मिश्र (तत्कालीन मुख्यमंत्री) द्वारा डी.लिट् की उपाधि से विभूषित किया गया। इसके बाद उनका लगातार हर स्तर पर अनेक संगठनों द्वारा सम्मान होता रहा, उन्हें उपाधियों से विभूषित किया जाता रहा जिसमें मध्य प्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन, मध्य प्रदेश शासन आदि प्रमुख हैं। सन 1949 में उन्हें हिन्दी साहित्य सम्मलेन द्वारा साहित्य वाचस्पति से विभूषित किया गया ।