कहानी देश

”शहरिया पेड़” श्रीमती रजनी शर्मा ‘बस्तरिया’ शिक्षिका साहित्यकार‚रायपुर(छ.ग.)

साहित्यकार परिचय:
रजनी शर्मा ‘बस्तरिया’
माता: पिता स्व.श्रीमती सीता दुबे‚ स्व. श्री सी.डी. दुबे पति – श्री अजय शर्मा‚ सुपुत्री– पुर्वी‚ प्रकृति

जन्म- 15 मार्च 1967

शिक्षा- बीएससी, एमए (अंग्रेजी, राजनीति शास्त्र), एम. एड.

प्रकाशन- बस्तर की पृष्ठभूमि पर लगभग 14 पुस्तकें प्रकाशित एवं बस्तर की पृष्ठभूमि पर सर्वाधिक किताब लिखने वाली छत्तीसगढ़ की एकमात्र महिला लेखिका। बस्तर के समाधि स्तंभ एवं भित्ति चित्र, पंच शिल्प व बस्तर, अनोखा बस्तर, बस्तर के अनोखे पर्व, बस्तर के लोक नृत्य अलंकार (एस. सी. ई. आर. टी. रायपुर द्वारा स्कूली शिक्षा के लिए चयनित)स्किल सेल पर लिखी किताब साक्षरता विभाग द्वारा नव साक्षरों के लिए चयनित। देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में कहानियों, कविताओं का निरंतर प्रकाशन।

सम्मान- अति विशिष्ट राज्य शिक्षा स्मृति सम्मान बलदेव प्रसाद मिश्र पुरस्कार माननीय राज्यपाल द्वारा प्राप्त एवम् 50 हजार रुपए पुरस्कार राशि प्राप्त।छत्तीसगढ़ हिन्दी साहित्य मंडल उत्कृष्ट लेखन के लिए पुनर्नवा पुरस्कार 2016, उतराखंड द्वारा एन.एम.यू.आई. साहित्य पुरस्कार 2017,सायलेंट वर्कर छत्तीसगढ़ 2017,अखंड ब्राह्मण समाज द्वारा साहित्य के लिये पुरस्कार प्राप्त 2017,
सद्भावना साहित्य पुरस्कार 2016, वक्ता मंच द्वारा उत्कृष्ट रचनाकार पुरस्कार 2018, संभाग स्तरीय सर्वोच्च पुरस्कार ‘मुख्यमंत्री गौरव अलंकरण शिक्षाश्री 2019’

सम्प्रति-  व्याख्याता (अंग्रेजी) मायाराम सुरजन शासकीय हायरसेकेण्डरी स्कूल चौबे कालोनी‚रायपुर

संपर्क :  116, सोनिया कुंज, देशबंधु प्रेस के सामने, रायपुर (छत्तीसगढ़)
चलभाष : 9301836811

 

”शहरिया पेड़”

आज तो मेरी पत्तियाँ भी झुलस रही हैं । अरे गर्मी से नही । उस सूरज महाराज की कृपा है । जो मछुआरा बन पानी को फांसता फिर रहा है । ए.सी. से गर्म हवाओं ने मुझे पूरी तरह से झुलसा ही दिया है ।
क्या कहा ?
जरा जोर से बोलो!
मेरी उम्र हो चुकी है
और आजकल मैं जरा ऊंचा सुनता हूं ।
नाम ?
नाम मेरा पेड़ ही तो है !
अच्छा तुम चाहो तो शहरिया पेड़ कह सकते हो !
पहचान , पैदाइश , कुल , गोत्र ?
सब बताता हूं भई । जरा धीरज तो धरो…।
मेरी पैदाइश यहीं शहर दीवार के पीछे ही हुई थी । मेरी नन्हीं कोंपलों का अन्नप्राशन धूल व बारिश के रीसते पानी से ही हुआ था ।

 

कौन-कौन आया था ?
हाँ आए थे बहुत से मेहमान ।

कहां उगे थे?
घर के पिछली दीवार पर मैं उगा था।

 

तुम्हारे विशाल काया से उस घर के बच्चों पर क्या प्रभाव पड़ा ?
उस घर में कंचों सी आंखों वाला बच्चा जो झांक – झांक कर मुझे देखता था । बच्चा शायद सोचता था कि बिना गमले , मिट्टी के भी भला कोई पौधा उगता है क्या ? उसने तो शहर में महंगे कलेवर वाले गमलों में , नर्सरी से मंगाई गई नाजुक पौधों को ही देखा था । कंपोस्ट खाद के बिना जिनका अस्तित्व ही नही हो सकता है
भई हमारा क्या ? हम तो बहादुर शाह जफर की गजल सरीखे हैं ” ना किसी के आंख का नूर हूं , ना किसी के घर का चिराग हूं “। बहुत बोलता हूं कुछ गलत कहा हो तो माफ करना ! भई मैं जरा ऊंचा सुनता हूं और मेरी याददाश्त भी जरा सुस्त हो रही है ।
पूरी बात इत्मीनान से बताओ!

हां तो हम कहां थे ? मेरे अन्नप्राशन में तो घर की मालकिन भी थी । पड़ोसन भी आई थी । घर की मालकिन को हमारा जन्म लेना जरा भी नही सुहाया था ।वो बुदबुदाती थी ” मुआ जाने कहां से उग आया ” और हम अवतरित भी ऐसे स्थान पर हुए थे कि उनका हाथ हमारे गले तक नही पहुंच पा रहा था । अगर हम गिरफ्त में आते तो कब के काल कलवित हो चुके होते ।
कौन से गोत्र के हो?
अब रही हमारी बात हमारे गोत्र की तो हम बताये देते हैं हम पीपल के वंशज हैं । हमारे सहोदर आसपास के देवालय , मंदिरों , तालाब पार में आपको दिख ही जाया करेंगे । हमारे पूर्वजों की तो शान ही निराली थी । अब रही बात हमारे मिजाज की तो भई अब हम शहर में हैं तो शहरिया ही कहलायेंगे ना ….।
शहर के पेड़ वह भी इतने बदसूरत!
क्या कहा ? बदसूरत , अवांछनीय ?

 

ठीक ही सुना आपने। अगर मन्नत में मांगे गए होते तो आज किसी देवी स्थान , मंदिर , देवालय के या किसी शानदार ड्राइंग रूम में अपने हाथ पैर नुचवाकर कर “बोनसाई” बनकर पसरे होते । खैर भ्रूण हत्या की कोशिश भी हमारे साथ भी की गई थी ।

क्या हुआ था तुम्हारे साथ?

शहर की इमारत के मलमल में हम भैया ” टाट के पैबंद ” । तो हमारी हत्या के लिए क्या-क्या जतन नही किये गये । किसी ने दीवार से गरम पानी रितोया ( बहाया ) , किसी ने एसिड । पर दीवार से ऊपर से नीचे बहते तक कुछ अंश ही हमारा जला । पर कोख बची रही जिससे पुनः नई जड़े फूटी….। जवानी हममें भी ऐसी आयी कि गमले में उगे पौधों की जवानियां भी अश- अश कर उठे । गदराया यौवन , बलिष्ठ शाखाएं , हरीतिक्त पत्तियां ऐसे लचकती थी , जैसे कि इनकी नोकों पर नटनी करतब दिखा हो रही हो । शाखाएं ऐसी कि गमले के पौधों को जिम जाने पर भी ऐसी सुपुष्ट
बॉडी ( देह ) ना मिले ।
रंगत का क्या कहना !कहीं गहरा हरा , कहीं पीला , कहीं ललछौंवा तो कभी सुनहरे रंग की दिखती है मेरी पत्तियां ।

 

शहर की दोपहरी में जब सूरज मछुआरा पानी को फांसता फिरता है तब भी हमारी लुनाई देखते ही बनती है । ” इस सूरज के घनत्व में तरलता है तो वह हमारी छांव है । जब धूप चढ़ती है और धूप में छाँव के बंटवारे होते हैं । तो हमारी पत्तियां बिल्कुल खामोश रहती है । सबसे ऊपर की शाखों पर धूप की कड़ाही में मेरे पत्ते तले जाते हैं तो उन्हें उनके घपचियानेको लेकर कोई मलाल नही होता । क्योंकि नीचे की पत्तियों को सूरज छांव जो बांटता है । “

अपने पक्ष में तुम्हें कुछ कहना है?
जी !
गमले के पौधों के ऊपर तो हरी तालपतरी तानी जाती है फिर भी वो बेचारे झुलस जाते हैं । कीड़े -मकोड़े , पक्षियों , कौओं की बारात मेरे बदन पर ऐसे नाचते हैं जैसे कि महादेव की बारात में भूत , परेत , मसान , पिशाच नाचा किये होंगे । जिसे जहां ठौर मिला वो वहां अपना आसरा बना लेता है । भई हमको तो गमलों के पौधों से बड़ी उलझन होती है ।मुआ एक कीड़ा उनकी देह पर चढ़ा नही की महंगी दवाइयों का छिड़काव उन पर हो जाता था । अब तो गिलहरियों को भी हमने न्यौता दे दिया है ।

 

तुम्हारी शिक्षा दीक्षा?
क्या कहा शिक्षा – दीक्षा ?
हम कभी स्कूल गये ही नही !मंदिर के घंटियों से जागना, चिड़ियों के चहचाहट से गिनती , हमारी भाषा ” धूप – धूप में छाया के अनुवाद से होती है ।” मौसम के अखबार में हमारा रिजल्ट निकलता है । बारिश में तिमाही तो ठंड में छःमाही की परीक्षा होती है । हम बोर्ड की परीक्षा में तभी उत्तीर्ण माने जाते जब पतझड़ में गिरे पत्तों से दोगुने नए पत्ते हमारी देह की अंकसूची में नंबर भरते हैं । कीड़े , मकोड़े , पक्षी , कौंवे , गिलहरी ही हमारे परीक्षक हुआ करते हैं । जो बिना लाग लपेट मौसम के पंचांग में हमारा रिजल्ट छाप देते हैं ।
शहर में उगने के लिए कितनी रिश्वत तुमने दी थी?
शहर में उगने के कारण हमने इसके भारी कीमत चुकाई है । गांव के पीपल में जहां जुगनूओं की बारात सजती है यहां शहर में हमारे तन पर बल्बों की झालर लपेट दी जाती है । इनकी तपिश से मेरे बदन में छाले पड़ जाते हैं । पर इनसे उनको क्या ? ” बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना ” जैसे झालर का सेहरा बांध मैं भी नाच लेता हूं ।

 

तुम्हें किस चीज का डर है?
आज मैंने ऊंची आवाज में किसी से कुछ कहने की आवाज सुनी ।

क्या सुना?
अब इस पेड़ को काटना ही पड़ेगा ! बेकार की गंदगी फैलाता है । जब देखो तब जगह मांगता फिरता है । कभी इस डंगाल ( शाखा ) को कभी उस डंगाल के लिये । और इस मुस्टंडे पेड़ की मुस्टंडई तो देखो खा – खाकर मुटा रहा है । हाँथ – पाँव ( जड़ों ) को फैला रहा है । रामसेतु बन गया है । जिस पर फुदकती गिलहरियां छत पर सुखाई गई गेहूं को खा रही है, मिर्च कुतर रही है और तो और इसकी दादागिरी को देखो । इसकी छाँव अब गमलों के पौधों पर ” बेजा कब्जा ” किए जा रही हैं ।

फिर क्या हुआ?
मेरा तो डर के मारे काटो तो खून नहीं । हे प्रभु मेरी अर्जी कौन सुने ? पर अगले ही दिन दो पेड़ कटईया आये । दोनों ने मेरे अनावृत्त यौवन को तौला, परखा । फिर कहा अभी इससे कोई खतरा नही । इसकी टहनियों को काँट – छाँट कर जरा छोटा कर देते हैं । फिर क्या था । चीरहरण हुआ मेरा , मेरे तन को ढकने वाली शाखाओं , पत्तियों को मेरे तन से हटा दिया गया । मैं शर्म से पानी- पानी हो गया । जाने उन्होंने मुझे जीवित क्यों छोड़ा ? रोज रात को आक्सीजन देने वाला मैं खुद को ही आज निष्प्राण सा महसूस करने लगा हूं । ” मौसम के हरकारे आते , पत्ते डाकिया बन संदेश सुनाते, गिलहरी सुख-दुख बांचती ” । समय बीतता गया । शहर की धूल , ए.सी. की हवा से मेरी सेहत अब खराब रहने लगी । मेरी उम्र हो रही है । पर आज तो समय से पहले ही मृत्यु आ गई हो । ऐसा लग रहा है । बड़ी सी आरी, दरांती लिए दो यम के दूत मेरी ओर बढ़े चले आ रहे हैं । मेरी जड़ों के मकान के टॉयलेट को जाम कर दिया था ना । आज मेरी हत्या निश्चित थी ।

तुम्हारी अंतिम इच्छा क्या है?
मरने से पहले मैं अपनी वसीयत करना चाहता हूं ।

 

मेरी अस्थियाँ किसी मंदिर में रख दी जायें और कोख ( जड़ों ) को किसी गांव में रोप दिया जाय , मेरी अस्थियों से किसी बूढ़े को लाठी मिल जाये , मेरी जड़ के सत्व से किसी मरीज का भला हो जाये । एकाध कोपल किसी चौराहे पर रोप दी जाये । जहां ये अपनी शाखाओं से ,जटाओं से बच्चों की खिलखिलाहट , गिलहरियों की फुदकन , पनिहारिनों का कलश ठौर , संध्या दीपक रखने का अलाव बन सकूं । जानता हूं , यह बहुत बड़ी ख्वाहिश है ।

 

तुमने शहरिया पेड़ होने का गुनाह किया है!
यह यह आरोप सिद्ध हो चुका है!
मेरा गुनाह मुझे पता है कि मैं पेड़ हूं। वह भी शहरिया ! शहर के कंक्रीटों भयावह जाल में मुझ जैसे पेड़ का भला क्या काम ? पर पेड़ तो पेड़ होता है ना ?

प्रकृति रोप दे जहां भी जिसको,
पेड़ वहीं का बाशिंदा हो जाता है ।
ना करो शक मेरी नियत पर,
पेड़ कभी गंवईया
ना कभी शहरिया होता है ।
दे दे जो एक मुट्ठी
माटी और ,
एक मुट्ठी आकाश,
पेड़ उसी का ,
हमसाया हो जाता है ।
पेड़ ना कभी गंवईया,
ना कभी शहरिया होता है…………….

 

 

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