”रस्सी बनाने का छत्तीसगढिया उपकरण”श्री मनोज जायसवाल संपादक सशक्त हस्ताक्षर कांकेर(छ.ग.)

श्री मनोज जायसवाल
पिता-श्री अभय राम जायसवाल
माता-स्व.श्रीमती वीणा जायसवाल
जीवन संगिनी– श्रीमती धनेश्वरी जायसवाल
सन्तति- पुत्र 1. डीकेश जायसवाल 2. फलक जायसवाल
(साहित्य कला संगीत जगत को समर्पित)

छत्तीसगढ़ के लोक जीवन में खासकर कृषि क्षेत्र में कार्य को सरलता से सम्पन्न किये जाने के स्वयं निर्मित वो वस्तुएं है,जो कार्य पूर्ण करते हैं। पहले पहल जब राज्य नहीं बना था, तब तकरीबन 80 के दशक तक रस्सी बनाने और साथ ही इसमें लपेटे जाने का यह उपकरण गावों के गली मुहल्लों में खासकर बुर्जुगों द्वारा इसका प्रयोग किया जाता रहा।
मुख्यतः पहले यहां सन की फसल लगाते थे,जिसका उपयोग रस्सी बनाने में किया जाता था। जमीन में सन लगाने से भुमि की उर्वरा क्षमता भी बढ जाती है,ऐसा मानना था। सन लिनम युसिटाटिसिमम,लिनेसी कुल का यह पौधा फाईबर के साथ इसके धागों से कपडे बनाने में उपयोग किया जाता रहा है।
इस पौधे की उपलब्धता नहीं होने से खट्टा भाजी के पौध जिसे बस्तर क्षेत्र में जिर्रा के नाम जाना जाता है, के पौधे से निकाली जाने वाली धागों से के साथ ही भिंडी के लंबे पौध से भी रस्सी निकाली जाती है। यह सन की फसल नहीं होने पर आप्शन मात्र है,जो कि सन के पौध से निकाले गये रस्सी जैसी क्वालिटी नहीं मिल पाती। ढेरा में बनाये गये रस्सी का उपयोग छत्तीसगढ में गायों को बांधने जिसे गेरवा कहा जाता है, के साथ अन्य कामों में लाया जाता था।
मुख्यतः रस्सी बनाने और बन जाने के बाद इसे इस लकडी से बनाये गये उपकरण में लेपेट कर सुरक्षित रखे जाने के चलते ढेरा कहा जाता था। आज के दौर में यह देखने नहीं मिलता। आधुनिक दौर में सुतली से लेकर प्लास्टिक रस्सी बनाने का काम मशीनों से किया जाता है।
मुख्यतः इस उपकरण को बस्तर क्षेत्र में ढेरा कहा जाता रहा है, क्या आपके यहां भी इसे ढेरा कहा जाता था।