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समाज-‘रोते जीवन बिता देना दुर्भाग्य’ मनोज जायसवाल संपादक ‘सशक्त हस्ताक्षर’ कांकेर छ.ग.

रोते जन्म लेना अभिशाप नहीं
रोते जीवन बिता देना दुर्भाग्य
(मनोज जायसवाल)
दुनिया के हर जीव उसके वर्तमान जीवन में भोग कर लेता है, चाहे कुत्ता, बिल्ली हो या अन्य सभी जीव जंतु। कई जीव जंतु की उम्र बहुत अल्प होती है,वहीं कई जीव जंतुओं की उम्र मनुष्य से भी ज्यादा। अपनी आजीविका के साथ कार्य करना सो जाना कई लोगों के लिए इतनी सी है जिंदगी।

लेकिन इसी बात को समझना है कि मनुष्य जीवन को भोग का समय मानकर नहीं बिताना है। इस अल्प जीवन में ही ऐसा नेक कार्य करें कि इसका प्रतिफल इस जन्म के साथ जन्मजन्मांतर में भी प्राप्त हो।

बड़ा आश्चर्य नहीं तो क्या है कि कुत्ते के बच्चे का आंख सात दिन में बिल्ली के बच्चे की आंख 21 दिन में खुल जाती है। लेकिन कई गंदी घटनाओं को देखकर बड़ा आश्चर्य होता है कि मनुष्य की आंख उम्र की आधी पड़ाव के बाद भी नहीं खुल पाती। वह आकांक्षाओं तले रोता रहता है।

जहां देखें वह दुखी होने की बात करता है। दुखी होने का कारण यह नहीं कि उसके पास खानेपीने के लिए नहीं है,यह भी कारण नहीं है कि उसके पास भौतिक विलासिता के चीजों का भी कमी नहीं है। सब चीज होते हुए भी वह दुखी होता है। जहां देखें वहां कमी का रोना रोता रहता है।

इसी दुखी होने के चलते मनुष्य जीवन के अच्छे समय में ही उनके मुंह सिमट जाते हैं। सत्संग और ईश्वर से दूर होने का नतीजा है यह। पता होना चाहिए रोते हुए जन्म लेना अभिशाप नहीं है, पर रोते हुए जीवन को बिता देना बड़ा दुर्भाग्य है। दुनिया के सारे उन विषयों को हमेशा अपने मन में न रख सब ठीक हो जाने की भावना के साथ प्रेम और शुभ भावों के साथ ईश्वर में अटूट विश्वास के साथ चलें।

ये पंत वो पंत इसमें जायें उसमें जायें जैसी अनेकों नाव में सवार होने से अच्छा है किसी एक नाव में सवार हों। पंतवादी भावनाएं और विश्वास के बावजूद कैसे चार धाम हो आने के बाद भी अपनी कुप्रवृत्तियों को कई मनुष्य छोड़ नहीं पाते तो दुखी कैसे न होंगे।

कैसे जो सनातनी का जन्म हिंदु धर्म मानते पीढी बीत रहा, स्वयं बड़ा हुआ। अपनी युवावस्था में किसी पंत विशेष को धारण कर कैसे अपने घरों से ही उस हिंदु देवी देवताओं की प्रतिमाओं को हटा देता है, बड़ी-बड़ी बातों के माध्यम अपने को बड़ा ज्ञानी मान कर और पैसे की घमंड से मृत्यु संस्कार तक को आडंबर करार देता है।

किस प्रकार से कई गावों में इन्हीं सब पंतवादी विचारों के चलते तनाव की स्थिति निर्मित हुई। कैसे स्वयं इन पंतों में जुड़े खुद अभिभावक माताएं भी अपने स्वयं के समाज में बिटिया का विवाह ना कर उस पंत को मानने वाले किसी लड़के को सौंप देती है और स्वयं अपने मूल समाज से अलग रहती है,जिन्हें अन्य किसी से लेना देना नहीं।  शायद इनके विचारों में खुद अपने को बड़ा ज्ञानी मान बैठा है, इनके नजरीये से दूसरे अज्ञानी है।

 

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