देश पुण्य स्मरण पुस्तक समीक्षा राज्य समीक्षात्मक आलेख साहित्य कला जगत की खबरें

 सतनामी बेटी सहोद्रा माता “एक समीक्षा “

 सतनामी बेटी सहोद्रा माता    ” एक समीक्षा ”

 समीक्षक : डॉ. किशन टण्डन क्रान्ति‚ प्रशासनिक अधिकारी

            ‘सतनामी बेटी सहोद्रा माता’ डॉ. रामायण प्रसाद टण्डन ‘सतनामी’ एवं डॉ. चन्द्रभान ‘चन्द्र’ द्वारा रचित खण्ड-काव्य है। यह कृति प्रथम संस्करण के रूप में सन 2023 में निखिल पब्लिशर्स एण्ड डिस्ट्रीब्यूटर्स आगरा-10, उत्तरप्रदेश से प्रकाशित हुई थी। इस कृति के मुद्रक श्रीपूजा प्रिंटर्स है। शब्द सजा विष्णु ग्राफिक्स के हैं। इस कृति का आई.एस.बी.एन. 978-93-5552-427-0 तथा मूल्य ₹ 125 अथवा $10 है। यह कृति डॉ. चन्द्रभान ‘चन्द्र’ की बेटी स्मृतिशेष संजूलता को समर्पित है। 

            ‘सतनामी बेटी सहोद्रा माता’ खण्ड-काव्य कुल सात सर्गों में विभक्त है। प्रथम सर्ग में सतनामी संतों का पीढ़ी-दर-पीढ़ी यानी कुल 15 पीढ़ियों का परिचय है। द्वितीय सर्ग में सहोद्रा माता के पिता संत शिरोमणि गुरु घासीदास के कृतित्व, तृतीय सर्ग में उनकी माता सफुरा तथा गुरु घासीदास के वार्तालाप, चतुर्थ सर्ग में सहोद्रा जी का जन्म, पंचम सर्ग में सहोद्रा जी का संघर्ष, छठवाँ सर्ग में उनका ब्याह और सातवाँ सर्ग में ससुराल में आडम्बर एवं कुरीतियों के विरुद्ध सहोद्रा माता का सार्थक प्रयास शामिल है।

            पुस्तक के सभी पन्नों में रचनाकार के रूप में डॉ. चन्द्रभान ‘चन्द्र’ का नाम अंकित है। पुस्तक के आरम्भ में रचनाकार द्वारा लिखी गई वन्दना उनकी विस्तृत सोच को दर्शाती है। एक बानगी देखिए : 

                  लेखनी करे प्रेरित जग को,

                  ऐसा लिखने की चाह मेरी। 

                  खुशहाल रहे संसार सकल,  

                  कवि के नाते परवाह मेरी।। 

            मानव-मन जो देखता और अनुभव करता है, उसका मूल्यांकन करने की चेष्टा करता है। लेकिन कई बार मूल्यांकन बाहरी दुनिया तक सीमित रह जाता है। ऐसे में मनुष्य को भीतर झाँकने की जरूरत पड़ती है। ऐसे ही भीतर झाँकने का काम कवि चन्द्रभान ‘चन्द्र’ ने किया है। उनके द्वारा लिखी गई प्रार्थना की ये पंक्तियाँ इसकी गवाह है। 

                  भगवान बुद्ध को नमन करूँ,

                  मैं उनका पथ अपनाता हूँ। 

                  समता ममता करुणा दया,

                  सबका अंदर दीप जलाता हूँ।।

            आत्मचिंतन केवल एक शब्द नहीं, बल्कि साधना है, जो हमें भीतर की परछाइयों से साक्षात्कार कराती है। यह हमें बताती है कि हमारी प्रतिक्रियाएँ, भावनाएँ, पीड़ा और यहाँ तक कि हमारे निर्णय भी हमारे ही अन्तःकरण की उपज है। तभी तो कवि द्वय प्रथम सर्ग में लिखते हैं :  

                  सतखोजन सत्य के अन्वेषक,

                  सत्पुरुष प्रथम कहलाए थे। 

                  वह सन्त प्रथम सतनामी हुए,

                  सच  राह  दिखाने आए थे।।

            जब आत्मचिंतन के दीप से भीतर का अंधकार दूर होकर उजाला फैलता है, तब जीवन का वास्तविक कृत्य संसार भर में फैलता है। लेकिन आत्म स्वीकृति के लिए साहस की जरूरत पड़ती है, वरना अपने दोषों की परवाह किसे है? सामाजिक मूल्यों का रसातल में जाने का कारण यही है। ऐसे समय में भारत भूमि में संतों का अवतरण होता है और वह अपनी वाणी तथा संदेशों से सम्पूर्ण विश्व में उजाला फैलाते हैं। चन्द्र जी की ये पंक्तियाँ इसे स्वर देती है :

                  घासी दरबार सजा करता,

                  गिरौदपुरी  के  आश्रम  में। 

                  भक्तों की भीड़ प्रवचन सुनती

                  रह गुरुवर के अनुशासन में।। 

            सत्य बाहर नहीं, अन्दर प्रस्फुटित होता है। यह दिखता तब है, जब हम अन्दर की ओर देखते हैं और अपने अन्तर्मन को खोजते हैं। फिर यहीं से शुरू होता है वास्तविक तरक्की का सफर। ये आत्मबोध न केवल जीवन की दिशा बदल देता है, वरन जीवन का सर्जक भी बन जाता है। द्वितीय सर्ग में उल्लेखित गुरु घासीदास का कृतित्व इसे प्रकाशित करता है। मसलन :

                  आश्रम था उनका गिरौदपुरी,

                  भक्तों का सुलभ अखाड़ा था। 

                  गुरुवर का हर आदेश जहॉं,

                  उनके भक्तों को प्यारा था।। 

            गुरु घासीदास ने सन्यास धारण नहीं किया, न ही वे हिमालय या गिरि-कन्दराओं में गए। वे गृहस्थ में रहकर ही शिष्यों को उपदेश देते रहे। वास्तव में प्रज्ञावान वही होते हैं, जो जिन्दगी और किताब को साथ-साथ पढ़ते हैं। गुरु घासीदास इस मामले में अव्वल और अलहदा रहे। कवि द्वारा लिखी गई ये पंक्तियाँ इसे पुष्ट करती हैं :

                  श्रम करते थे गुरु घासीदास,

                  श्रम का महत्व बतलाते थे। 

                  सफुरा  जी  के  साथ  गुरु,  

                  जीवन खुशहाल बिताते थे।।

            कवि के चिन्तन का आकाश व्यापक है और विराट हृदय की गहराई सागर से भी अधिक गहरा है। जहॉं नारी सद्गुणों की खान हों, वहाँ सुख, शांति, समृद्धि बसेरा करती है। इसी को लक्ष्य करके तृतीय सर्ग में माँ सफुरा से वार्तालाप में कवि डॉ. चन्द्रभान लिखते हैं :

                  निर्लाभ रहे निष्काम रहे,

                  संकल्प-त्याग जिस नारी में,

                  सन्तोष तपस्या की मूर्ति,

                  हमने  देखी  उस  नारी  में।। 

            आज ज्यादा वक्त किसी के पास नहीं है। हर कोई रोजमर्रा के जीवन की जंग में व्यस्त हैं। इस दृष्टि से सफल कृति वही मानी जाती है, जो ‘गागर में सागर’ की युक्ति को चरितार्थ करें। अर्थात कम पढ़ कर भी जिसके भावों को अधिक समझा जा सके। प्रस्तुत खण्ड -काव्य ‘सतनामी बेटी सहोद्रा माता इसके प्रमाण है। सहोद्रा जन्म चतुर्थ सर्ग की ये पंक्तियाँ इसे ही प्रदर्शित करती है :

                  सन सत्रह सौ अस्सी ईशवी,

                  अगहन का सुदी महीना था। 

                  कन्या सहोद्रा ने जन्म लिया,

                  कितना सुन्दर पावन दिन था।। 

                  खान-पान में माँ सफुरा ने,

                  निज बेटी को दक्ष बनाया। 

                  शिक्षा- दीक्षा दे कन्या को,

                  परहित भी करना सिखलाया।।

            संघर्ष जीवन की कसौटी है। इस संसार में वही सफल हो पाता है, जो संघर्ष करता है। ये संघर्ष ही हर समस्या का समाधान प्रस्तुत करता है, प्रतिकूलताओं में धैर्य बंधाता है और अन्त में विजय का द्वार खोलता है। जीवन में आए दुःख, चिन्ता, तनाव और समस्या ही जीवन का ककहरा सिखाती है। सहोद्रा माता का जीवन भी संघर्षों का पर्याय रहा है, लेकिन उन्होंने कभी हार नहीं मानी। पिता घासीदास जी के साधना काल में अपनी माँ की समाधि पर दीप प्रज्जवलित करती रही। चन्द पंक्तियाँ देखिए :

                  थी घर पर अकेली सहोद्रा,

                  दीपक समाधि पर बार रही। 

                  पारिवारी जन सब आ जायें,

                  सतनाम से यही पुकार रही।।

            संसार की ये रीत है कि बेटी विवाह होने पर पीहर छोड़कर पिया के संग ससुराल चली जाती है। वहाँ अपने सत्कर्मों से दो कुलों की लाज रखती है। दाम्पत्य का निर्वाह करके संतान को जन्म देकर उसे संस्कारवान बनाती है। ससुराल में सम्पूर्ण परिवार के सुव्यवस्थित संचालन का भार उनके कंधों पर आ जाता है। सहोद्रा ने बुधू कुमार से विवाह पश्चात अपने असीम सूझबूझ से ससुराल में सबको खुश रखी। कवि की ये पंक्तियाँ इसकी तस्दीक करती है।

                  धन-धान्य बढ़ा यश कीर्ति बढ़ी,

                  ससुराल सहोद्रा जब आई। 

                  ससुराली जन सब कहने लगे,

                  साक्षात  लक्ष्मी  घर  आई।। 

            कृतित्व ही इंसान का सच्चा परिचय देता है। कर्म ही सच्चा आईना है। सहोद्रा जी ने अपने सद्व्यवहार से सबका मन जीत लिया। तत्पश्चात लोगों को सद्मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करना आरम्भ की। कवि चन्द्रभान ‘चन्द्र’ जी की ये पंक्तियाँ इसके प्रमाण हैं :

                  आडम्बर में मत पढ़ो कभी,

                  सहोद्रा सबको बतलाती थी। 

                  मत करो अंधविश्वास कभी,

                  भ्रम को त्यागो समझाती थी।। 

                  खाने के लिए अगर कुछ है,

                  गम को अपना भोजन जानो। 

                  देने  के  लिए  यदि  है  कुछ,

                  तो दान को अति उत्तम मानो।। 

            निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि ‘सतनामी बेटी सुभद्रा माता’ खण्ड-काव्य में सहोद्रा जी के जीवन-संघर्ष सम्पूर्ण मानवता के लिए अनुकरणीय है। बिलासपुर जिला के मस्तूरी प्रखण्ड के कुटेला ग्राम में स्थित सहोद्रा मैया का स्मारक जन-जन को आत्मनिर्भरता और स्वाभिमान के लिए प्रेरित करते हुए पथ को आलोकित करता है। आज भी सहोद्रा धाम कुटेला में प्रतिवर्ष 23 और 24 दिसम्बर को मेला लगता है, जहाँ दूर- दूर से हजारों श्रद्धालु सहोद्रा माता के स्मारक में असीम श्रद्धा भाव से माथा टेकने आते हैं।

            किसी महान नारी शक्ति के व्यक्तित्व एवं कृतित्व को प्रकाश में लाना प्रशंसनीय है। कवि द्वय अपने इस प्रयोजन में पूर्णतः सफल रहे हैं। भाषा-शैली सरल एवं सुबोध है। ‘सतनामी बेटी सहोद्रा माता’ खण्ड-काव्य को पढ़ कर समझने में पाठकों को कोई कठिनाई नहीं होगी। आवरण पृष्ठ आकर्षक है। छपाई की क्वालिटी उत्तम है। 

 

                डॉ. किशन टण्डन क्रान्ति 

                   साहित्य वाचस्पति

 

error: Content is protected !!