”सनातन पर्व एवं उसकी प्रासंगिकताएं” श्रीमती आरती जायसवाल साहित्यकार रायबरेली उ.प्र.
साहित्यकार परिचय–
श्रीमती आरती जायसवाल
जन्म – बिकई, बम्हनपुर, एन टी पी सी ऊंचाहार रायबरेली, उत्तर प्रदेश
माता -पिता –श्रीमती फूलकली श्री कृष्णलाल जायसवाल
शिक्षा – स्नातकोत्तर हिन्दी साहित्य (इलाहाबाद विश्वविद्यालय )पी.जी.डी.एन.वाय.डॉ.सी.वी.रमन यूनिवर्सिटी, छत्तीसगढ़
प्रकाशन- प्रथम प्रकाशित कृति- कहानी संग्रह,परिवर्त्तन अभी शेष है, सुन्दर वन की मजेदार व प्रेरक कहानियां गद्य-पद्य दोनों विधाओं की अनेक रचनाएँ देश के विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित। संस्थापक – टैलेंट अवॉर्ड 2019,ईसवी से (उपर्युक्त प्रतियोगिता के माध्यम से मेधावी विद्यार्थियों को आर्थिक सहायता व सम्मान प्रदान करना।(नर्सरी से कक्षा बारह तक के छात्र -छात्राओं हेतु उपयोगी सामान्य ज्ञान प्रतियोगिता )
पुरस्कार /सम्मान-सी एस आर गोल्ड अवार्ड (मिस इंटलैक्चुअल ऑफ़ मंथ)2003, युवा कथाकार सम्मान एन बी टी लखनऊ 2014, सारस्वत सम्मान (भारती परिषद प्रयाग 2016) शुद्ध बुद्ध प्रबुद्ध खालसा सम्मान 2016,साहित्य शिखर सम्मान-2016,साहित्य मार्त्तण्ड रश्मि सम्मान-2017कथा श्री सम्मान-2018,उपर्युक्त चार सम्मान प्रदत्त महामाया प्रकाशन रायबरेली उत्तर प्रदेश।
सम्प्रति –
सम्पर्क- आरती जायसवाल कथाकार सम्राट नगर,38,गोरा बाज़ार,रायबरेली, उत्तर प्रदेश-229001
ईमेल – rituaarti33@gmail.com
”सनातन पर्व एवं उसकी प्रासंगिकताएं”
सर्जन करें प्रकाश,जग में फैले उजियारा।
” जगमग-जगमग दीप जले।
सुख-समृद्धि तब हर द्वार पले।
शांति,सौहार्द्र,सब नेह लिए-
लक्ष्मी मैया की कृपा मिले।”
सनातन धर्म के पावन पर्व और धार्मिक मान्यताएँ जीवन में ऊर्जा,हर्ष,उत्साह सद्भावना आदि मानवीय संवेदनाओं की संवाहक ही नहीं अपितु सृष्टि की संरक्षक प्रणाली का भी निर्वहन करती हैं। हमारी परंपराएं एवं मान्यताएँ नकारात्मक ऊर्जा को नष्ट करके सकारात्मक ऊर्जा का अजस्त्र प्रवाह बनाए रखने के सक्षम हैं। हर तीज-त्यौंहार और प्रत्येक मान्यताओं के पीछे केवल आध्यात्मिक कारण ही नहीं बल्कि वैज्ञानिक कारण भी हैं।भले हम उसे नहीं जानते।
हमारे त्यौहारों और उनसे जुड़ी मान्यताओं का गहन अध्ययन करने पर हम स्वतः ही विज्ञान के मूल में पहुँच जाते हैं ।भारत का प्राचीन विज्ञान कितना अधिक विकसित,समृद्ध और ज्ञानपूर्ण रहा होगा,इसका ध्यान करके ही हम आश्चर्य और गर्व के भाव से अभिभूत हो उठते हैं । सनातन धर्म की गौरव पूर्ण परम्परा का संवाहक बन हम वस्तुतः सृष्टि के ही संवाहक ही बनते हैं।
चाहे वह मन्त्रोच्चारण, हवन-पूजन,धूप-दीप ,नैवेद्य,फूल-माला,चन्दन- रोली,इत्र,तोरण और नवीन वस्त्र इत्यादि ही क्यों ना हो इन सब वस्तुओं एवं पूजा विधानों के संयोजन में भी वैज्ञानिक तथ्य छुपे हैं । इन सारी वस्तुओं के एक साथ संयोजन और प्रयोग से हम जिस आनन्द पूर्ण ऊर्जा तथा समरसता और एकाग्रता को ग्रहण कर पाते हैं, उसे शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता।ऐसे ही त्यौहारों की श्रृंखला में है नवरात्र , दशहरा के पश्चात् शरद ऋतु में प्रतिवर्ष मनाया जाने वाला यह दीपों का पर्व असत्य पर सत्य की विजय प्राप्त कर वापस लौटने वाले मर्यादा पुरुषोत्तम प्रभु श्रीरामजी की विजय और हर्षोल्लास का पावन प्रकाश पर्व ‘दीपावली’श्री लक्ष्मीजी-गणेशजी एवं श्री कुबेर जी पूजन और दीपों की श्रृंखला का यह त्यौंहार हमारी संस्कृति को उदात्त बनाता है।
ईश्वर के आगमन की ख़ुशी में घरों की सजावट करना और दीये जलाना अर्थात् खुशियाँ मनाना । साथ ही साथ नकारात्मक शक्तियों का नाश करना इस पर्व का मुख्य उद्देश्य है।वर्षा ऋतु के पश्चात् उत्पन्न कीट- पतंगों और अनगिनत कीटाणुओं को नष्ट करने में सक्षम और दीपों से उत्सर्जित सकारात्मक ऊर्जा हमें बल प्रदान करती है।
अन्धकार पर प्रकाश की विजय ही का श्रेष्ठ उदाहरण और पवित्र उद्देश्य है।पूजा-पाठ में प्रयुक्त सामग्री ,वैज्ञानिक तथ्यों पर आधारित शब्द संयोजनों से उच्चारित मन्त्र हममें सहज भाव से स्वतः ही स्फूर्ति भर देते हैं। पवित्र और मनमोहक सुगन्ध हमारे मन को सन्तोष और सुखद अनुभूति प्रदान करती है।
घोर अँधियारी अमावस्या की रात्रि में दीपावली का यह प्रकाश पर्व हमें यह सन्देश देता है कि-
” अन्धकार कितना भी गहन हो *दीपकों का प्रकाश उससे भी टकराता है और अपना पूर्ण प्रकाश धरती पर फैलाकर अपनी आभा,ऊर्जा तथा शक्ति का आभास कराता हमें जीवन जीने की कला सिखाता है, वहीं आतिशबाज़ी क्षणभंगुर जीवन का सन्देश देता है”
आधुनिकता के साथ-साथ हमारी जीवन शैली में बदलाव भले ही आया हो किन्तु;कुछ वस्तुएँ और मान्यताएँ हमारी परम्पराएं बनकर हमारी संस्कृति का अभिन्न अंग बन गई हैं। हम पुनः प्रकृति की ओर लौट रहे हैं यह सुखद संकेत है। विद्युत् झालरों के स्थान पर मिट्टी के दीये जलाना,कृत्रिम फूल-पत्तियों के स्थान पर आम,अशोक आदि के पत्तों का वन्दनवार और प्राकृतिक फूलों का प्रयोग शुभता और प्रकृति की महत्ता दोनों का अद्भुत संयोजन हमें पर्यावरण के प्रति जागरूक कर हमें शुभ फल प्रदान करता है।
भिन्न-भिन्न रंगों का अनोखा प्रयोग कर द्वार-आँगन में बनी रंगोली हमारे जीवन के विभिन्न आयामों को प्रतिबिंबित करते है। इसमें कुछ भी अनावश्यक नहीं, कुछ भी आडम्बर नहीं,कुछ भी अन्धविश्वास नहीं है बल्कि हर विधि-विधान में मात्र सर्जन और निर्माण ही छुपा है। रंगोली में जीवन के विविध रंगों का दर्शन,दीपों में जीवन जीने की जिजीविषा,धूप और फूलों में जीवन की सरसता का सर्जन,मिष्ठानों में जीवन की मधुरता का सर्जन,मिष्टान्न के आदान-प्रदान में सम्बंधों और सद्भावना का सर्जन,पूजा-पाठ में कृतज्ञता का अमर और अद्भुत सृजन ही छुपा हुआ है।
आइए !हम सब सर्जन करें उस ‘साहस’ का जो जीवनपथ के अन्धकार से टकराने का,सृष्टि के इस अद्भुत तारतम्य को बनाएं रखने का, अपनी परम्पराओं और अपनी मान्यताओं का, हर्ष और उल्लास का,जीवन-आनन्द आदि के अमरत्व भावों का चहुँ ओर प्रकाश फैलाएं।