कविता

रक्तरंजित सूरज! डॉं. अचल भारती वरिष्ठ साहित्यकार बांका(बिहार)

संसार के चबूतरे पर बैठ
देखता हूं
सुवह का सूरज

 

एक – एक बिन्दु जिसका
रक्तरंजित मालूम पड़ता है
वह किसी भेड़ – बकरे का
रक्त नहीं है

 

वह रक्त है
आदि – मनु के
बेटे- बेटी का
हॉं! हॉं! वह मनु
जिसने मानव बीज को
काल – मुख से

 

छीन लाया था
हॉं उसी मनु का अंशथात
नये सूरज के साथ
आह! और कराह !
लिए आया है!

 

 

ठीक हमारे ऊपर
समय के डाल पर
बैठा उल्लू
ऊॅघता है

 

उसी सूरज के साथ
और उसे नहीं मालूम
कि मानव – हृदय के
फटने से

 

आज का सूरज
लाल – लाल हो उठा है
और उसकी छटपटाहट
हम निरीह आदमी की
आंखों में
उतर आई है
साफ – साफ!

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