कविता

”वे ठहरे लोग” डॉ. अचल भारती वरिष्ठ साहित्यकार कवि बांका बिहार

वे ठहरे लोग

वे ठहरे लोग
चेहरे जिनके बोलते हैं
क्ई एक
हार की कहानी

 

जहाॅं
जीवन उनका
एकदम छोटा पड़ गया है
ग्लोव को ही

 

सम्पूर्ण भूगोल मानकर
आस्था भी उनकी
हम सबसे अलग
संघर्ष व संवेग से दूर

क्रियाशील अवस्था में
चक्रवात संभाले
बिभीषिका पाले
अप्रत्याशित मदद की

 

आशा ले खड़े हैं
न जाने कब से?
अरे कब तक खड़े हैं?
वे लोग

 

शायद!
जबतक देखा नहीं
खुद को खुद के
आईने में

 

मसला नहीं जब तक
कर्म को हथेलियों पर
वे ठहरे लोग
ठहरे हैं तबतक

 

ठहरे हैं
——ठहरे रहेंगे!

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