कविता

”रंगमंच की नियति” डाॅं. अचल भारती वरिष्ठ साहित्यकार,बांका(बिहार)

ढकोसला जारी है
आठ- आठ आंसू रोने के
आरोप- प्रत्यारोप का
बाजार है गर्म
मसीहा कहलाने को
पग – पग हो रहा मंत्रोचार
हर आंच की प्रतिक्रिया में
उबल रहा ठन्डा पानी
शासनाधिकार की लिप्सा में
खण्ड- खण्ड होता भूगोल
पाश्विकता की हद में
आबाद होता इतिहास
पूरा का पूरा देश
सिमट आया है
आकाओं व नेताओं की कुर्सी में
संसद आ गयी है
भयानक बाढ़ की चपेट में
बाढ़ बिनाशकारी है
और हो रही संसद
विनष्ट पल – पल |
कोई बताते नहीं
आदमी और देश का मूल्य
कोई देखते नहीं
आदमी और देश की दशा
कोई परखते नहीं
आदमी और देश का चरित्र
सभी चाहते हैं अंधेरा
और उस अंधेरे का लाभ
समीकरण चले जाते हैं बदलते
अंधेरा होता ही जाता जवान
आखिर अंधेरे की
नियति को ओढ़
वे कहाॅं ले जाएंगे
देश व अवाम को?
क्या वे अपने पीछे
जल्लाद का विशेषण
नहीं छोड़ रहे?
अरे !
ताड़ के मंच से
बकना- चिल्लाना
आसान है बहुत
मंच की कुर्सी से छिपकर
नागिया – घात लगाना
आसान है बहुत
समूह – सोच को डॅंसकर
जहरीला कर देना
आसान है बहुत
पर व्यापक – दृष्टि का
न्यायाधीश बन
एक नये
मानव – मूल्य की स्थापना में
हजार – हजार मूल्यों को काट
उसे पारिभाषित कर
उसके तीव्र प्रकाश में
देश व अवाम की
पाचन – शक्ति को
बढ़ा देना
उतना ही कठिन!

LEAVE A RESPONSE

error: Content is protected !!