
”गाथा, शब्द और अभिव्यक्ति की”
डाॅं.अचल भारती
कल तक शब्द कैद था
घुप्प अंधेरे में
डाल दिया गया था
भूत की तंग कोठरी में
पहुॅंचा दिया गया था
जल्लाद के बूचड़ खाने तक
सॅंजा दिया गया था
मठाधीशों के गमलों में
उसका कर दिया गया था संस्कार
‘ गुलामी के शब्द ‘ का नाम देकर
और अभिव्यक्ति को
भटका दिया गया था
जंगलों में कुरास्ते
जकड़ दिया गया था
पुरा- प्रतिमानों के खूंटों से
उपमेय और उपमान सारे
लाध दिये गये थे
बिम्बों की छाती पर
भारी- भरकम पहाड़ बना
और कर दिया गया था
असत्य के रथ पर सवार
हर मोड़ पर
बन्द कर गया था खुला रास्ता
‘ मील का पत्थर ‘ गाड़ कर
और यह भी कह दिया गया था
अब शब्द और अभिव्यक्ति को
कोई नहीं कर पाएगा आजाद
क्योंकि कालजीवी – स्याह – मसीहा की
एक बहुत बड़ी भीड़ ने
ठोंक रक्खी है उसपर कीलें
लेकिन क्या हुआ?
ये दोनों ही हो गये स्वतंत्र
और उनके तमाम खोखले दावे
धरे के धरे रह गये
अभिव्यक्ति के नये क्षितिज पर
‘ आज की कविताओं ‘ के समक्ष |