पत्र नहीं पिता चाहिए
घटना तीस साल पूर्व की है |
ओमनाथ को अमेरिका गए पूरे सत्रह साल हो गये थे | वहाॅं वैज्ञानिकों की पाॅंती में उनका नाम शीर्षस्थ था | उन्हें यह भी ठीक – ठीक याद न था कि वे कब एक साल की बच्ची और तीस साल की पत्नी तथा पचपन बर्षीय पिता को छोड़कर भारत से अमेरिका आए थे |हाॅं इतना अवश्य हुआ कि वे पत्नी व पिता के नाम निर्वाह – खर्च भारत भेजते रहे और बेटी गुड्डी के नाम सांत्वना के शब्द गढ़ – गढ़ कर हवाई चिट्ठियां उड़ाते रहे |
पूरे अड़तालीस साल बाद अचानक उसकी चेतना हिल उठी थी, वे रो पड़े थे बच्चों की तरह फफक – फफक कर | जैसे अस्रू की अविरल धार समा गयी थी स्वदेश की गंगा में | सत्रह साल के पूर्व की एक साल की गुड्डी का अट्ठारवें साल उसके हिसाब से आखिरी पत्र आया था | उसने लिखा था , ‘ पिताजी ! मनुष्य बहुत कुछ पाकर भी और बहुत कुछ पाने की लालसा में न जानें कहाॅं – कहाॅं भटक जाते हैं और अपने भीतर के मनुष्य को समझे बिना ही एक – दूसरे आरोपित मनुष्य पर गर्व करते हैं_ _ _ काश!आप मेरे पिता न होते _ _ _ मैं जानती हूॅं आप वृत्त हैं मेरे लिए लेकिन मेरे वृत्त का केन्द्र तो मेरी माॅं है _ _ _ मेरी तपस्विनी माॅं! और अब माॅं के लिए _ _ सिर्फ माॅं के लिए चीरती हूॅ कलेजा कि मुझे पत्र नहीं पिता चाहिए! ‘
ओमनाथ ने एक आम पाठक की तरह पढ़ा था पत्र को मगर उस पत्र के चित्कार भरे शब्दों ने उसे हिला कर रख दिया था | अब उसका गुरुर ढह चुका था और वह पश्चाताप की आग में जल रहा था |