कविता

”इन्तजार संस्कृति का”डाॅ.अचल भारती वरिष्ठ साहित्यकार बांका,बिहार

”इन्तजार संस्कृति का”
जब विचार
तंग सीमा के पार
खुसबूॅं की तरह
फैलने लग जाएं
हवाओं में
दिशाओं में
और मस्तिष्क की
तमाम खाइयों को पाट
उर्वर भूमी की तरह
उगानें लगें
मानवता की फसलें
आदमी की नस्लें
समझो फिर
तुम्हारी मूल्यवान संस्कृति का
हो गया है उदय
अभी- अभी तुमने
कहा है जो कुछ
वह है
तुम्हारी जंगली संस्कृति
और तुम हो
गिरगिटी- रंग बदलते
खौफनाक भेड़िए
रंगा सियार वो सांप
अभी तुम
आदमी नहीं हो
तुम हो कुछ और – – –
जबकि
तुम में से हर कोई
बंधा नहीं रह पाएगा
अपने- अपने खूंटे से
वह भागेगा अवश्य
एक दिन
मानवीय संबंधों की
एक नयी परिभाषा की तरफ
बशर्ते कि
तुम्हारे मस्तिष्क की उर्वर धरा
फूल तो खिलाए
तुम्हारी भीतर आत्मा से
अंतस खुशबू तो उठे.

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