‘समकालीन’ कविता में सार्थक, सत्यान्वेषी, मूल्य- बोधी एवं मंथन- कविता का उदय डाॅ. अचल भारतीवरिष्ठ साहित्यकार बांका,बिहार
साधारणतया अनुभूति के स्तर पर आदमी और उसके संसार की दोषपूर्ण व्यवस्था तथा उसके तत्संबंधित क्रिया- कलापों एवं यथास्थैतिक सुख- दु:ख जनित संबंधों आदि को, समकाल में उद्घाटित करने की विशिष्ट पद्यात्मक शब्द- कला ही समकालीन कविता है |
इस लिहाज से बहुत हद तक कबीर, पंत, प्रसाद, निराला, बच्चन, अंचल और दिनकर की कविता, समकालीन कविता ही है | इसके उत्तरोत्तर अज्ञेय, धर्मवीर भारती, गिरिजा कुमार माथुर, मुक्तिबोध, शमशेर, भारतभूषण, दुष्यन्त कुमार, श्रीकान्त वर्मा, मुद्राराक्षस, राजकमल चौधरी, कैलाश वाजपेयी, धूमिल, रघुवीर सहाय, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, भवानी शंकर, नागार्जुन, त्रिलोचन, नरेश मेहता आदि से लेकर अबतक के स्थापित कवि भी समकालीन कवि ही सिद्ध होते हैं
लेकिन ऊपर के कवियों का स्तर- भेद और उनकी प्रभावोत्पादकता, उनके भाषा- शिल्प एवं भाव- बोध, प्रयोग की नयी – पुरानी मान्यताओं पर निर्भर करता है| पुराने कवि लगभग छन्द- सौन्दर्य को ही अभिव्यक्ति का उपकरण मानते रहे जबकि कुछ कवियों ने भाषा और शिल्प को लेकर नवीन प्रयोग किये, वहाॅं भाषा की संप्रेषणीयता पर प्रश्न- चिन्ह भी लगे |
और जहॉं सहज, सरल ढंग से नूतन भाव- बोध और नवीन जीवन- दृष्टि को एक सही दिशा देने की चेष्टा की गयी, वहीं सजग – चेतना को संभावना के द्वार तक ले जाने का मार्ग मिला | इससे अलग हटकर जो ठहरकर कुछ देखने या पाने या पीछे लौटने के हिमायती रहे, वे हठधर्मिता और पूर्वाग्रह के शिकार हुए, हताशा, निराशा और कुंठा के दलदल में फॅंसे तथा वे विक्षेप व उत्सर्जन से समाज को गंदला ही करते रहे |
सारांश, समकालीन कविता में निरर्थक, बेजान तथा सार्थक व असरदार दोनों ही प्रकार की रचनाएं हुई और हो रही है | निरर्थक एवं बेजान कविता के अन्तर्गत प्रयोगधर्मी दुरुह कविता, शिथिल कविता, दिशा विहीन कविता, अस्वस्थ कविता जिसका विस्तार प्रयोगवादी कविता, नव्य प्रगतिवादी कविता, अभिनव कविता, प्रपद्य कविता , सनातन सूर्योदयी कविता, बीट कविता, भूखी कविता, कुत्सित कविता, दिगम्बर कविता, बीमार कविता आदि में होता है |
सार्थक एवं असरदार कविता के अन्तर्गत विचार कविता, सक्रिय कविता, खुली कविता, सहज कविता, व्यापक कविता, खोजी कविता, मूल्य- बोधी कविता, मंथन कविता आदि आ जाते हैं | इन समकालीन कविताओं में सामाजिक, मानवीय मूल्यों के संतुलन की गुंजाईस बनी रहती है |
आज का यह युग एक साथ सहज, सार्थक, सत्यान्वेषी, मूल्य- बोधी एवं मंथन कविता का युग है क्योंकि आज अधिकांश कवि ,वादी अथवा रुपवादी होने की अपेक्षा आदमी के हित – चिंतन में सत्यवादी और मूल्य- बोधी होना ज्यादा पसन्द करते हैं |ठीक- ठीक देखा जाय तो मात्र कवि की वैयक्तिक अनुभूति व कृत्रिम तथा पारंपरिक सौन्दर्य- बोध, काव्य- सत्य का एक मात्र प्रमाणिक दस्तावेज व उपकरण नहीं हो सकता | अनुभूति की प्रमाणिकता का सवाल पहले भी उठता रहा है, आज उसे सच्चे अर्थों में प्रमाणित किया जा रहा |
पहले मानव मूल्यों की स्थापना के केन्द्र में काव्य के अभिष्ट- सत्य का नारा ही ज्यादा उछलता रहा, ईमानदारीपू्र्वक वास्तविक एवं मूल- सत्य की खोज बहुत कम हो पाई | इसका एक मात्र कारण यह रहा कि वास्तविक -सत्य की स्थापना के बहाने हमेशा पारलौकिक सत्य, अनगढ़ सत्य, कपोल- कल्पित सत्य, अनहोनी सत्य, चमत्कारिक सत्य, स्व सुखानुभूति सत्य की स्थापना की गयी, और जाहिर है इतने सारे आत्मघाती सत्यों के बीच यथार्थ सत्य की हत्या तो होनी ही थी| ऐसे में अनदेखे और श्रेष्ठ मूल्यों की सत्यता की जांच का एक बहुत बड़ा दायित्व आज की कविता पर है |
आज का यह युग आम और खास के दोराहे पर खडा़ है साथ ही अनेकवाद से ग्रसित पुरानी पीढ़ी की मूल्यहीन अवधारणाओं, मान्यताओं, आस्थाओं, नियमों तथा अवैधानिक रीति- रिवाजों, मिथ्याडम्बरों की पुनर्स्थापना का जड़ता हुआ शिकंजा है, निरन्तर जिसके कसते रहने से संकीर्णता, कट्टरता, सांप्रदायिक हिंसा व आतंक का वातावरण है तो दूसरी ओर भौतिकता के उहापोह में अर्थ, काम, विलासिता, और विप्लव का खुला ताण्डव है, जिसके फल: स्वरूप शोषण, विकृति, अंधी दौड़ व विनाश का खेल बदस्तूर जारी है |
अत: आज की कविता यथार्थ मूल्य- बोध में अनर्गल मिथकों, अप्रमाणिक दन्त कथाओं, अमानवीय पुरा- प्रतिमानों, परा कल्पनाओं, मानवेतर लोकों, मूल्यहीन सर्जनाओं, असंतुलित व्यवस्थाओं, कुरीतियों, शोषणों, व अत्याचारों आदि का बीमार नव्ज देखती है तथा एक व्यापक दृष्टि लिए सत्य की कसौटी पर तार्किक मंथन भी करती है जो चेतना- शून्य प्राणी एवं अस्वस्थ समाज के लिए बेहद उपयोगी हो |
कहना चाहिए आज की कविता के केन्द्र में आदमी और उसका संसार ही है | और यह ध्यातव्य है कि स्वतंत्र परिवेश को प्राप्त कर आदमी की अच्छाईयां और बुराईयाॅं समान रुप से सामने आती है| अगर बुराईयों पर अंकुश न लगाए जांय तो बुराईयाॅं कभी- कभी तीब्र हो उठती है जहाॅं आदमी का अस्तित्व खतरे में पड़ जाता है | यहीं आकर मानववाद की स्थापना आज के कवि का आत्यंतिक लक्ष्य है |
साम्यवाद में निहित मानववाद और आज की कविता में निहित मानववाद में काफी का अंतर है | साम्यवाद का मानववाद पूर्णत: भौतिकवादी व्यवस्था पर आश्रित है, जबकि आज की कविता का मानववाद भौतिक व्यवस्था से उत्पन्न बुराईयों पर भी कड़ी नजर रखे हुए है | निसन्देह आज का मानववाद मानवता के उस केन्द्र में समाहित है जहाॅं से विश्व के हितार्थ एक व्यापक वृत्ताकार परिधि- रेखा खींची जा सके