‘स्त्रियां घर लौटती है’ श्री अजय चंन्द्रवंशी सहा.वि. शिक्षा अधिकारी,साहित्यकार कवर्धा छ.ग.
साहित्यकार परिचय- श्री अजय चंन्द्रवंशी
माता-पिता –
जन्म – 18 मार्च 1978
शिक्षा- एम.ए. हिंदी
प्रकाशन –(1) ग़ज़ल संग्रह भूखऔर प्रेम (2011)
(2) ज़िंदगी आबाद रहेगी कविता संग्रह(2022)
विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में कविता, ग़ज़ल, फ़िल्म समीक्षा, इतिहास और आलोचनात्मक आलेख प्रकाशित
सम्मान – (1)छत्तीसगढ़ प्रदेश हिंदी साहित्य सम्मेलन का राजनारायण मिश्र पुनर्नवा पुरस्कार(2019) से सम्मानित
(2)छत्तीसगढ़ी साहित्य महोत्सव रायपुर द्वारा हरेली युवा सम्मान 2021
सम्प्रति – सहायक विकासखण्ड शिक्षा अधिकारी, कवर्धा
सम्पर्क –राजा फुलवारी चौक, वार्ड न. 10, कवर्धा जिला- कबीरधाम, छ.ग.,पिन- 491995
मो. 9893728320
‘स्त्रियां घर लौटती हैं : सहजता,संवेदनशीलता और प्रतिरोध’
कविकर्म का कोई निश्चित ढांचा नहीं होता; न ही कविता का कोई स्थिर प्रतिमान। कविता हमारी संवेदना को स्पर्श करती है तो विचारों को उद्वेलित भी कर सकती है।मगर कविता में विचार का रास्ता भी संवेदना से होकर ही गुजरता है। ग़रज़ कि कविताई के कई ढंग हो सकते हैं।कवियों के अलग-अलग अंदाज होते हैं, जिन्हें उनकी शैली कह सकते हैं।
कविता सपाट भी हो सकती है तो चित्रात्मक भी।कहीं शब्द चीखते हैं, तो कहीं मौन रहते हैं तो कहीं मद्धम स्वर में।कविता की प्रभाविकता इन सभी रूपो में सम्भव हुआ है,मुख्य बात है कवि की प्रस्तूति की क्षमता।
इस दृष्टि से विवेक चतुर्वेदी की कविताएं मद्धम स्वर की प्रतीत होती हैं। बिना शोर-गुल के अपने मन्तव्य को प्रकट करतीं। वे संवेदना को छूती हैं और विचारों को कुरेदती भी है।इन कविताओं में स्त्री जीवन के कई रूप हैं, विडम्बनाएं है,माता-पिता,घर,परिवार है। लोकजीवन की छवियां हैं, पेड़-पौधें हैं, मजदूर है,किसान है,जीवन की धूप-छाँह है।कुल मिलाकर एक संवेदनशील व्यक्ति का बयान है जो ‘बड़ी-बड़ी’ बातें कहने की अपेक्षा अपने अनुभव संसार की बातें अधिक कहता है।
‘स्त्रियां घर लौटती हैं’ संग्रह में स्त्रियों पर केंद्रित काफ़ी कविताएं हैं। यहां स्त्री की विविध छवि है, वह माँ है,पत्नी है, गांव की है, शहर की है,गृहणी है, कामकाजी है।इन सब में कवि की चिंता उसके स्वाभाविक रूप,उसके स्त्रीत्व,उसके सहज मानवीय रूप के स्वीकार की है।
स्त्री-पुरुष का भेद प्रकृति में नहीं हैं।वहां केवल जैविक लिंग भेद है।बच्चे को जन्म स्त्री देती है इसलिए शिशु का उस पर स्वाभाविक निर्भरता रहता है,तदनुरूप माँ-बच्चे का जैविक-मनोवैज्ञानिक व्यक्तित्व होता है। सन्तानोत्तपत्ति के प्रारंभिक अवस्था मे स्त्री(माँ) को भौतिक सहयोग की आवश्यकता पड़ती है,जिसकी पूर्ति हमारी वर्तमान समाजिक संरचना में मुख्यतः पुरूषों से ही होती है।
मगर इस सहयोग की ‘कीमत’ स्त्रियों को समाज मे ‘द्वितीयक’ स्थिति के रूप में चुकानी पड़ी है, जो उनके साथ किया गया अन्याय है।बराबर और कहीं अधिक श्रम और दायित्व निर्वहन के बाद भी स्त्रियों के अधिकारों का हनन होता रहा है।
इधर समाज मे व्यापक बदलाव और स्त्रियों की जागरूकता और संघर्ष से स्थिति में काफ़ी सुधार हुआ है मगर पूरी तरह नहीं।कामकाजी स्त्रियां अधिकांशतः घर का अधिकांश काम करती हैं। इसलिए
“स्त्रियों का घर लौटना
पुरुषों का घर लौटना नहीं है,
पुरुष लौटते हैं बैठक में, फिर गुसलखाने में
फिर नींद के कमरे में
स्त्री एक साथ पूरे घर में लौटती है
वो एक साथ, आँगन से
चौके तक लौट आती है।”
लेकिन ये सारे काम वे मजबूरी वश नहीं करतीं।यह उनकी सहजवृत्ति है;उनकी कर्मठता और करुणा का द्योतक है
“लौटती है स्त्री, तो घास आँगन की
हो जाती है थोड़ी और हरी,
कबेलू छप्पर के हो जाते हैं ज़रा और लाल
दरअसल एक स्त्री का घर लौटना
महज़ स्त्री का घर लौटना नहीं है
धरती का अपनी धुरी पर लौटना है।।”
इन दोनों बातों में विरोधाभास नहीं है कि स्त्रियां एक तरफ सब जिम्मेदारी सहजता से लेती हैं और दूसरी तरफ अस्मिता का संघर्ष !
वह प्रकृत्या अधिक ममतामयी होती है और उसकी प्रवृति सबको साथ लेकर चलने की होती है, मगर पितृसत्ता उसके ममत्व का गलत फायदा उठाते रहा है जिसका प्रतिकार आवश्यक है।
मगर इस प्रतिकार में भी कुलीनतावाद और नकारवाद की प्रवृति कहीं कहीं हावी होती रही है जिसके लिए कुलीनता और अराजकता ही अस्मिता संघर्ष है!
“मंच पर आभासी था
स्त्री विमर्श
वास्तविक था वो नेपथ्य में
विद्रूप हँसी की डोर से
खींचे जा रहे
लिप्सा और जुगुप्सा के
पर्दों के बीच
अतृप्त वासनाओं से
धूसर ग्रीन रूम के
उस विमर्श में थे
स्त्री के स्तन ही स्तन
फूले और मांसल
ओंठ थे, जाँघें थीं, नितम्ब थे
न था मस्तिष्क, न हृदय
न कविता लिखने को हाथ
न कंचनजंघा पर चढ़ने को पैर
वहाँ अदीब थे, आला हुक्मरान…थिंकर….
यूनिवर्सिटी के उस्ताद थे
पर थे सब बदज़बान लौंडे
नंगे होने की उनमें ग़ज़ब की होड़ थी
शराब में घोला जा
रहा था भीतर का कलुष
गर्म धुँए में तानी जा रही थी
स्त्री की देह…
वहाँ चर्चा बहुत वैश्विक थी
बड़ा था उसका फ़लक
उसमें खींची जा रही थी स्त्री
पहली और तीसरी दुनिया के देशों से
न्यूयॉर्क और पेरिस
नेपाल और भूटान
इज़राइल और जापान”
इंकार स्त्री विमर्श से नहीं उस आभासी विमर्श से है जहां श्रमशील, लोकजीवन की स्त्रियां नेपथ्य में हैं।इसलिए स्त्री को केवल काम नहीं घर-परिवार भी चाहिए
“शोरूम में काम करने वाली लड़की
नहीं चाहती शोरूम आना
वो घर जाना चाहती है।
सुनो ! इस सदी में स्त्री को
जबरिया काम पर भेजने वाले
स्त्री के मुक्तिकामी विमर्शकारो
अपना कोलाहल बन्द करो
ये लड़की क्यों, घर जाना चाहती है।”
यहां काम से पलायन नहीं विरोध उस व्यवस्था से है जहां काम के नाम पर स्त्री का सहज जीवन,उसके सपने छीन जाते हैं। जाहिर है यह पुरुष कामगारों के लिए भी उतना ही सच है।
संग्रह में माता-पिता पर कई कविताएं हैं।ये कामकाजी वर्ग के माता-पिता हैं।मेहनत-मजदूरी करते हैं, खुद भूखे रहकर बच्चों की चिंता करते हैं। माँ कोई भी खाई-खजेना बच्चों में बराबर बांटती है, मगर छोटे पर अतिरिक्त प्रेम के कारण अपना हिस्सा भी उसे दे देती है
“माँ सिन्दूरी आम की
फाँकें काटती
हम देखते रहते
कोई फाँक छोटी तो नहीं
पर न जाने कैसे
बिल्कुल बराबर काटती माँ
हमें बाँट देती..
खुद गुही लेती
जिसमें ज़रा-सा ही आम होता
छोटा रोता-मेरी फाँक छोटी है
माँ उसे अपनी गुही भी दे देती
छोटा खुश हो जाता
आँख बन्द कर गुही चूसता”
पिता कितने तूफान सहकर बच्चों का जतन करते हैं
“ताउम्र कितने कितने बर्फीले तूफान
तुम्हारी देह से गुज़रे
पर हमको छू न सके
आज बरसों बाद
जब मैं पिता! हूँ
मुझे तुम्हारा पिता! होना
बहुत याद आता है
तुम! हिमालय थे पिता!”
पिता(बाबू) की कई मार्मिक छवियां हैं
“अनायास मन पहुँच गया
उस कोठरी में
जहाँ तुम लेटे थे
मूँज की खाट में आख़िरी रात
अँधेरे में गुम हो रही थी साँस
खिड़की से झाँक रही थी
एक काली बिल्ली”
लोकजीवन में श्रमशील जनता के लिए आस्था का सकारात्मक पक्ष यह है
“काँपते पैरों से पहुँचते बाबू
सनीचर की साँझ
पीपल के पेड़ तक
बालते दिया
जोड़ देते आँखें बन्द कर हाथ
बरमदेव को…
मुझे नहीं पता जड़ में पीपल की
देव था या नहीं
पर उनकी प्रार्थना में था ।।”
बिना किसी विमर्श के स्त्री की पक्षधरता ऐसी भी होती है
“अम्मा… पिता कभी न लाये
कनफूल तेरे लिए
न फुलगेंदा, न गजरा
न कभी तुझे ले गये
मेला-मदार
न पढ़ी कभी कोई ग़ज़ल
पर चुपचाप अम्मा
तेरे जागने से पहले
भर लाते कुएँ से पानी
बुहार देते आँगन
काम में झुंझलाई अम्मा
तू जान भी न पाती
कि तूने नहीं दी
बुहारी आज।”
सभ्यता के विकासक्रम में ‘उन्नति’ की अंधी दौड़ ने न केवल पर्यवरण का विनाश किया है अपितु मनुष्यता भी जैसे खंडित हो गई है।रहन-सहन,व्यवहार कुल मिलाकर जीवन में कृत्रिमता एक कदर हावी हो गई है कि सहजता गायब हो गई है।कहना न होगा यह आदमियत का क्षरण है
“सुनो… दुनिया के लिए ज़रूरी नहीं है मिसाइल
ज़रूरी नहीं है अन्तरिक्ष की खूँटी पर
अपने अहम् को टाँगने भेजे गये उपग्रह
ज़रूरी नहीं हैं दानवों सी-चीखती मशीनें
हाँ… क्यों ज़रूरी है मंगल पर पानी की खोज ?
ज़रूरी है तो आदमी… नंगा और आदिम
हाड़-मांस का,
योग-वियोग का,
शोक-अशोक का,
एक निरा आदमी
जो धरती के नक्शे से
गायब होता जा रहा है
उसकी जगह उपज आयी हैं
बहुत-सी दूसरी प्रजातियाँ… उसके जैसी
पर उनमें आदमी के बीज तो बिल्कुल नहीं हैं”
एक आम कामकाजी आदमी की त्रासदी का ऐसा मार्मिक चित्रण दुर्लभ है
“न रुला पाता शायद
लथपथ ख़ून से
सड़क पर पड़ा
वो दोपहिया सवार
पर ढनग कर खुले टिफिन से
रोटियों के साथ
झाँक आयी थीं
दो हरी मिर्च और
अधबँधी पुड़िया में नमक ।।”
कवियों में सम्वेदनशीलता स्वाभविक है। संग्रह में प्रेम,दाम्पत्य, रोमानियत के कई चित्रण हैं। शरद की एक सुबह का चित्रण
“शरद की सुबह
कभी-कभी इतनी मुलायम होती है
जैसे सुबह हो ख़रगोश की गुलाबी आँख
जैसे सुबह हो पारिजात के नन्हे फूल
जैसे सुबह हो झीना सा काँच
कभी-कभी सुबह को सुनने और छूने
में डर लगता है
कि जैसे अभी दरक जायेगा एक गुनगुना दिन।।”
मगर इन सबके बीच कवि को मालूम है
“एक पसीने की कविता
जो दरकते खेत में उगती है
वहीं बड़ी होती है”
इस तरह संग्रह से गुजरते हुए जीवन और ख़ासकर लोकजीवन के विविध चित्र दिखाई देते हैं जहां कवि की संवेदना मनुष्यता के पक्ष में खड़ी है।उनकी मुख्य चिंता सभ्यता और विकास के नाम पर जीवन की सहजता और प्रेम के ख़त्म होते जाने, स्त्री को विमर्श के नाम पर पुरूष के विरोध में खड़े करने, पर्यावरण को दूषित करते जाने, आधुनिकता की होड़ में जल-जंगल-ज़मीन को नष्ट करते जाने की दिखाई पड़ती है, जो पाठकों को भी इसमे संपृक्त कर लेने में सक्षम है।
भाषा और सम्प्रेषण भी कथ्य के अनुरूप सहज है।लोकजीवन और परिवेश के कई शब्दों का प्रयोग सहज बन पड़ा है। जैसा कि हमने शुरू में कहा है इन कविताओं का स्वर मद्धम है, और हम ऐसा समझते हैं कि यह शैली अधिक असरकारक होती है।उम्मीद कर सकते हैं कि यह संग्रह अधिक से अधिक पाठकों पर अपना असर छोड़ेगा।