कविता

”भीड़” डाॅं.अचल भारती वरिष्ठ साहित्यकार बांका,बिहार

”भीड़”
भीड़ के पास
दिमाग नहीं होता
बालू के शुष्क रेत की तरह
होती है भीड़
भीड़ जीती है
दिवालिएपन के बीच
और मरती है रोज
फिर बार – बार जी उठने का
नाटक करती है भीड़
हर बार भीड़
साजिश की शिकार हो
अपने कारनामों में
ढूॅंढती है उपलव्धियाॅं
सुवह से शाम तक
दिखाई देती है भीड़
भीड़
मुफ्त की यात्रा में
होती है शामिल
चंद सिक्कों पर
रोटी के अदने टुकडो़ंं पर
बिकती
फिसलती है भीड़
भीड़ – दर – भीड़़
आग लगानी हो
उकसाओ भीड़
बुझानी हो आग
समझाओ भीड़
लगाना हो जंगल
आजमाओ भीड़
उजाड़ना हो जंगल
नचाओ भीड़
पीटना हो सरेआम
दंभ का ढोल
उछालो भीड़
यानि
भीड़ – दर – भीड़
भीड़ कहीं भी हो
किसी की भी हो
भीड़ तो बस भीड़ है
भीड़ लगाओ
और गुमराह करो
दूर – दूर तक फैलाओ भीड़
भीड़ के मदारी
जानते हैं
भीड़ की तबीयत
पहचानते हैं
भीड़ की नब्ज
और मदारी के मदारी
लाईलाज भीड़ में
रूपायित कर मदारी को
पूछते हैं
अरे ! भीड़ के मदारियों
कब छॅंटेगी?
मदारियों की भीड़!

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