देवरानी जेठानी मंदिर : तालागांव श्री अजय चंन्द्रवंशी सहा.वि. शिक्षा अधिकारी,साहित्यकार कवर्धा छ.ग.
साहित्यकार परिचय- श्री अजय चंन्द्रवंशी
माता-पिता –
जन्म – 18 मार्च 1978
शिक्षा- एम.ए. हिंदी
प्रकाशन –(1) ग़ज़ल संग्रह भूखऔर प्रेम (2011)
(2) ज़िंदगी आबाद रहेगी कविता संग्रह(2022)
विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में कविता, ग़ज़ल, फ़िल्म समीक्षा, इतिहास और आलोचनात्मक आलेख प्रकाशित
सम्मान – (1)छत्तीसगढ़ प्रदेश हिंदी साहित्य सम्मेलन का राजनारायण मिश्र पुनर्नवा पुरस्कार(2019) से सम्मानित
(2)छत्तीसगढ़ी साहित्य महोत्सव रायपुर द्वारा हरेली युवा सम्मान 2021
सम्प्रति – सहायक विकासखण्ड शिक्षा अधिकारी, कवर्धा
सम्पर्क –राजा फुलवारी चौक, वार्ड न. 10, कवर्धा जिला- कबीरधाम, छ.ग.,पिन- 491995
मो. 9893728320
देवरानी जेठानी मंदिर : तालागांव
छत्तीसगढ़ के प्राचीन पुरातात्विक स्थलों में तालागांव का विशिष्ट स्थान है। एक तो यहां के ‘देवरानी जेठानी’ मन्दिर को छत्तीसगढ़ का ज्ञात सबसे प्राचीन मंदिर माना जाता है,दूसरा यहां एक विलक्षण प्रतिमा प्राप्त हुई है जिसे सामान्यतः ‘रूद्रशिव’ कहा जाता है। ऐसा माना जाता है कि यह स्थल शैव सम्प्रदाय के कौलाचार्य व वाम मार्गीय उपासकों का साधना पीठ रहा होगा। इस दृष्टि से इसका नाम ‘ताला’ तारा से व्युत्पन्न हो सकता है जो कि तंत्र साधना की देवी है।
तालागांव बिलासपुर जिले में जिला मुख्यालय से लगभग 30 किलोमीटर की दूरी पर अमेरी काँपा ग्राम के पास मनियारी नदी के तट पर स्थित है। यहाँ के पुरावशेषों में मुख्यतः दो भग्न मन्दिर के अवशेष हैं जिन्हें लोकपरम्परा में ‘देवरानी-जेठानी’ मन्दिर कहा जाता है।लोक में युगल मंदिरों का इस तरह ‘,देरानी-जेठानी’, मामा-भाचा,सास-बहू’,आदि नामकरण कर दिया जाता है। इन पुरावशेषों को ‘शरभपुरीय काल’ का माना जाता है, इस कारण इनका निर्माण समय चौथी शताब्दी से छठी शताब्दी के बीच हो सकता है।मंदिर निर्माण सम्बन्धी किसी भी प्रकार के अभिलेखीय साक्ष्य प्राप्त नहीं होने के कारण वास्तविक आकलन सम्भव नहीं हो सका है।तालागांव के पुरावशेषों के बारे में हमे प्रारम्भिक जानकारी जे. डी. वेगलर के सर्वे रिपोर्ट(1873-74) से मिलती है।वेगलर वहां जा नहीं सके थे, उन्होंने रायपुर में डिप्टी कमिश्नर मि.फिशर के हवाले से उस स्थल में मन्दिर होने का जिक्र किया है।
“The Jittani Derani temple on the Bilaspur road”
मन्दिर निर्माण कार्य में स्थानीय परतदार लाल बलुआ पत्थर का उपयोग किया गया है।
देवरानी मंदिर
यह प्रस्तर निर्मित अर्ध भग्न शिव मंदिर है,जिसका मुख पूर्व दिशा की ओर है । इस मंदिर के पीछे कि तरफ शिवनाथ की सहायक नदी मनियारी प्रवाहित हो रही है | इस मंदिर की माप बहार की ओर से 75×33 फ़ीट है जिसका भू – विन्यास अनूठा है ।इसमें गर्भगृह , अंतराल एवं खुली जगह युक्त संकरा मुखमंडप है ।मंदिर में पहुँच के लिए मंदिर द्वार कि चंद्रशिलायुक्त देहरी तक सीढ़ियां निर्मित है |मुख मंडप में प्रवेश द्वार है ।मंदिर की द्वारशाखाओ पर नदी देवियों का अंकन है । सिरदल में ललाट बिम्ब में गजलक्ष्मी का अंकन है ।इस मंदिर में उपलब्ध भित्तियों की ऊंचाई 10 फ़ीट है।इसके शिखर अथवा छत अभाव है। इस मंदिर स्थली में हिन्दू मत के विभिन्न देवी देवताओं,व्यन्तर देवता पशु ,पौराणिक आकृतिया ,पुष्पांकन एवं विविध ज्यमितिक एवं अज्यमितिक प्रतीकों के अंकलनयुक्त प्रतिमाये एवं वास्तुखंड प्राप्त हुए हैं।उनमे रूद्रशिव के नाम से सम्भोधित की जाने वाली एक प्रतिमा सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। निर्माण शैली के आधार पर ताला के पुरावशेषों को छठी ईस्वी के पूर्वाद्ध में रखा जा सकता है।
मंदिर की सीढ़ियों में शिवगण व अन्य देवियों तथा गंधवों की मूर्तियां बनाने में अनूठी कलात्मकता के दर्शन होते हैं। निचले हिस्से पर शिव-पार्वती विवाह दृश्य अंकित है और उभय पाथ्यों पर गज, द्वारपाल व मकरमुख उत्कीर्ण है। प्रवेशद्वार के उत्तरी और दक्षिणी दोनों पार्श्व चार-चार भागों में विभक्त हैं, जिनमें उत्तरी पार्श्व में ऊपरी क्रम से उमा-महेश, कीर्तिमुख, द्यूत-प्रसंग व गंगा-भगीरथ का अंकन है। उमा-महेश प्रतिमा का लास्य, द्यूत प्रसंग में हारे हुए शिव के नंदी का पार्वती-गणों के अधिकार में
होना व भगीरथ अनुगामिनी गंगा स्पर्श से समर- वंशजों की मुक्ति, कलाकार की मौलिकता और कुशलता का परिचायक है। अत्यंत कलात्मक और बारीक पच्चीकारी वाले प्रवेश द्वार पर गजाभिषिक्त लक्ष्मी और शिव-कथानक का अंकन है।
जेठानी मंदिर
दक्षिणाभिमुखी यह मंदिर भगवान शिव को समर्पित है।भग्नावशेष के रूप में ज्ञात सरंचना उत्खनन से अनावृत किया गया है| किन्तु कोई भी इसे देखकर इसकी भू – निर्माण योजना के विषय में जान सकता है।सामने इसमें गर्भगृह एवं मण्डप है।जिसमे पहुँचने के लिए दक्षिण , पूर्व एवं पश्चिम दिशा से प्रविष्ट होते है। मंदिर का प्रमुख प्रवेश द्वार चौड़ी सीढ़ियों से सम्बद्ध था।इसके चारो ओर बड़े एवं मोटे स्तंभों कि यष्टिया बिखरी पड़ी हुई है और ये अनेक प्रतीकों से अंकनयुक्त हैं। स्तम्भ के निचले भाग पर कुम्भ बने हुए है। स्तंभों के उपरी भाग पर आमलक घट पर आधारित दर्शाया गया है जो कीर्तिमुख से निकली हुई लतावल्ली से अलंकृत है।मंदिर का गर्भगृह वाला भाग बहुत ही अधिक क्षतिग्रस्त है। और मंदिर के ऊपरी शिखर भाग के कोई प्रमाण प्राप्त नहीं हुए हैं।दिग्पाल देवता या गजमुख चबूतरे पर निर्मित किये गए है।निसंदेह ताला स्थित स्मारकों के अवशेष भारतीय स्थापत्यकला के विलक्षण उदाहरण है| छत्तीसगढ़ के स्थापत्य कला कि मौलिकता इसके पाषाण खंड से जीवित हो उठी है
मन्दिर अब लगभग ढह चुका है। इस ध्वस्त मंदिर से अत्यंत महत्वपूर्ण सामग्री उपलब्ध हुई है। जिठानी मंदिर में पूर्व व पश्चिम की सीढ़ियों से प्रवेश किया जा सकता है। उत्तर की ओर दो विशाल हाथियों का अग्र भाग है। विशाल स्तंभों व प्रतिमाओं के पादपीठ सहित विभिन्न आकार की ईंटों व विशालकाय पाषाणखंडों से निर्मित संरचना आकर्षित करती है। यहां प्रसन्नमात्र नामक शरभपुरीय शासक की उभरी हुई रजत मुद्रा भी प्राप्त हुई है, जिस पर ब्राह्मी के क्षेत्रीय रूप, पेटिकाशीर्ष लिपि में शासक का नाम अंकित है। शासक की यह एकमात्र रजत मुद्रा प्राप्त हुई, जबकि ऐसी स्वर्ण मुदाएं बहुतायत में मिली हैं।
कलचुरियों की रतनपुर शाखा के दो शासक, रत्नदेव व प्रतापमल्ल की भी एक-एक मुद्रा प्राप्त हुई है, जिससे अनुमान होता है कि यह क्षेत्र लगभग बारहवीं सदी ई. तक निश्चय ही जनजीवन से संबद्ध रहा। इस बात की पुष्टि यहां प्राप्त अन्य सामग्री, मिट्टी के खिलौने व पात्र, टिकिया, मनके लौह उपकरण से होती है। मदिर में अर्द्धनारीश्वर, उमा-महेश, गणेश, कार्तिकेय, नायिका,नागपुरुष आदि विभिन्न प्रतिमाएं एवं स्थापत्यखंड प्राप्त हुए है। प्रतिमाओं का आकार भी उल्लेखनीय है। इनमें कुछ तो तीन मीटर से भी अधिक लबी हैं। प्रतिमाओं में अलौकिक सौंदर्य,आकर्षक अलंकरण तथा कमनीयता का संतुलित प्रदर्शन है। दो अन्य पाषाण प्रतिमाएं विष्णु और गौरी की हैं, इनका काल लगभग आठवीं सदी ई. है। ताला के इन मंदिरों पर गंभीर शोध की आवश्यकता है।ऐसा प्रतीत होता है कि 8-9वी शताब्दी में इस मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया गया था।
ताला की विलक्षण शिव प्रतिमा
देवरानी एवं जेठानी मंदिर अपनी विशिष्ट कला के कारण देश-विदेश में कला प्रेमियों के लिए आकर्षण का केन्द्र रहे हैं। 11 जनवरी 1988 को यहां से मलबा सफाई के दौरान एक विलक्षण प्रतिमा देवरानी मंदिर के द्वार के निकट से प्रकाश में आई निर्माण कला दृष्टि से अद्भुत यह विशाल प्रतिमा लगभग 9 फीट ऊंची तथा 5 टन वजनी है। इसमें कलाकार ने प्रतिमा के शारीरिक विन्यास की संरचना करते समय विभिन्न पशु-पक्षियों का अंकन किया है।
ये प्राणी जलचर, थलचर, उभयचर एवं नभचर हैं। प्रतिमा के शीर्ष भाग में सर्प-युग्म, एक पगड़ी का निर्माण करते हैं। नासिका एवं आंखों के भौंह का निर्माण छिपकिली अथवा गोधा सदृश्य प्राणी से किया गया है। मूछों के चित्रण के लिए मत्स्य-युग्म का प्रयोग किया गया है। ठुड्डी का निर्माण कर्क (केकड़ा) द्वारा किया गया है। नेत्रों के चित्रण में मुख खोले मेंढक अथवा दहाड़ते हुए सिंह मुख की कल्पना की जा सकती है। कानों के अंकन के लिए मयूर आकृति प्रयुक्त है। दोनों कंधों के ऊपर फन काढ़े सर्प प्रदर्शित हैं। कंधों का चित्रण मकर-मुख द्वारा
किया गया है, जिससे दोनों बाहु निकलते हुए दिखाए गए हैं। शरीर के विभिन्न अंगों में सात मानव मुखों का चित्रण किया गया है। वक्ष-स्थल में दोनों ओर दो छोटे मुख अंकित हैं। उदर का निर्माण एक बड़े मुख द्वारा किया गया है। इन तीनों मुखों में मूंछों का अंकन है। जंघाओं में सामने की ओर अंजलिबद्ध दो मुख तथा पार्श्व में दो मुख अंकित किए गए हैं। दो सिंह मुख घुटनों में चित्रित हैं। उर्ध्वाकार लिंग के निर्माण के लिए मुंह निकाले कच्छप का प्रयोग किया गया है। घण्टाकृत अण्डकोष कच्छप के पिछले पैरों से बने हैं।
सर्पो का प्रयोग उदरपट्ट,कटिसूत्र तथा हाथ के नाखूनों के लिए किया है। पैरों के समीप भी सर्प का अंकन है। इस प्रकार की प्रतिमा देश के किसी अन्य स्थान से प्राप्त नहीं हुई है और न ही किसी शिल्प ग्रंथ में इस प्रकार की प्रतिमा का उल्लेख है। अतः इस प्रतिमा का नामकरण एक कठिन समस्या है। फिर भी विद्वानों ने इसके लिए लकुलीश, रूद्र-शिव, पशुपति, द्वादश मुख शिव,सदाशिव आदि के नाम सुझाए हैं।इधर डॉ हेमू यदु ने इसे राशिफल से जोड़ते हुए इसे ‘कालपुरुष’ की संज्ञा दी है। कला शैली के आधार पर यह प्रतिमा यक्ष परंपरा में निर्मित प्रतीत होती है, अतः इसके लिए यक्ष-शिव का नाम सुझाया गया है। प्रतिमा का काल 500-550 ई. के बीच निर्धारित किया जा सकता है।
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संदर्भ-
(1)आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया रिपोर्ट वॉल.(VII)1873-74, जे.डी. वेगलर
(2)श्री राहुल कुमार सिंह का आलेख ‘ताला’-ब्लॉग सिंहावलोकन से
(3)छत्तीसगढ़ का इतिहास-डॉ रामकुमार बेहार
(4)मन्दिर सम्बन्धी सूचना फलक- तालागांव
(5) सन्दर्भ छत्तीसगढ़- देशबन्धु प्रकाशन(1993)
टीपः- आलेख की विषयवस्तु,मौलिकता सभी लेखक की अपनी है,इसमें सशक्त हस्ताक्षर कोई जिम्मेदार नहीं रहेगा।