स्मृति शेष -पुत्र युगान्तर के द्वितीय पुण्यतिथि पर विशेष…..
यादें हमें अपने अतीत में ले जाती है और अतीत इतिहास में, वैसे इतिहास वर्तमान को देखने और समझने की दृष्टि तो देता ही है वही स्मृतियां भविष्य के संदर्भ में कल्पनाएं बन जाती हैं और एक तरह से यादें कल्पनाओं के बीच के सवालों से जूझती टकराती हुई अपने समकाल को चुनौती देती है।
आज 24 जून 2022 को बेटा युगांतर का द्वितीय पुण्य स्मृति है । सबसे पहले इस पावन स्मृति को सादर नमन करता हूं । बेटा युगांतर काॅमर्स का विद्यार्थी था। 12वीं की पढ़ाई काॅमर्स से की । 23 जून 2020 को दोपहर तक 12 वीं का परीक्षा परिणाम आया और अच्छे अंकों से उत्तीर्ण होकर गौरवान्वित हो रहे थे। लेकिन भगवान की अलग इच्छा थी शायद यह उपलब्धि रास नहीं आया होगा।
इसलिए अपने आगोश में समा लिये । पढ़ाई के दौरान युगांतर हमेशा कहते थे कि पापा हम उस अंधेरे जगत में निवास करते हैं, जो हमारी करनी का फल है, यदि हम स्वयं को जानना चाहते हैं तो अपनी असफलताओं से जानें। हमारी सबसे बड़ी असफलता तो यह है कि हम इंसान नहीं हो सके। महज 17 साल 4 महिना की आयु थी। दुनिया देखने के लिए आंखें ही नहीं खुली थी। मम्मी- पापा – भाई को बिना बताए स्वर्ग को सिधार गये। खैर! प्रभु की इच्छा के सामने हम सब नतमस्तक हैं। यह उन्हीं का दिया हुआ फूल है।
यादें अतीत और वर्तमान को जोड़ने का काम करती नजर आती हैं और भविष्य की तरफ इंगित भी करती हैं। मैं ऐसे ही समय से गुजर रहा हूं और इससे उबर पाने की संभावना शेष नहीं रह गई, यह विषाद लगातार घेरे रहता है, यह आप बीती लिखने के कितना अनुकूल समय था , लेकिन न मस्तिष्क में एकाग्रता संभव हो पा रही है, न चित्त में, उनके बारे में लिखना ही कठिन हो रहा है, फिर भी लिखने की चेष्टा करना सिर की भीषण व्याधि से पहले के समय की स्मृति दिला रहा है।
युगान्तर के जाने के बाद हम लोगों के जीवन में एकाकीपन की पीड़ा को इस तरह से भर दिया जिससे उनकी आशा आकांक्षा में ही जैसे घुन लग गया हो। हम उस संसार को देखने का प्रयास जरूर करते हैं लेकिन मम्मी- पापा के स्मृति पटल में बेटा का छवि समाया हुआ है। उदासी के बादल को अपने इर्द गिर्द छितराने नहीं देती और उसे अपने जीवन का हिस्सा भी नहीं बनने देती। वर्तमान को स्वीकारने के लिए यही भाव चित्र अनुपम होगा-
माटी होही तोर चोला रे संगी, माटी होही तोर चोला ।
माटी ले उपजे माटी मा बाढ़े, माटी में मिलना हे तोला।।
माटी के घर मा माटी के भुंइया, लाख जतन करे माटी के दुनिया ।
बड़े बड़े मन के नइ बांचिस, कोन कहे अब तोला रे संगी।।
जीवन के कई किस्से कहानी हैं, कई यादें हैं। युगान्तर यह बातें जरुर कहा करते थे कि मृत्यु के बाद का जीवन मनुष्य की आकांक्षा का जीवन है। जहां मनुष्य मरने के बाद भी अपनी आकांक्षा, सरोकारों और प्रतिबद्धताओं के रूप में जीवित रहता है। यह अवधारणा पुनर्जन्म के सिद्धांत को भी खारिज करती है, जहां ना – ना किस्म के धर्म और आडंबर जन्म लेते हैं।
युगान्तर जीवन को बहुत ही सुंदर और सुखद बनाने के प्रयत्न में लगे थे। मनुष्य अपनी मानवीय चेतना का विकास कर सके ताकि यह संसार जीने लायक जगह हो, जहां हर कोई बिना भेदभाव के एक सम्मानित जीवन जी सके। वह यह भी कहते थे कि मनुष्य के भीतर जो सुंदर है वही इस जीवन जगत के संचालक शक्ति है, उसी से धरती पर जीवन है, सुंदरता कितना बड़ा कारण है हम बचेंगे अगर, मानव अस्मिता का प्रश्न आज से पहले इतना प्रासंगिक कभी नहीं था, युगान्तर अपने जीवन व्यवहार को बचाने का प्रयत्न भी करते थे।
कुछ खोना हे कुछ पाना हे
हां हां रे संगी जीवन के खेल पुराना
इही माटी म रे संगी खेले कूदे हाबस न
इही माटी म मिल जाना
माटी ला छोड़े कहां जाना
माटी के करजा चुकाना
युगान्तर कबीराना की तरह फक्कड़ मिजाज के व्यक्ति थे। ज्यादातर उसे किसी चीज का मोह नहीं था। दूसरों के होने के लिए अपने भीतर और बाहर दुनिया को छोड़ते हुए आगे बढ़ते थे और शायद इस प्रक्रिया में वह एक दिन अचानक हमारे बीच से सदा- सदा के लिए विदा ले लेता है। ऐसे समय में जब मनुष्य की भूख इतनी बढ़ गई है कि वह हमारे आज तक के अर्जित सौंदर्य, स्थापित मानवीय मूल्य और समूची प्रकृति को ही निगलने लगा है, एक ऐसी सम्वेदना, युगान्तर चेतना का ऐसा प्रादर्श था जो अपने जीवन तथा समाजिक सरोकारों और कलात्मक अभिव्यक्ति में करते थे। कलात्मक और सांस्कृतिक अभिव्यक्ति की प्रासंगिकता उनकी यादों को तरोताजा बनाते हैं।
’’धरती जहां से पेंड़ बन कर आना चाहती थी
वहां से हट जाते थे और चिड़ियों के भीतर से गाते थे
प्रकृति और मनुष्य के बीच अंतर- संबंध, सहयोग और सहिष्णुता के प्रति युगान्तर की सम्वेदना उन्हें इतना विशिष्ट कलाकार बनाते हैं कि आज उन्हें यहां याद करते हुए मेरा मन रह रह कर रोमांचित हो जाना सहज और सुखद भी है।
घर में हम लोग नाराज होते थे कि युगान्तर बहुत अराजक जिंदगी जी रहे हैं। न स्वास्थ्य का ध्यान रखते न सावधानियों का। सच तो यह है कि एक सम्वेदनशील मनुष्य के लिए यह दुनिया क्या जीने लायक बची है। इस दुनिया के विषय में युगान्तर क्या सोचते थे, और अपना हस्तक्षेप किस तरह करते थे उसकी बानगी उनकी क्रियाशील चित्रों में मिलती थी। गांधी से ज्यादा गांधीगिरी, छोटे परिवार की सामाजिक वैमनस्यता, अंधेरों से ज्यादा उजाले की ओर। इस दृश्य में जीवन के बचे रहने का संकट जिस गति से गहराता जा रहा है, युगान्तर स्वयं भुक्तभोगी व्यक्ति थे।वो कहा करते थे कि आम आदमी का जीवन कितना कठिन है।
युगान्तर अब जीवन भर के लिए मेरे हाथ से निकल गया। मैं किस दुनिया में उसे खोजते फिरूं। सामान्य स्वभाव का जीवन जीने वाले व्यक्ति वह हर किसी से इतनी ही आत्मीयता से मिलते थे। उनके बहुत सारे मित्र होते थे। उनके स्वभाव के जितने प्रकार थे उनके मित्रों के विस्तार में उन्हें जाना जा सकता था। पर मुझे हमेशा लगा इन तमाम बातों के अलावा भी युगान्तर का एक बिल्कुल अकेला अव्यक्त संसार था जहां वह नितांत अकेला चिंतन मनन करते थे ।
वह नए एवं पुराने किस्से इस तरह सुनाते थे कि सुनते हुए बहुत सरलता से उनके बातों में प्रवेश कर जाते थे। संगीत या चित्रकला पर हमेशा निर्विकार भाव से बोलते थे। लोगों की जोड़ – तोड़ , जुगाड़ या खेमेबाजी , लोभ- लालच, चालबाजियों और लंपटता को बहुत आसानी से सूंघ लेते थे। लोगों की सहजता को वह कलाकार की बुनियादी योग्यता मानते थे। युगान्तर ने इस तरह पढ़ाई के साथ – साथ अपना बहुत महत्वपूर्ण समय संगीत और चित्रकला को साधने में दिया।
केन्द्रीय विद्यालय मुजगहन, धमतरी में अध्ययन के दौरान प्राचार्य डॉ. एस. एस. धु्रर्वे के संरक्षण-मार्गदर्शन, श्री जे.पी. सिंग से वाक पटुता, पेंटिंग टीचर श्री योगेश नेताम से श्वेत स्निग्ध कागज में रंगों से चित्रकारी करना सीखी। छत्तीसगढ़ के सुप्रसिद्ध लोक साहित्यकार श्री दुर्गा प्रसाद पारकर से छत्तीसगढ़ के लोक जीवन के बदलते संदर्भ व चिन्हारी की क ख ग सीखी। जीवन में उन समझौतों और जीने की कला के खिलाफ थे, जहां मनुष्य अपने पृथ्वी में जन्म लेने के अर्थ एवं अभिप्रायों से विमुख हो और अमानवीय जीवन जीने के लिए अभिशप्त ।
जाहिर सी बात है इन तमाम प्रतिबिंबों की खोज निकालते थे। मेरा ऐसा मानना है कि अगर पत्थर उठाकर उन ठहरे हुए जल स्रोतों पर फेंकते हैं ठहरे तरल में उठने वाली लहरें उनकी लगातार विस्तारित होती आवृत्तियां उन्हें जिस रहस्यमयी सच की तरफ ले जाती, वहां व्यक्ति विस्तारित हो और क्रमशः अंतरिक्ष, आदित्य, धुलोक, शून्य और अंतरू परम मृत्यु को प्राप्त होता है।
जीवन की यही गति काल से होड़ लेने की कथा है। जहां काल से होड़ लेने की परंपरा है, काल से होड़ लेने की इस प्रयत्न साध्य पवित्रता में ही युगान्तर का रचना संसार विकसित हुआ।
युगान्तर को मेरा शत्-शत् नमन, विनम्र श्रद्धांजलि, इस विश्वास के साथ कि संसार पाप से एक दिन मुक्त होगा और फिर युगान्तर की तरह सम्वेदनशील किसी अन्य छात्र कलाकार को यह पंक्तियां न लिखनी पड़ेगी कि-कैसे मैं इंकार कर सकूंगा उस पाप से, जो संसार के किसी कोने में कोई कर रहा है।
बेटा युगान्तर का स्मृति अब भी बार-बार 24 जून 2020 तक वापस लौटा देती है।
चोला माटी के हे राम
येखर का भरोसा चोला माटी के हे राम
द्रोण जइसे गुरु चलेगे करण जइसे दानी रे संगी
बाली जइसे बीर चलेगे रावण जस अभिमानी
चोला माटी के हे राम…..
कोनो रीहिस न कोनो रहे भई आही सब के पारी
काल कोनो ला छोड़े नहीं राजा रंक भिखारी
चोला माटी के हे राम…..
भव से पार लगे बर हे ते हरि के नाम सुमर ले
ये दुनिया माया के पगला जीवन मुक्ति कर ले
चोला माटी के हे राम…..