अपनी संस्कृति और सभ्यता किसे प्रिय नहीं है? जब संस्कृति और सभ्यता की बात की ही जा रही है तो छत्तीसगढ़ को कैसे भूला जा सकता है? जहां यहां के लोक जीवन में कला संस्कृति और समेटे साहित्य के ज्ञान का भंडार भरा हुआ है। अतीत की परंपराएं निश्चित ही मन को भाती है,जिसे काफी हद तक अक्षुण्ण रखा गया है।देश में अन्य प्रदेशों की तरह यहां भी खानपान की अपनी विशिष्टता है। वर्तमान भूपेश बघेल की सरकार ने छत्तीसगढ़ की लोक संस्कृति परंपराओं के साथ ही अब यहां के प्रचलित खानपान व्यंजनों पर भी ध्यान दे रही है,उन्हें जिन्हें लोग भूलते जा रहे हैं।
पुर्नजीवित करने का प्रयास कहा जाय तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। छत्तीसगढ़ के लोक जीवन में तीज त्यौहारों के बाद अब यहां के खानपान जो कि अतीत में बोरे बासी जो कि जीवन का आधार रहा जिसके नाम 1 मई जिसे मजदूर दिवस के रूप में देश में मनाया जाता है बोरे बासी खाकर मनाये जाने की अपील प्रदेश के मुखिया ने की है। बोरे बासी शब्द ही अन्य प्रदेशों के लिए कौतुहल की बात हो गई है कि ये है क्या? बताते चलें रात्रि में खानपान के बाद बची चांवल को एक बर्तन में लेकर पानी में डुबा दिया जाता है,जिसे दूसरे दिन उसमें नमक डालकर आम के अचार,प्याज के साथ खाया जाता है। एक बार बाेरे बासी खाने से दिनभर भूख का सामना नहीं करना पडता प्यास भी कम लगती है लोगों का ऐसा कहना है। जैसे कि अन्य बातों पर सियासत हावी होती है, बोरे बासी पर सियासी गलियाराें में चर्चाएं हाे रही है ।
क्या है,छत्तीसगढ़ का खानपान
यहां का खानपान भी पारंपरिक ज्यादा रहा है,जिसे लोग पहले पहल पसंद करते हैं। अतीत से चले आ रहे खानपान में मुख्यतः बोरे बासी,फरा,चीला,अंगाकर रोटीठेठरी,खुरमी,दूध फरा,तसमई आदि व्यंजन है। हालांकि आज आधुनिकता के दौर पर यह सारे व्यंजन कम बनते हैं। यहां के सार्वजनिक होटलों में साउथ की देन दोसा,बड़ा,समोसा आदि हल्की नाश्ता खानपान प्रचलन में है। हालांकि छत्तीसगढ़ सरकार ने राजधानी के साथ ही जिला मुख्यालयों में सबके लिए छत्तीसगढ़ी व्यंजन उपलब्ध कराये जाने के शुभ विचार से गढ़कलेवा सेंटर प्रारंभ की थी। जिला मुख्यालयों में स्थापित किये गये गढ़कलेवा सेंटर जिन्हें महिला समूहों द्वारा संचालित किया जाता रहा है,यहां बेहतर प्रतिसाद मिला। यहां भी बोरे बासी की उपलब्धता निश्चित की जा रही है।
आधुनिकता की मार
निश्चित रूप से लोक जीवन में अपनी पारंपरिक खानपान की प्रषंसा के लिए लिखना,बोलना अलग बात है, पर आधुनिकता के व्यस्ततम रोजमर्रा में वह पटरी पर नहीं है। पूर्व में बताया गया है कि यहां के सार्वजनिक जगहों पर आम रूप से प्रचलित नाश्ते की उपलब्धता होती है। जैसे बोरे बासी को ही लें। विचार करें कि छत्तीसगढ़ में प्रचलित बोरे बासी वर्तमान में कितने प्रतिशत लोग खाते हैं। अलसुबह से गरिष्ठ भोजन करने वाले तो थोड़ा सा दस मिनट क्या हुआ ठंडा है कह कर दूर जाते हैं, वे बोरे बासी क्या खाएंगे! लाभप्रद तो हर खानपान है,लेकिन लाभप्रद को विचार करते हुए भी लोग बोरे बासी से अब काफी दूर हैं।
विचार स्वयं करें कि आपने पिछले कब बोरे बासी खाया था? यह भी विचार करें कि अब क्यों नहीं खाते? अलसुबह तो खाने से रहे।फिर कामकाज के लिए भी निकलना है। पहले जैसे भी नहीं कि टिफिन में बोरेबासी लेकर चलें। बोरे बासी दूर कुछ वर्षों पूर्व तो घर के अंगाकर रोटी भी बाहर जाते समय ले जाते और होटलों में खाते थे,जो अब नहीं दिखते। तब गरीबी का भी काफी सामना करते थे,होटलों में खाना बड़ी बात मानी जाती थी। अब तो खाने का लोगों में डोज भी कम हो गया है। घर से निकल कर खाने का परवाह नहीं करते। होटलों में चाय नाश्ता खाकर बीता लेते हैं।